मोदी अगर चूके तो ये चेहरा बनेगा अगला पीएम!
ए एम कुणाल
मोदी जी के केदारनाथ प्रस्थान के साथ ही लोकसभा के चुनावी महासंग्राम के सूर्यास्त का शंखनाद हो चुका है। सभी राजनीतिक पार्टियों को अच्छी तरह मालूम है कि प्रधानमंत्राी पद दो ध्रुवों में से किसी एक के पास जाएगा। फिर भी प्रधानमंत्री के दावेदारों की कतार सी लग गई है। मोदी और राहुल गांधी के नाम पर आम सहमति के बावजूद एनडीए और यूपीए में कई ऐसे नेता है जो बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने का इंतजार कर रहे हैं। वहीं तीसरे मोर्चें में तो जितने दल है उतने प्रधानमंत्री पद के दावेदार है।
आज दो ध्रुवीय राजनीति तो है लेकिन दोनों ध्रुव गठबंधन के बल पर ही सरकार बना सकते हैं। इसलिए यह कहना वाजिब है कि मोदी जी के मजबूत सरकार के दावे के बावजूद गठबंधन एक मजबूरी है। दुनिया के बहुत से देशों में बड़े-छोटेे गठबंध्न बनते हैं और सरकारें चल रहीं हैं। इसके दो बड़े अपवाद देश अमेरिका और ब्रिटेन है, वहां के लेाकतंत्र और चुनाव प्रणाली दो दलीय व्यवस्था को प्रोत्साहन देती हैं। भारत का संविधान राजनैतिक दलों के खंडित के होने की प्रवृत्ति पैदा करता है। जैसे-तैसे भी हो, भारतीय लोकतंत्र भी दो दलीय न सही, दो ध्रुवीय जरुर बन गया है।
प्रायः सभी राजनीति के जानकार यह मानते हैं कि गठबंधन भारतीय राजनीति की मजबूरी हो गई है। इस देश की जनता ने पिछले तीन दशक से गठबंधन सरकार के अनुभव देखे है। जहां तक कांग्रेस पार्टी का सवाल है, तो कांग्रेस ने लगभग बीस-पच्चीस वर्षों तक देश की राजनीति को एकध्रुवीय बनाए रखा है। पहली बार 1977 में कांग्रेस को भारी पराजय मिली और जनता पार्टी ने उसका स्थान लेने की बड़ी कोशिश की लेकिन मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम की आकांक्षाओं की खींचतान में यह प्रयोग विफल हो गया।
यूं तो चुनाव के वक्त तीसरा मोर्चा बनता और टूटता रहा है लेकिन पिछले तीन दशक में क्षेत्रीय दलों के उदय और केंद्रीय राजनीति में दखल के बाद भारतीय राजनीति में वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रहे है। यही कारण है कि यूपीए हो या एनडीए, वे तीसरे मोर्चे के घटक दल को हल्के में लेने से रहे। ऐसे में यह कहना गलत नही होगा कि भारतीय राजनीति दो ध्रुवीय की बजाए तीन ध्रुवीय होती जा रही है। यदि चुनाव के बाद त्रिशंकु सदन के हालात बनते है तो प्रधनमंत्री पद के कई दावेदार नजर आ रहे है। यहां तक कि कांग्रेस पार्टी के अंदर कल तक जो लोग राहुल गांधी की ताजपोशी की बात कर रहे थे, उन लोगों ने भी चुप्पी साध ली हैं।
अटल-आडवाणी युग के बाद यदि एक से दस तक नंबर की बात करें तो नरेन्द्र मोदी का ही नाम आता है, और पिछले पांच सालों में उन्होने यह साबित भी कर दिया है। यह अलग बात है कि अरुण जेटली और सुषमा स्वराज जैसे पार्टी के दूसरे पंक्ति के नेता खुद को प्रधनमंत्री का दावेदार मानते रहे है लेकिन आम कार्यकर्ताओं की बात करें, तो इस रेस में मोदी सबसे आगे चल रहे हैं। गोधरा कांड के नाम पर जिस व्यक्ति को बलि का बकरा बनाने के लिए पार्टी ने अपना मन बना लिया था वही व्यक्ति एक दिन