भाजपा में वरुण गांधी के लिए नहीं है जगह! BJP सांसद के सामने आगे क्या हैं विकल्प?
लखीमपुर खीरी हिंसा और किसानों के मसले पर लगातार उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को निशाने पर लेने वाले सांसद वरुण गांधी और उनकी मां मेनका गांधी बगावत पर उतारू दिख रहे हैं. वरुण गांधी की ओर से लगातार किए जा रहे हमलों से योगी सरकार असहज महसूस करने लगी है. इसको लेकर राजनीतिक के जानकार तरह-तरह के कयास लगा रहे हैं. सबसे बड़ा सवाल यही उठ रहा है कि आखिर इस बगावती रुख का कारण क्या है और इन दोनों नेताओं के सामने आगे विकल्प क्या हो सकते हैं.
दरअसल, देखा जाए तो मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल से ही गांधी परिवार के ये दूसरे वारिस खुद को भाजपा के भीतर उपेक्षित महसूस कर रहे हैं. कहा जा रहा है कि वरुण गांधी के बगावती रुख के कारण ही भाजपा की नई कार्यकारिणी से इन दोनों नेताओं की छुट्टी कर दी गई है.
क्या भाजपा में दरकिनार कर दिए गए वरुण-मेनका
वरुण-मेनका के लिए भविष्य के राजनीतिक विकल्प पर चर्चा करने से पहले इस सवाल का जवाब ढूंढना जरूरी है. दरअसल, लखीमपुर खीरी और किसानों के आंदोलन को लेकर पिछले कुछ समय से वरुण गांधी की ओर किए जा रहे तीखे सवाल भाजपा को चूभने लगे हैं.
इन सवालों के पीछे कई कारण हैं. एक तो वरुण और मेनका जिन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं वे तराई के इलाके हैं. वहां अच्छी खासी संख्या में सिख किसान वोटर्स हैं. ऐसे में अपने राजनीतिक हित को देखते हुए वरुण-मेनका के लिए किसानों के समर्थन में बोलना एक मजबूरी है. लेकिन, दूसरा सवाल यह है कि भाजपा नेतृत्व और वरुण-मेनका के बीच बीते कुछ सालों से बनी दूरी कहां तक जाएगी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में कैबिनेट मंत्री रहीं मेनका गांधी को मोदी 2.0 में कोई जगह नहीं मिली. लगातार कई बार से सांसद वरुण गांधी को भी को अहम जिम्मेदारी नहीं दी गई. जबकि एक समय वरुण गांधी का नाम उत्तर प्रदेश में भाजपा के संभावित मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में होती थी.
अमित शाह की भाजपा में वरुण के लिए नहीं है कोई जगह!
दरअसल, 2014 तक जब भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह होते थे तो उस वक्त तक वरुण गांधी को पार्टी के मामलों में काफी महत्व दिया था. राजनाथ सिंह के कार्यकाल में वह पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव भी बने थे. लेकिन जैसे-जैसे पार्टी पर अमित शाह की पकड़ मजबूत होती गई वरुण किनारे किए जाते रहे.
अपुष्ट रिपोर्ट में कहा जाता है कि 2014 के आम चुनाव में वरुण गांधी से अमेठी और रायबरेली में राहुल और सोनिया गांधी के खिलाफ प्रचार करने को कहा गया था लेकिन उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया. यहीं से भाजपा नेतृत्व और वरुण गांधी के बीच दूरियां बढ़ने लगीं. हालांकि मोदी के पहले कार्यकाल में मेनका गांधी को कैबिनेट में जगह मिली लेकिन 2019 में वह किनारे कर दी गईं.
वरुण के सामने क्या हैं विकल्प
वरुण गांधी के बयानों और पार्टी पर अमित शाह और यूपी में सीएम योगी की पकड़ को देखते हुए यह स्पष्ट तौर पर दिख रहा है कि निकट भविष्य में वरुण गांधी के लिए भाजपा के भीतर कोई बड़ी भूमिका नहीं है. ऐसे में युवा वरुण इस वक्त अपने राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. ऐसे में सवाल यह है कि उनके सामने विकल्प क्या हैं.
दरअसल, गांधी परिवार के भीतर जेठानी और देवरानी यानी सोनिया गांधी और मेनका गांधी के बीच के तनावपूर्ण रिश्ते किसी से छिपे नहीं हैं. वर्ष 1980 में इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी की मौत के कुछ ही समय बाद मेनका ने अपना ससुराल छोड़ दिया था. तब से आज तक गांधी परिवार के ये दोनों वारिस किसी मंच पर साथ नहीं दिखे हैं. गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी यानी राहुल-प्रियंका और वरुण गांधी भी सार्वजनिक रूप से कभी भी साथ नहीं दिखे हैं.
लेकिन, कहा जाता है न कि राजनीति में कुछ भी संभव है. अपुष्ट रिपोर्ट में दावा किया जाता है कि वरुण गांधी और उनकी चचेरी बहन प्रियंका के बीच रिश्ते सबसे बेहतर हैं. दूसरी तरफ प्रियंका उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए जमीन तैयार करने में जुटी हैं. ऐसे में परिस्थितियों को देखते हुए इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि वरुण कांग्रेस का दामन थाम लें. इससे कांग्रेस को उत्तर प्रदेश के तराई इलाके में एक प्रभावी नेता मिल सकता है.
वरुण की कट्टर हिंदू छवि सबसे बड़ी समस्या
वरुण गांधी ने राजनीति में आने के साथ ही अपनी बेहद कट्टर छवि बनाने को कोशिश की. उन्होंने एक समय अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ बेहद आपत्तिजनक बयान दिया था, जिस कारण उनको चुनाव आयोग से फटकार मिली थी. उनके उस बयान को लेकर मुकदमा भी दर्ज हुआ था. ऐसे में सवाल यह है कि एक नई कांग्रेस बनाने की कोशिश में लगे राहुल गांधी अपने भाई की इस छवि से स्वीकार कर पाएंगे. राहुल गांधी राजनीति में आने के बाद से लगातार सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ते रहे हैं.