सियासत में फँसे पत्रकार की आज़ादी के मायने
लखनऊ के पत्रकार ने लिखा 50वी और 75वी आज़ादी में क्या बदला
चश्मदीद वीरों से रौशन थी आज़ादी की 50वीं वर्षगांठ
कई मायनों में वर्तमान से अच्छा था अतीत। बिना मोबाइल फोन वाली पत्रकारिता से लेकर आज़ादी का जश्न पहले ज्यादा अच्छा था। बीते कल की बहुत सारी चीज़ें साधनहीनता के बावजूद खरी थीं,सच्ची थीं और अच्छी थीं। अब वो बात कहां!
75वीं वर्षगांठ की तरह इतनी ज्यादा रोशनियों से तो नहीं नहाई थी पर आज़ादी की पचासवीं सालगिरह स्वतंत्रता संग्राम के चश्मदीदों से रौशन थी।
बीते पच्चीस बरस में हमें आज़ादी की गाथाएं सुनाने वाले बारी-बारी सब चले गए। हम सब ने आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ मनाई, ऐसे में हमें 50वीं वर्षगांठ मनाए जाने के दिन भी ख़ूब आद आए। हमारी पत्रकारिता शुरू हो चुकी थी। युवा जोश वाला जज्बा, जोशीली पत्रकारिता का दौर और आज़ादी की पचासवीं वर्षगांठ का जश्न उत्साह में चार चांद लगाए था।
उस जश्न के आगे 75 साल वाला ये ज़श्न सूना लगा। तब हम नेताओं के झूठे-सच्चे बयान नहीं बल्कि आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से आज़ादी की लड़ाई के सच्चे किस्से सुनते थे और वो ही हूबहू लिखते थे।
लखनऊ में ही दर्जन भर फ्रीडम फाइटर थे। क़रीब सब सत्तर पार थे लेकिन जज्बे से युवा लगते थे, चलने-फिरने और बोलने में भी फिट थे। पचासवीं वर्षगांठ पर लखनऊ का कोई ऐसा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं जिसका इंटरव्यू नहीं किया हो। इनकी स्मृतियों का खजाना जब खुलता था तो लगता था कि हम आज़ादी की लड़ाई के दौर में पंहुच गए हैं। उनका लहजा, अल्फाज़ और किस्सागोई का जवाब नहीं था। वो लोग राष्ट्रभक्ति की मूरत थे,धरोहर थे, आज़ादी के चश्मदीद थे। उनका हर शब्द राष्ट्रवाद से महकता था लेकिन उनके किसी भी शब्द,लहजे या भाव में किसी भी किस्म का कोई राजनीतिक अक्स तक नहीं दिखता था।
1998 की बात है आज़ादी की पचासवीं सालगिरह के आगे-पीछे के कुछ महीने तक प्रमोद जोशी जी ने एक कॉलम- “तब और अब” भी शुरू किया था। इसमें हम लोग स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के अतिरिक्त विशिष्ट पहचान वाले बुजुर्गो का साक्षात्कार करते थे। जाफर साहब, दाऊजी गुप्ता,राम आडवाणी जी, इशरत अली, भइया जी, बक्शी दीदी, बेगम हबीब उल्लाह.. जैसी तमाम हस्तियों से बात करके आज़ादी के संघर्ष का जीवंत एहसास होता था।
पिछले पच्चीस बरस में सब धीरे-धीरे चले गए। सच दफन होता गया और झूठ का दानव सिर उठाने लगा। चश्मदीद ही नहीं रहे, अब जिसका जो जी चाहे वो अपने हिसाब से अपने मतलब का इतिहास रच दे!
आज़ादी के जश्न में अब ये जान पाना मुश्किल है कि कहां राष्ट्रभक्ति है और कहां सियासत। वैसे ही जैसे लाल पानी का गिलास देखकर ये बता पाना कठिन है कि अनार का जूस है, रूह अफज़ा है या रेड वाइन है।
जर्नलिस्ट – नावेद शिकोह