भाजपा का कर्णधर बनकर उभरेगा, यह किसी ने सोचा नही था। ज्यादातर युवा कार्यकर्ताओं का मानना है कि भाजपा को इस वक्त नरेन्द्र मोदी जैसे नेता की जरुरत है, जो पार्टी के हित में कोई भी फैसला लेने में एक पल की देरी न करें। मोदी के रास्ते में अगर कोई रुकावट है तो वह है एनडीए के घटक दल, जो वाजपेयी जी की धर्मनिरपेक्ष छवि के कारण भाजपा के करीब आए थे और भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार के कारण आज खामोश है, क्या अल्पमत की मोदी सरकार का साथ देंगे ? पार्टी सूत्रों के अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में नरेन्द्र मोदी को लेकर दो मत है और इस समय गडकरी साहब संघ से अपने संबंधों को गर्माने में लगे है, जिसका फायदा उनको मिल सकता है।
अगर मोदी नही तो कौन ? मोदी ब्रांड को भाजपा और गोदी मीडिया ने जिस तरह से बढा-चढा कर प्रचार किया है, उससे लोगों को भी भ्रम हो गया है कि अगर मोदीजी नही रहे तो हाथी फिर से सो जाएगा। वास्तव में सच तो यह है कि भाजपा के अन्दर ही दस नाम ऐसे मिल जाएंगे, जो बेहतर पीएम बन सकते है। अगर कांग्रेस की बात करे तो गुजरात चुनाव के बाद राहुल गांधी एक जन नेता के तौर पर उभरे है। मोदी जी बेशक उनको युवराज के नाम से बुलाते है पर जनता के बीच अपनी एक अलग पहचान बनाने में राहुल गांधी सफल रहे हैं। अगर कांग्रेस 150 सीट हासिल कर लेती है, तो राहुल के नाम को लेकर यूपीए में किसी को भी भ्रम नही रह जाएगा। कांग्रेस के किसी नेता को उनके नाम को लेकर कोइ कोई आपत्ति नहीं है। समय-समय पर कांग्रेस की हल्ला ब्रिगेड उनके नाम को चलाती रहती है। अब तो वे पार्टी के सुप्रीमो भी बन गए हैं। एक बात तो साफ हो गयी है कि राहुल को लेकर पार्टी मे कोई विरोध नहीं है। इसलिए अन्य दावेदारों को मान लेना चाहिए कि फिलहाल पीएमओ में नो एंट्री का बोर्ड लगा है।
बसपा सुप्रीमो मायावती सपा के साथ उत्तर प्रदेश को बेशक फतह कर ले, मगर ममता दी के समर्थन के वगैर दिल्ली उनके लिए दूर है। बावजूद इसके पीएम का दावा खत्म नही हुआ है। उपचुनावों में सपा -बसपा के सभी सीटों पर जीत के बाद उनके समर्थकों ने उन्हे खुले आम पीएम पद का दावेदार घोषित कर दिया है। अगर उनकी संभावना की जमीन तलाशें तो मायावती को अभी बहुत फासला तय करना है। मायावती सोचती हैं कि दलित और सवर्णों को लेकर वे देश में कोई बड़ा प्रयोग करने में सफल होंगी। गठबंधन राजनीति में मायावती विफल रही हैं। कांग्रेस, भाजपा और सपा सबके साथ उनके रिश्ते टूटे है। रही बात तीसरे मोर्चें की तो वाम दलों के समर्थन के बावजूद मायावती के नाम पर आम सहमति बनती नही दिख रही है। तीसरे मोर्चें में कई ऐसे नाम है जो प्रधनमंत्राी पद के दावेदार है। हालांकि मायावती का पलड़ा भारी है और अगर वे आगामी लोकसभा चुनाव में सपा के साथ 50 सीटें हासिल कर लेती है, तो वे भले ही पीएम न बने लेकिन सत्ता की चाभी उनके हाथों में होगी। अब देखना यह है कि अपने नए साथी अखिलेश सिंह यादव के बलबूते वे केंद्र में सोशल इंजिनियरिंग का जादू चला पाती है या नही।
