अफगानिस्तान में तालिबान के आने से भारत-ईरान संबंध और मजबूत होंगे? एक्सपर्ट्स क्या कहते हैं?
भारतीय विदेश मंत्री सुब्रमण्यम जयशंकर पिछले कुछ दिनों में दो बार ईरान का दौरा कर चुके हैं। दोनों बार उन्होंने राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी से मुलाकात की है। यह बता रहा है भारत ईरान से घनिष्ठ संबंध बनाना चाह रहा है। लेकिन क्यों? इसका सबसे प्रमुख कारण है अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा। लेकिन ये कारण कैसे? आइए इसे समझने की कोशिश करते हैं।
डी पी श्रीवास्तव ईरान में भारत के राजदूत रहे हैं। उन्होंने अल-मॉनिटर से बात करते हुए कहा है कि ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी के शपथ ग्रहण में भरतीय विदेश मंत्री सुब्रमण्यम जयशंकर का होना इस बात का संकेत है कि भारत के लिए ईरान कितना अहम है। इस क्षेत्र में हमारे समान हित हैं।
जयशंकर से मिलने के बाद रईसी ने कहा था, ‘ईरान और भारत क्षेत्र में सुरक्षा सुनिश्चित करने में एक रचनात्मक और उपयोगी भूमिका निभा सकते हैं। ख़ासकर अफगानिस्तान में। ईरान क्षेत्र में सुरक्षा स्थापित करने में नई दिल्ली की भूमिका का स्वागत करता है।’ रईसी ने तेहरान-नई दिल्ली संबंधों के स्तर को बढ़ाने के लिए एक संयुक्त कार्यक्रम का भी सुझाव दिया था।
तेहरान के जरिए काबुल में एंट्री?
भारत अफगानिस्तान से बॉर्डर नहीं साझा करता है। ऐसे में नई दिल्ली, तेहरान के जरिए काबुल में प्रवेश को देख रही है। भारत लंबे समय से ईरान के साथ मिलकर चाबहार पोर्ट पर काम कर रहा है ताकि अफगानिस्तान तक आसानी से पहुंचा जा सके।
इंटरनेशनल रिलेशंस के एक्सपर्ट और स्वीडन के उप्साला यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर अशोक स्वैन ने अल-मॉनिटर से बातचीत में कहा है, ‘भारत और ईरान के बीच दशकों से अच्छे संबंध हैं। चीन के साथ ईरान के बढ़ते संबंधों ने भारत-ईरान संबंध को कुछ हद तक प्रभावित किया है, लेकिन भारत और ईरान दोनों तालिबान नियंत्रित अफगानिस्तान को अपनी राष्ट्रीय एकता और सुरक्षा के लिए एक खतरे के रूप में देखते हैं। ऐसे में दोनों देश एक साथ आकर अपने द्विपक्षीय संबंधों को और मजबूत करने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।’
अफगानिस्तान की बात आते ही भारत और ईरान के हित एक से नजर आते हैं। 1990 के दशक में भारत और ईरान ने नॉर्दर्न एलायंस का समर्थन किया था जो तालिबान के विरोध में थे। दोनों देशों ने अफगानिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार के साथ मिलकर काम किया है।
ईरान का चीन की ओर झुकाव क्यों?
तेहरान ने बीजिंग के साथ एक रणनीतिक साझेदारी की है। भारत भले ही ईरान को चीन और पाकिस्तान की ओर झुकाव से रोकना चाहेगा लेकिन यह सौदा हो चुका है। ऐसे में यह भारत-ईरान संबंधों को प्रभावित कर सकता है। एक्सपर्ट्स बताते हैं कि चीन वखान कॉरिडोर में अफगानिस्तान के साथ सीमा साझा करता है और ताजिकिस्तान के नजदीक सैन्य उपस्थिति बनाए हुए है। चीन अफगानिस्तान की धरती पर सैन्य उपस्थिति दर्ज करा सकता है जबकि भारत के लिए यह आसान नहीं होगा क्योंकि भारत, अफगानिस्तान से बॉर्डर नहीं साझा करता है। एक बात यह भी है कि भारत के चीन के संबंध ठीक नहीं हैं और हालिया सालों में भारत का झुकाब अमेरिका की ओर दिखा है। वहीं ईरान और अमेरिका के बीच संबंध ठीक नहीं है और ऐसे में तेहरान और बीजिंग की जरूरत है।
अमेरिकी प्रतिबंध हटे तो बात बने?
ईरान के साथ भारत के जॉइंट प्रोजेक्ट्स बहुत धीमी गति से बढ़ रहे हैं। अमेरिका द्वारा ईरान पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद ईरान के साथ भारत के तेल के आयात में भारी गिरावट आई है। भारत चाबहार पोर्ट पर कार्गो हैंडलिंग क्षमता को बढ़ाने के लिए फिर से काम कर रहा है क्योंकि भारत को उम्मीद है कि जल्द ही ईरान पर से अमेरिकी प्रतिबंध हटाए जा सकते हैं। चाबहार-जाहेदान रेलवे और फरजाद-बी गैस प्रोजेक्ट भी प्रतिबंधों के कारण अटके हुए हैं।
एक्सपर्ट्स मानते हैं कि तेहरान, नई दिल्ली को संभावित इकॉनोमिक पार्टनर के रूप में देखता है लेकिन यह अमेरिकी प्रतिबंधों के हटने पर निर्भर करता है। यदि ऐसा होता है तो ईरान में भारतीय निवेश की संभावना महत्वपूर्ण हो सकती है। लेकिन मौजूदा वक्त में अनिश्चितता के कारण ईरान अपने सभी पत्ते अपने हाथों में रख रहा है। ईरान बहुत सर्तक है और यही कारण है कि उसने चीन के साथ 25 सालों के लिए एक सहयोग पर साइन पर किए हैं। तेहरान के लिए बीजिंग प्लान बी की तरह है।