अब मान भी लीजिए जनाब, यूपी के एक भी पत्रकार नेता में दम नही!
भंडारा, इफ्तार, सम्मेलन, ज्ञापन, जन्मदिन मनाना, सैल्फी.. फेसबुक…… तक ही सीमित है उत्तर प्रदेश के पत्रकारों की नेतागीरी. 95 प्रतिशत तो ऐसे हैं जो पत्रकार बने नहीं लेकिन इन्होने पत्रकार संगठन बना लिए, अध्यक्ष बन गये, सचिव बन गये. ये सब हीनता की भावना से भी ग्रसित हैं. खुद को छोटा समझते हैं इसलिए बड़ों से जुड़ने की हवस में कभी ज्ञापन, कभी इफ्तार या फिर कभी भंडारे के माध्मय से बड़ों के नजदीक जाने की कोशिश करते हैं. खुद बड़ा बनने के बजाये बड़ों को साधना इनका मक़सद है. लोगों को जोड़ने की जुगत में ये किसी से टूटना नहीं चाहते इसलिए पत्रकारिता, पत्रकार और सरकार.. जैसे किसी संवेदनशील मुद्दे पर कुछ भी नहीं बोलते। अपनी जिम्मेदारियों में जीरो और दिखावे में हीरो हैं।
हिन्दी पत्रकारिता के गिरते स्तर पर कोई भी गंभीर नहीं है ! केवल तथाकथित पत्रकारों, मीडिया संस्थानों और संगठनों की तादाद बढ़ती जा रही है.
उत्तर प्रदेश और दिल्ली में जितने न्यूज पेपर, पोर्टल और चैनल हैं इतने शायद दुनिया के किसी भी राष्ट्र मे ना हों. ये अच्छी बात है लेकिन पत्रकार, संस्थान और संगठन बढ़ने के साथ पत्रकारिता की गिरावट को सुधारने के लिए कौन आगे आयेगा !
किसी भी पेशे से जुड़े इतने संगठन सारी दुनिया मे नहीं हैं जितने पत्रकार संगठन सिर्फ यूपी मे हैं. फर्जी मीटिंगों, तस्वीरों युक्त ज्ञापनबाजी, इफ्तार और भंडारों की तस्वीरों में फेसबुक पर चमकती पत्रकारों की नेतागीरी विमर्श में दीवालिया है.
सोशल मीडियाें पर हर रोज़ तस्वीरों में जिन्दा पत्रकार संगठन तब खामोश रहे जब सोशल मीडिया का ही एक बखेड़ा पत्रकारिता की संजीदगी पर सवाल उठा रहा था. ये बखेड़ा तमाम सवाल करके कई जवाब पूछ रहा था. पूछ रहा था कि क्या किसी का चरित्र हनन करना पत्रकारिता है !
क्या किसी गंभीर ओहदे पर बैठे गंभीर शख्स का दरवाज़ा खटखटाकर उससे हल्के मज़ाक करना पत्रकारिता है ?
सोशल मीडिया पर किसी को ब्लैकमेल करने या किसी का चरित्रहनन करने वाले यदि अपने को पत्रकार के तौर पर पेश करें तो क्या पत्रकार संगठनों को ऐसे में खामोश हो जाना चाहिए ?
क्या पत्रकार संगठनों का ये दायित्व नहीं कि खुद को पत्रकार बता कर कानून व्यवस्था को चुनौती देने वाली पोस्ट डालने वाले के खिलाफ आवाज उठायें. बताया जाये कि पत्रकारिता की इथिक्स से परे ऐसे लोगों का पत्रकारिता से कोई सरोकार नहीं.
स्वच्छ और स्वस्थ्य पत्रकारिता में खरपतवार को कौन उखाड़ेगा ?
पत्रकारिता की गाइड लाइन पर कौन बात करेगा ?
डग्गामारी, अनुशासनहीनता और दलाली वाली पत्रकारिता के खिलाफ कौन चाबुक चलायेगा ?
सोशल मीडिया पर पर बिछे फर्जी पत्रकारों का मकड़जाल कौन तोड़ेगा ?
ये दायित्व और कर्तव्य पत्रकार संगठनों व पत्रकार नेताओं का ही तो है.
लेकिन इस तरह के किसी भी गंभीर मुद्दे पर चिल्लर से लेकर बड़े-बड़े दिग्गज पत्रकारों के संगठन खामोश रहे.
अभी हाल में पत्रकार गिरफ्तार हुए. एक पत्रकार की गिरफ्तारी पर कोर्ट ने आरोपी को तुरंत जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया. न्यायालय ने आरोपी के ट्वीट को गलत ठहराया और साथ ही दो हफ्ते की कस्टडी पर भी सवाल उठाते हुए पूछा कि क्या ये हत्या का मामला है ?
ख़ैर उत्तर प्रदेश में हुए इतने बड़े प्रकरण पर यूपी के एक भी संगठन या पत्रकार नेता ने किसी किस्म की कोई भी राय नहीं रखी। जबकि यहां थोक के हिसाब से पत्रकार नेता भी हैं और संगठन भी हैं। दुर्भाग्य कि रोज फेसबुक पर इनकी तस्वीरे़ दिखती हैं विमर्श नहीं दिखता। जिम्मेदारी की बात नहीं नज़र आती।
पत्रकार नवेद शिकोह की रिपोर्ट