योगी आदित्यनाथ के ‘ऑपरेशन लंगड़ा’ से उत्तर प्रदेश में क्या बदला और क्या हैं सवाल?

पिछले तीन अगस्त को नोएडा का एक वीडियो सामने आया जिसमें एक व्यक्ति लंगड़ाते हुए कराह रहा है कि ‘अब कभी नोएडा नहीं आऊंगा.’ इस व्यक्ति को दो लोग पकड़े हुए हैं और साथ में कुछ पुलिसकर्मी भी हैं.

पुलिस के मुताबिक, ‘शाह रुख़ उर्फ़ चाना नाम का यह व्यक्ति अपराधी प्रवृत्ति का है, पुलिस चेकिंग अभियान चला रही थी, तभी बिना नंबर की बाइक से दो लोग आते दिखे. पुलिस ने घेराबंदी की, दोनों ने भागने की कोशिश की और पुलिस पर फ़ायरिंग की. मजबूरी में पुलिस को गोली चलानी पड़ी जो शाह रुख़ के पैर में लगी. दूसरा बदमाश फ़रार हो गया.’

अपराधी को पकड़ने, उसके भागने और फिर पुलिस के गोली चलाने का यह अकेला मामला नहीं है बल्कि हाल के दिनों में इस तरह के कई मामले सामने आए हैं, ख़ासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के विभिन्न ज़िलों से. ज़्यादातर में पुलिस की गोली अपराधी के पैरों में लग रही है जिसकी वजह से वो भविष्य में ज़िंदा तो बचा रहेगा लेकिन चलने में असमर्थ हो जाएगा.

अपराधियों के ख़िलाफ़ इसे यूपी पुलिस की नई रणनीति बताया जा रहा है और अनाधिकारिक रूप से इस कार्रवाई को ‘ऑपरेशन लँगड़ा’ के तौर पर प्रचारित भी किया जा रहा है.

“मुठभेड़ों की संख्या बढ़ी”

यूपी पुलिस का दावा है कि मार्च 2017 से लेकर अब तक राज्य भर में कुल 8559 एनकाउंटर हुए हैं जिनमें 3349 अपराधियों को गोली मारकर घायल किया गया है. इन मुठभेड़ों में अब तक 146 लोगों की मौत भी हुई है जबकि इस दौरान 13 पुलिसकर्मी भी मारे गए हैं जबकि क़रीब 12 सौ पुलिसकर्मी घायल भी हुए हैं. मुठभेड़ों के दौरान 18 हज़ार से भी ज़्यादा अपराधी गिरफ़्तार भी हुए हैं.

यूपी के अपर पुलिस महानिदेशक, क़ानून व्यवस्था प्रशांत कुमार कहते हैं कि यह कोई योजनाबद्ध तरीक़े से नहीं किया गया है लेकिन पुलिस की सक्रियता की वजह से मुठभेड़ों की संख्या बढ़ी है.

प्रशांत कुमार के मुताबिक, “पुलिस का मक़सद किसी अपराधी को गिरफ़्तार करना ही होता है और पूरी कोशिश होती है कि उसे घेरकर पकड़ा जाए. बड़ी संख्या में अपराधियों के घायल होना यह साबित करता है कि पुलिस का पहला मक़सद गिरफ़्तारी है.”

एनकाउंटर्स को प्रचारित किया गया

यूपी पुलिस के ये आंकड़े तब से हैं जब राज्य में योगी आदित्यनाथ की बीजेपी सरकार सत्ता में आई है. मार्च 2017 में सत्ता सँभालने के बाद ही राज्य सरकार ने एनकाउंटर्स को उपलब्धि के तौर पर प्रचारित किया और विपक्ष, मानवाधिकार संगठनों ने इन एनकाउंटर्स को फ़र्जी बताते हुए सवाल उठाए.

सरकार बनने के क़रीब डेढ़ साल के भीतर ऐसे मुठभेड़ों में मरने वालों की संख्या जब 58 तक पहुंच गई तो एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी इन एनकाउंटर्स पर सवाल उठाए और रिपोर्ट मांगी.

