क्षेत्रीय दलों का जातिगत जनगणना पर जोर क्यों? जानें OBC वोट बैंक का समीकरण
पटना. बिहार में जातिगत जनगणना (Caste Census) कराने को लेकर पिछले काफी दिनों से सियासी पारा चढ़ा हुआ है. इस बीच सोमवार को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (CM Nitish Kumar) समेत 10 पार्टियों के 11 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) से मुलाकात की है. वहीं, इन 10 पार्टियों में कुछ ऐसे दल हैं जिनका राजनीतिक वजूद एक-दूसरे के विरोध पर ही टिका है, लेकिन यह सब ओबीसी वोट बैंक को साधने के लिए एक मंच पर आए हैं. इस बीच बिहार के सीएम ने कहा कि प्रधानमंत्री ने हमारी पूरी बात सुनी. सभी ने जातिगत जनगणना के पक्ष में एक-एक बात कही है. उन्होंने हमारी बात को नकारा नहीं है, हमने कहा है कि इस पर विचार करके आप निर्णय लें.
बहरहाल, भारत में पहली जनगणना 1872 में तत्कालीन औपनिवेशिक शासकों द्वारा की गई थी. इसके बाद सही तरीके से इसकी गणना की शुरुआत 1881 में हुई थी. इसके बाद से हर 10 वर्षों में जनगणना की जाती है. वहीं, देश में 1931 तक जाति के आधार पर एक-एक नागरिक की गिनती होती रही है. जबकि दस साल बाद यानी 1941 में भी जाति पूछकर जनगणना की गई थी, लेकिन उसका आंकड़ा जारी नहीं किया. यही नहीं, उसी पुराने जनगणना के आंकड़े पर पिछले 90 साल से आबादी का मैथ चल आ रहा है. साफ है कि उसी आधार पर जनसंख्या में ओबीसी, सवर्णों और दलितों की भागीदारी का अनुमान लगाया जा रहा है.
जातीय जनगणना को लेकर बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने कहा कि एक बार जनगणना हो जाएगी तो आबादी स्पष्ट हो जाएगी और फिर उसी आधार पर सरकारी कार्यक्रमों को फायदा मिलेगा. साथ ही कहा कि सही आंकड़ा नहीं होने की वजह से कई समूहों को सरकार की नीतियों को फायदा नहीं मिल पा रहा है. वहीं, आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने कहा कि बिहार विधानसभा में दो बार जातीय जनगणना का प्रस्ताव पारित हुआ और आखिरी जातीय जनगणना 1931 में हुई. इससे पहले 10-10 साल में जातीय जनगणना होती रही. जनगणना से सही आंकड़े सामने आएंगे जिससे हम लोगों के लिए बजट में योजना बना सकते हैं.
क्या ओबीसी वोटों का ध्रुवीकरण है मकसद!
जातीय जनगणना को लेकर राजनीति के जानकारों का मानना है कि इन दलों को असली मकसद ओबीसी वोट बैंक का ध्रुवीकरण है, क्योंकि मौजूदा राजनीति में कोई दिल किसी खास वर्ग के विकास का दावा करने का दम नहीं रखता. यही नहीं, जब जातीय जनगणना के आंकड़े सामने आएंगे तो क्षेत्रीय दल केंद्र सरकार पर भी समाज के विकास के लिए नई नीतियों बनाने का दबाव डालेंगे और इससे राजनीतिक ध्रुवीकरण होगा. वहीं, क्षेत्रीय दल ओबीसी वोट बैंक को लामबंद करने में सफल रहेंगे.
भाजपा ने क्षेत्रीय दलों के ओबीसी वोट बैंक में लगाई सेंध
बहरहाल, 90 के दशक में जब मंडल कमीशन लागू हुआ तो यूपी और बिहार समेत कई राज्यों में क्षेत्रीय दल ओबीसी वोट बैंक के सहारे मजबूत होते गए. इस दौरान जातियों के आधार पर वोटों को ध्रुवीकरण साफ तौर पर देखने को मिला. इसी वजह से कांग्रेस को कई राज्यों में अपनी सत्ता गंवानी पड़ी थी. वहीं, 1996 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 25 फीसदी ओबीसी वोट मिला था. जबकि भाजपा के हिस्से में 19 फीसदी वोट आया था. इस दौरान 49 फीसदी ओबीसी वोट क्षेत्रीय दलों के कब्जे में रहा. यही नहीं, 2009 तक ओबीसी वोट बैंक का बंटवारा करीब करीब ऐसा ही रहा. इस दौरान कांग्रेस को 24, भाजपा को 22 और क्षेत्रीय दलों को 42 फीसदी ओबीसी वोट मिला था, लेकिन पहले 2014 और फिर 2019 में मोदी मैजिक के कारण ओबीसी वोट बैंक का मैथ पूरी तरह बदल गया.
पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को ओबीसी वोट 15 फीसदी मिला था. जबकि समाजवादी पार्टी और आरजेडी समेत तमाम दल 27 फीसदी में सिमेट गए. वहीं, भाजपा ने छलांग लगाते हुए 44 फीसदी ओबीसी वोट पर कब्जा कर लिया. यही नहीं, इसी वजह से न सिर्फ यूपी में सपा के हाथ से सत्ता चली गई बल्कि कई अन्य राज्यों में क्षेत्रीय दल अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं. वैसे सवाल ये भी है कि सीएम नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव और समाजवादी पार्टी समेत कई क्षेत्रीय दल जाति के आधार पर जनगणना की मांग कर ओबीसी की सही ताकत का अंदाजा लगाना चाहते हैं, ताकि ओबीसी कोटे में बदलाव के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाया जा सके और भाजपा से फिर से अपना वोट छीन सकें. यही नहीं, इस वक्त क्षेत्रीय दलों के लिए जातीय जनगणना का ही अच्छा मुद्दा है. हालांकि इसी साल जुलाई में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने लोकसभा में एक प्रश्न के लिखित जवाब में कहा था कि भारत सरकार ने नीति के तहत जाति-वार आबादी की गणना नहीं करने का निर्णय लिया है.