क्या है राइट टू रिपेयर अभियान, जो मोबाइल से लेकर टीवी की उम्र बढ़ा देगा?
आप कोई महंगा इलेक्ट्रॉनिक उपकरण लेते हैं. कुछ दिनों बाद ही उसमें समस्याएं आने लगती हैं. यहां तक किसालभर बाद ही ऐसी नौबत आ जाती है कि या तो उसे रिपेयर करवाया जाए या फिर नया मॉडल खरीदा जाए. मरम्मत के लिए जाएं तो उसकी कीमत बहुत ज्यादा होती है, जिसके बाद भी उत्पाद के ठीक होने की कोई गारंटी नहीं. ये मुश्किल सभी आए-दिन झेलते हैं. इसे ही लेकर यूरोप समेत पश्चिमी देशों में राइट टू रिपेयर अभियान (Right to repair movement) चला. लेकिन इसे प्रोडक्ट बनाने वाली कंपनियों का भारी विरोध झेलना पड़ रहा है.
क्यों हो रही है चर्चा?
इसी शुक्रवार को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने एक बिल पर दस्तखत किए. इससे फेडरल ट्रेड कमीशन उन नियमों को बदल सकेगा, जिसके तहत कंपनियां किसी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण के कम समय में बिगड़ने पर भी उसे सुधारने की जिम्मेदारी नहीं लेती हैं. यूके पहले ही ये नियम ला चुका, जिससे टीवी या वॉशिंग मशीन खरीदने वाले, सामान के खराब होने पर उसे उसी कंपनी से सुधरवा सकेंगे.
इसके तहत कंपनियों को ऐसे उत्पाद बनाने होंगे जो ज्यादा टिकाऊ हों. प्रोडक्ट बेचने पर उसके साथ ही स्पेयर पार्ट्स भी देने होंगे ताकि मशीन कम से कम 10 सालों तक बिना किसी परेशानी के काम कर सके. बिजली के उत्पाद, वॉशिंग मशीन और फ्रिज इसी नियम के तहत आएंगे.
क्या है राइट टू रिपेयर कैंपेन की वजह?
माना जा रहा है कि कंपनियां जान-बूझकर ऐसे उत्पाद बनाती हैं, जो जल्द ही खराब हो जाएं. इसके बाद बाजार में उस खराब पार्ट का विकल्प भी नहीं मिलता है. न ही कंपनी इसे खुद सुधारने का आश्वासन देती है. ये इलेक्ट्रॉनिक जंक का हिस्सा बन जाएगा. यानी आपके नुकसान के साथ ये पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा रहा है. यही देखते हुए राइट टू रिपेयर अभियान शुरू हुआ. वैसे माना जाता है कि ये अभियान हल्के-फुल्के ढंग से 50 के दशक में ही चल निकला था. इसके तहत नीतियों में बदलाव के जरिए मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों पर सख्ती बरतने की शुरुआत होने जा रही है.
क्वालिटी जानबूझकर गिराई जा रही
पिछले कुछ सालों में निर्माता कंपनियों के प्रोडक्ट्स की क्वालिटी लगातार गिरी है. एक शोध के अनुसार 2004 से 2012 के दौरान होम अप्लायंसेस की क्वालिटी में तेजी से गिरावट आई. 2004 में इलेक्ट्रॉनिक मशीनें पांच सालों तक ठीक से चला करतीं और इसके बाद भी लगभग 3.5 फीसदी मशीनें खराब हो रही थीं. साल 2012 में ये प्रतिशत बढ़कर 8.3 हो गया. इसके बाद आ रही मशीनें पांच साल भी ठीक से नहीं चल पा रही हैं.
इलेक्ट्रॉनिक कबाड़ के चलते पर्यावरण खतरे में
यूरोप में ही कई ऐसे लैंप हैं जिनका बल्ब खराब होने के बाद दोबारा नहीं बदला जा सकता, बल्कि पूरा का पूरा लैंप फेंकना होता है. ऐसे इलेक्ट्रॉनिक सामानों की वजह से निकलने वाली जहरीली गैस वातावरण को प्रदूषित कर रही है. जल्दी खराब होने के बाद ये ई-जंक या इलेक्ट्रॉनिक कबाड़ में बदल जाती है, जिसे रिसाइकल करना भी काफी मुश्किल है.
दो साल पहले एक मामला काफी उछला था, जिसे द गार्डियन ने रिपोर्ट किया था. उसमें एक खबर के जरिए बताया कि कैसे एक ग्राहक के जूते खुद जूते रिपेयर करने वाली कंपनी ने नष्ट कर दिए. चर्च ब्रांड के इन जूते की शुरुआती रेंज ही लगभग 35 हजार रुपए है. जूतों में टूटफूट होने पर ग्राहक ने उसे मरम्मत के लिए निर्माता कंपनी के पास भेजा. कुछ दिनों बाद वहां से फोन आया कि आपके जूते नष्ट किए जा रहे हैं. ग्राहक ने वजह पूछी तो जवाब मिला कि उस खास ब्रांड के जूते 2 बार ही रिपेयर किए जाते हैं. इसके बाद उन्हें फेंक दिया जाता है. यहां तक कि कागजों पर भी इसका जिक्र है लेकिन इतने छोटे अक्षरों में कि शायद ही कोई उन्हें पढ़ सके.
इन्हीं बातों को देखते हुए राइट टू रिपेयर अभियान
इसे लागू करने वाली कंपनियों पर ये दबाव है कि वे ज्यादा से ज्यादा टिकाऊ उत्पाद बनाएं जो ग्राहकों के हित में हो. ऐसा न होने की स्थिति में ग्राहक कंपनी पर बड़ा दावा ठोंक सकते हैं.
स्थानीय मैकेनिकों को सुधारने की ट्रेनिंग
ग्राहकों ने मांग की कि मैन्युफैक्चरिंग कंपनियां ऐसी चीजें बनाएं जो टिकाऊ हों. वे ये भी चाहते ते कि वारंटी खत्म होने के बाद कंपनी सर्विसिंग के अलावा लोकल मैकेनिकों को भी किसी खास सर्वस की ट्रेनिंग मिले. इससे ग्राहकों के पास विकल्प होंगे और कम लागत में काम हो सकेगा. वरना फिलहाल तक ये होता है कि प्रोडक्ट खराब होने पर ग्राहकों को कंपनी के पास जाकर बड़ी कीमत देते हुए रिपेयर करवाना होता है.
क्यों कर रही हैं कंपनियां विरोध?
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, कई कंपनियां जैसे एपल, माइक्रोसॉफ्ट और टेस्ला इस कैंपेन के खिलाफ हैं. वे न तो सामान खुद सुधारने की गारंटी दे रही हैं और न ही थर्ड पार्टी यानी स्थानीय मैकेनिकों को इसकी इजाजत दे रही हैं. उनका तर्क है कि उनका प्रोडक्ट उनकी बौद्धिक संपत्ति है. ऐसे में उनके उत्पाद की मरम्मत की ट्रेनिंग और सामान खुले बाजार में उपलब्ध कराने से उनकी खुद की पहचान खत्म हो जाएगी.