बावजूद इनके राज्य में एनकाउंटर्स की संख्या में कोई कमी नहीं आई और राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपराध और अपराधियों के ख़िलाफ़ ‘ज़ीरो टॉरलेंस’ नीति के तहत इसे जायज़ ठहराते रहे. पिछले साल जुलाई महीने में कानपुर के बिकरू गांव में आठ पुलिसकर्मियों की हत्या के बाद मुख्य अभियुक्त विकास दुबे और उनके छह साथियों की पुलिस मुठभेड़ में जिस तरह से मौत हुई, एनकाउंटर्स को लेकर सरकार को फिर घेरा जाने लगा.

पैर में गोली मारने की रणनीति

यूपी पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि इसके बाद ही यह रणनीति अपनाई गई कि ‘अपराधियों को जान से मारने की बजाय उसे अपंग बना दो. पैर पर गोली मारना उसी का एक हिस्सा है. इससे अपराधी मरता नहीं है लेकिन उसके मन में पुलिस के प्रति ख़ौफ़ आजीवन बना रहेगा और पैर ख़राब हो जाने के कारण अपराध से भी दूर रहेगा. मानवाधिकार जैसे क़ानूनी दांव-पेंच का भी ख़तरा कम रहता है.’

लेकिन सवाल यह है कि क्या इस तरह की कार्रवाइयों से राज्य में अपराध कम हो गए या फिर अपराधी कम हो गए? मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने भाषणों में इस बात का अक़्सर ज़िक्र करते हैं कि ‘जब से बीजेपी सरकार सत्ता में आई है, अपराधी या तो ज़मानत रद्द कराकर जेलों में चले गए हैं या फिर यूपी की सीमाओं के बाहर चले गए हैं.’

“पुलिस को खुली छूट देना ग़ैर-क़ानूनी”

लेकिन मानवाधिकार कार्यकर्ता और रिटायर्ड पुलिस अधिकारी एसआर दारापुरी अपराध रोकने के इस तरीक़े से क़तई सहमत नहीं हैं. दारापुरी कहते हैं, ‘फ़र्ज़ी एनकाउंटर्स के मामले में जिस तरह से यूपी शीर्ष पर है, अपराध के मामलों में भी वह शीर्ष पर ही है. कुछ चुनिंदा लोगों को एनकाउंटर में मार देना, अपंग बना देना या फिर उनका घर गिरा देना, इन सबसे अपराध कम नहीं होते हैं. यह तो पुलिस को खुली छूट देना है जो कि ग़ैर-क़ानूनी है.’

दारापुरी कहते हैं, “इस तरह के एनकाउंटर्स न सिर्फ़ अमानवीय हैं बल्कि अपराध नियंत्रण के तरीक़े के तौर पर इनका इस्तेमाल करना ग़ैर क़ानूनी भी है. दारापुरी एनकाउंटर्स की सच्चाई पर भी सवाल उठाते हैं, ‘ये जितने भी एनकाउंटर्स हुए हैं, आप देखिए कि उसमें पुलिस वालों को साधारण चोटें आती हैं, लेकिन दूसरा व्यक्ति मारा जाता है या फिर घायल हो जाता है. ये जो भी एनकाउंटर्स दिखाए जा रहे हैं, ये सारे फ़र्ज़ी हैं क्योंकि पुलिस वालों को किस अस्पताल में रखा गया, कितने दिन इलाज हुआ, कब उन्होंने दोबारा ड्यूटी ज्वॉइन की, इन सबका कोई रिकॉर्ड नहीं है.”

“पुलिस अधिकारी के रूप में मैं ये कह सकता हूं कि यदि पुलिस वालों को गंभीर चोटें न आएं या मारे न जाएं तो ये फ़र्जी हैं. क्योंकि मुठभेड़ में तो दोनों को गोली लगेगी. पैर में या घुटने में गोली लगे, ये तो प्रथम दृष्ट्या फ़र्जी लगता है. दूसरी बात, सभी एनकाउंटर्स में कहानी एक ही होती है. आख़िर यह कैसे संभव है.”

पुलिस मुठभेड़

हाल के दिनों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिन इलाक़ों में मुठभेड़ हुए हैं और जिनमें कथित अपराधियों को मुठभेड़ में गोली लगी है और वो अस्पताल में भर्ती हैं या जेल में हैं, उनके परिजनों को भी मुठभेड़ पर भरोसा नहीं है. परिजन इस बारे में खुलकर किसी से कुछ कह भी नहीं पा रहे हैं, यहां तक कि मीडिया से भी नहीं. ऐसे ही एक अभियुक्त के परिजनों का कहना है कि जिस रात मुठभेड़ दिखाई गई, उससे ठीक पहले तक वह व्यक्ति अपने घर वालों के साथ था.

उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के दौरान एनकाउंटर की सबसे ज़्यादा 2839 घटनाएं मेरठ ज़िले में हुई हैं. एनकाउंटर में 61 अपराधियों की मौत हुई है और 1547 अपराधी घायल हुए हैं. इन मामलों में दूसरे नंबर पर आगरा और तीसरे पर बरेली ज़िला है. इन ज़िलों में भी अपराध की घटनाओं में कमी नहीं है बल्कि छोटे-मोटे अपराधों से लेकर जघन्य अपराध तक की घटनाएं यहां आए दिन होती रहती हैं.

“पुलिस सेल्फ़ डिफ़ेंस में बल प्रयोग करती है”

मेरठ के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक प्रभाकर चौधरी कहते हैं, “एनकाउंटर्स को लोग ये समझते हैं कि पुलिस पकड़ कर मारती है लेकिन ऐसा नहीं है. पुलिस सेल्फ़ डिफ़ेस में ही बल प्रयोग करती है. पुलिस एक प्रशिक्षित बल है. अपराधी को क़ाबू करने के लिए, उसे गिरफ़्तार करने के लिए और विशेष परिस्थितियों में ही बल प्रयोग किया जाता है.”

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में शामली ज़िले में भी मुठभेड़ की कई घटनाएं हो चुकी हैं और कथित अपराधियों की हाथ खड़े करके थानों में सरेंडर करने संबंधी तस्वीरें भी आए दिन दिखती रहती हैं. शामली के पुलिस अधीक्षक सुकृति माधव कहते हैं कि पुलिस की इन सख़्तियों से अपराधियों में ख़ौफ़ ज़रूर रहता है.

उनके मुताबिक, “शारीरिक और संपत्ति संबंधी अपराधों में कमी आई है. दूसरे, पुलिस की कार्रवाई आसान हो जाती है. अपराधियों का साथ देने के लिए वो लोग सामने नहीं आते हैं जिनका अपराध से सीधा संबंध नहीं होता. छापेमारी में आसानी होती है.”

एनकाउंटर्स पर सवाल उठने की वजह सिर्फ़ पीड़ित अभियुक्तों के परिजन ही नहीं, बल्कि पुलिस की कुछ कार्रवाइयां भी रही हैं. साल 2018 में एनकाउंटर के एक मामले में ख़ुद पुलिस भी कई मुठभेड़ों में बैकफ़ुट पर नज़र आई जब निजी दुश्मनी निकालने के लिए भी एक पुलिसकर्मी ने आपसी लड़ाई को एनकाउंटर दिखा दिया था.

नोएडा में एक दारोगा ने फ़र्ज़ी एनकाउंटर दिखाते हुए 25 साल के एक युवक को गोली मार दी. ये युवक नोएडा में ही ज़िम चलाता था. मीडिया में इसकी चर्चा होने के बाद पता चला कि ये हमला व्यक्तिगत दुश्मनी में किया गया. मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने यूपी सरकार को नोटिस जारी किया. बाद में कथित तौर पर एनकाउंटर करने वाले दारोगा की गिरफ़्तारी भी हुई.

12 सितंबर 2017 को सहारनपुर के शेरपुर गांव के 35 वर्षीय शमशाद को भी पुलिस ने कथित तौर पर एनकाउंटर में मार गिराया. शमशाद पिछले दो सालों से देवबंद जेल में बंद थे. पुलिस के मुताबिक़, उनके ख़िलाफ़ लूट और चोरी के कई मामले चल रहे थे और वह 8 सितंबर, 2017 को पुलिस की हिरासत से फ़रार हो गए थे. पुलिस ने उनका पीछा करने की कोशिश की और वह गोलीबारी में मारे गए. लेकिन, शमशाद के परिवार वालों का आरोप है कि उन्हें फ़र्ज़ी तरीक़े से हुए एनकाउंटर में मारा गया. परिवार वालों के मुताबिक़ ‘जब उनकी सज़ा ख़त्म होने ही वाली थी, तब आख़िर वह क्यों भागेंगे?’

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