उत्तर प्रदेश चुनाव में न हो जाए बंगाल जैसा हाल, चुनाव रणनीति को लेकर दोराहे पर कांग्रेस
कांग्रेस के अंदर एक बड़ा तबका चुनावी गठबंधन की वकालत कर रहा है। प्रदेश कांग्रेस नेताओं की दलील है कि पार्टी अकेले चुनाव लड़ती है, तो पिछला प्रदर्शन दोहराना भी मुश्किल होगा। पर अभी तक गठबंधन को लेकर कोई तस्वीर नहीं बनी है। ऐसे में पार्टी खुद को अकेले चुनाव मैदान में उतरने के लिए तैयार कर रही है।
प्रदेश कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि पार्टी अपनी मजबूत सीट की पहचान कर संभावित उम्मीदवारों से चर्चा कर रही है। वर्ष 2017 के चुनाव में जिन सीट पर पार्टी दूसरे नंबर पर रही या वर्ष 2012 में जीती थी, उन उम्मीदवारों से भी चर्चा चल रही है। इन उम्मीदवारों से कहा गया है कि वह चुनाव की तैयारी करें। उन्होंने कहा कि कई सीट पर पार्टी को पिछले चुनाव में अच्छे वोट मिले थे, पर इस बार वह उम्मीदवार चुनाव नहीं लड़ना चाहता है, तो उसकी जगह नया प्रत्याशी तलाश किया जा रहा है। इससे पार्टी को यह अहसास हो जाएगा कि हम कहां पर खड़े हैं। गठबंधन की स्थिति में भी कांग्रेस ऐसी सीट पर ही दावेदारी करेगी।
बंगाल के बाद भाजपा को उत्तर प्रदेश में शिकस्त मिलती है, तो गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ के चुनाव में कांग्रेस को फायदा मिलेगा। क्योंकि, इन राज्यों में कांग्रेस का भाजपा से सीधा मुकाबला है। एक नेता ने कहा कि बड़े फायदे के लिए उप्र में कम सीट पर चुनाव लड़ने में नुकसान नहीं है।
इन सब दलीलों के उलट पार्टी के अंदर एक बड़ा तबका अकेले चुनाव लड़ने की वकालत कर रहा है। इन नेताओं की दलील है कि कांग्रेस को दिल्ली में सत्ता तक पहुंचना है, तो उप्र में खुद को मजबूत करना होगा। वह पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा की गांव-गांव में कांग्रेसियों को जोड़ने के अभियान को लेकर उत्साहित हैं। उनका मानना है कि इससे कार्यकर्ताओं में एक बार फिर भरोसा पैदा होगा।
उत्तर प्रदेश में पिछले दस वर्षों में कांग्रेस का वोट प्रतिशत लगातार घट रहा है। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को 28 सीट और 11.6 फीसदी वोट मिला। पर 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी दो सीट जीती और उसे 7.5 प्रतिशत वोट मिला। इसके बाद वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में सात सीट और 6.25 फीसदी वोट मिला। 2019 के लोकसभा में भी वोट प्रतिशत इतना ही रहा।