नीतीश कुमार की निगाहें पीएमओ पर लंबे समय से हैं और अपनी इस इच्छा को वे कई बार मीडिया के सामने भी गाहे बगाहे जाहिर कर चुके है। यदि देवगोड़ा पीएम बन सकते है और मधु कोड़ा सीएम तो फिर नीतीश कुमार प्रधनमंत्री क्यो नही बन सकतें ? इस देश में कुछ भी संभव है। वैसे भी देश में होने वाली दो तरह की राजनीति में धर्मनिरपेक्षतावादी राजनीति के झंडाबरदार नीतीश कुमार हर किसी के लिए स्वीकार्य हैं। अगर भाजपा न सही तो कांग्रेस और कांग्रेस न सही तो तीसरे मोर्चे के समर्थन पर वे पीएम बनने के सपने को सकार कर सकते हैं, लेकिन मायावती उनकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा साबित हो सकती है।
सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी से अलग हुए शरद पवार एक समय प्रधानमंत्री पद के मुख्य दावेदार माने जाते थे। हालांकि शरद पवार ने खुद को कभी प्रधनमंत्री पद का दावेदार नही माना है लेकिन शिव सेना मराठा कार्ड खेलने के नाम पर कई बार पवार का नाम ले चुकी है। गौरतलब है कि बाल ठाकरे ने मराठी अस्मिता के सवाल के आगे भाजपा के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार भैंरो सिंह शेखावत से किनारा कर लिया था। ऐसे में इस बात की संभावना जताई जा रही है कि शरद पवार का नाम आने पर शिव सेना अपनी सहयोगी पार्टी बीजेपी का साथ छोड़ पवार के राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से हाथ मिला सकती है। ऐसे भी शरद पवार ये जानते हैं कि इस बार का चुनाव उनके लिए आखिरी मौंका हैं।
तेलगुदेशम पार्टी के नेता एन. चद्रबाबू नायडू ने, जो कि आंध्र की राजनीति के मजबूत स्तंभ हैं और आने वाले समय में केंद्र की राजनीति में अहम भूमिका निभा सकते है। एनडीए सरकार को बनाने में अहम भूमिका के बावजूद चन्द्रबाबू नायडू बाद में अलग हो गए। इन दिनो वे राहुल गांधी और मायावती के साथ मिलकर तीसरे मोर्चा बनाने में लगे है। यदि तेलगुदेशम पार्टी आशा के अनुरूप सीट हासिल करती है तो नायडू प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी कर सकते है। साफ छवि और आंध्र की राजनीति के हीरो चंद्रबाबू नायडू के नाम पर किसी को एतराज भी नही हो सकता।
राजनीति के जानकारों की माने तो दोनों ध्रुव अर्थात भाजपा और कांग्रेस के इर्द-गिर्द ही केन्द्रीय सरकार की रचना हो सकती है। हालांकि भाजपा और कांगे्रस को छोड़कर बाकी सब दलों का एक अलग ध्रुव बनाने की कोशिश बार-बार होती रही है लेकिन इस गुट के नेताओं की महत्वांकाक्षाएं इतनी ज्यादा है कि एक नाम पर आम राय बन पाना मुश्किल है। राहुल गांधी के बाद अगर किसी ने मोदीजी से डटकर मुकाबला किया है, तो वह बंगाल की आइरन लेडी ममता बनर्जी है। अगर पिछली बार की तरह इस बार भी ममता दी का प्रदर्शन रहता है तो बंगाल विजय के बाद वे ‘चलो दिल्ली’ का नारा दे सकती है। ऐसे में सत्ता के लिए उभरने वाले गठबंधन में वे सबसे फिट बैठती दिखतीं है। यदि जोड़-तोड़ की राजनीति में ममता दी कही फिट बैंठती है तो इस बार बंगाल प्रेम को त्याग कर इसका फायदा उठाने से नही चूकेंगी। फिलहाल सबको 23 मई का इंतजार है। लंच ब्रेक तक पता चल जाएगा कि एक बार फिर से मोदी सरकार के नारे लगते है या एक फकीर झोला उठाकर केदारनाथ चला देगा. ?