Tripula Assembly Election 2023 : क्या सीपीएम-कांग्रेस मिलकर रोक पाएंगी बीजेपी का विजय रथ
चुनाव आयोग ने क्यों किया है त्रिपुरा को लेकर विशेष तैयारी
सुभाष चन्द्र
नई दिल्ली। आज त्रिपुरा विधानसभा चुनाव को लेकर चुनाव आयोग विधानसभा चुनावों की तारीखों का ऐलान करने वाला है। त्रिपुरा में अन्य राज्यों की अपेक्षा वोटिंग प्रतिशत कम रहता है। असम के अलावा अन्य राज्यों मेंभाजपा की ताकत बहुत ज्यादा कभी नहीं थी, लेकिन 2014 के बाद से तस्वीर बदलती गई। वहीं कभी यहां मजबूत रही कांग्रेस का जनाधार देश भर की तरह कमजोर होता जा रहा है। यहां भाजपा मजबूत होती दिख रही है, जबकि कांग्रेस के जनाधार का लगातार क्षरण हो रहा है। त्रिपुरा मेंभाजपा की लीडरशिप मेंसरकार चल रही हैतो वहीं मेघालय मेंभाजपा नेशनल पीपल्स पार्टी के साथ सरकार मेंहै। वहीं नागालैंड मेंभी वह नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी के साथ सत्ता मेंबनी हुई है।
बीजेपी को जीत से रोकने के लिए मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) और कांग्रेस के बीच चुनाव पूर्व गठबंधन से त्रिपुरा के सियासी समीकरण ही बदल गए हैं। इस बीच टिपरा मोथा ने बीजेपी की सहयोगी IPFT के सामने विलय का प्रस्ताव रखकर त्रिपुरा के सियासी दंगल में नया मोड़ ला दिया है।
त्रिपुरा में आगामी विधानसभा चुनाव में मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए चुनाव आयोग ने कमर कसी है। मतदान को 90 प्रतिशत से ऊपर ले जाने के लिए आयोग मिशन-929 पर काम करने जा रहा है। इसके लिए 929 मतदान केंद्रों पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। चुनाव आयोग के एक अधिकारी ने बताया कि 2018 के विधानसभा चुनाव में इन बूथों पर 89 प्रतिशत से कम मतदान दर्ज किया गया था। अब मतदान बढ़ाने के लिए जागरूकता अभियान के अलावा, चुनाव अधिकारी वरिष्ठ नागरिकों और विकलांग व्यक्तियों से मिलेंगे और उनसे वोट डालने की अपील करेंगे।
कुछ दिनों के हलचल से लग रहा था, सीपीएम और कांग्रेस त्रिपुरा में मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ेगी। सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने 11 जनवरी को ही कह दिया था कि बीजेपी के विजय रथ को रोकने के लिए सीपीएम, कांग्रेस के साथ गठजोड़ के लिए तैयार है। अगरतला में 13 जनवरी को कांग्रेस महासचिव अजय कुमार और सीपीएम के राज्य सचिव जितेंद्र चौधरी के बीच हुई बैठक के बाद गठबंधन का ऐलान कर दिया गया।
सीपीएम और कांग्रेस गठबंधन से त्रिपुरा की राजनीति में नए अध्याय की शुरुआत हो गई है। नया अध्याय इसलिए भी कहना सही है क्योंकि यहां सीपीएम और कांग्रेस अब तक धुर विरोधी थे। त्रिपुरा में 1967 से विधानसभा चुनाव हो रहा है। बीते 6 दशक के राजनीतिक इतिहास में त्रिपुरा में सीपीएम और कांग्रेस उत्तर और दक्षिण ध्रुव की तरह थे। 2018 तक हमेशा ही त्रिपुरा की सत्ता के लिए इन दोनों दलों में ही भिडंत होते रही थी। लेफ्ट और कांग्रेस एक-दूसरे की धुर विरोधी के तौर पर त्रिपुरा में 53 साल राज कर चुके हैं। अब बीजेपी ने हालात ऐसे बना दिए हैं कि दोनों को एक साथ चुनाव लड़ना पड़ रहा है।
2018 में हुए विधानसभा चुनाव में 25 साल से सत्ता पर काबिज सीपीएम को बीजेपी से मुंह की खानी पड़ी थी। सीपीएम को 60 में से सिर्फ 16 सीटों पर ही जीत मिली। बीजेपी के एतिहासिक प्रदर्शन से एक झटके में ही त्रिपुरा पर ढाई दशक से चली आ रही सीपीएम की सत्ता छीन गई थी। त्रिपुरा के 6 दशक की चुनावी राजनीति में 35 साल सत्ता पर वाम दलों का कब्जा रहा है। त्रिपुरा में 1978 में पहली बार सीपीएम की सरकार बनी। 1978 से 1988 के बीच नृपेन चक्रबर्ती की अगुवाई में सीपीएम की सत्ता रही थी। उसके बाद 1993 से 1998 तक दशरथ देबबर्मा की अगुवाई में सीपीएम की सरकार रही। 1998 से माणिक सरकार का दौर शुरू हुआ। माणिक सरकार की अगुवाई में मार्च 1998 से लेकर मार्च 2018 तक त्रिपुरा में वाम दलों का शासन रहा। ये आंकड़े बताने के लिए काफी हैं कि त्रिपुरा सीपीएम के लिए कितना महत्वपूर्ण है ? 2018 में त्रिपुरा में हार के बाद वाम दलों के लिए अब पूरे देश में सिर्फ केरल में ही सरकार बची है। वाम मोर्चा 2011 में ही पश्चिम बंगाल की सत्ता से बाहर हो गई थी।