कोरोना काल में भी फल-फूल रहा है मर्दानगी का व्यापार !
-ए॰ एम॰ कुणाल
कोरोना के इस युग में, जबकि पूरी दुनिया आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रही है, मर्दानगी का व्यापार तेजी से फैल रहा है। ग़रीबों का एंटर्टेन्मेंट कहा जाने वाला सेक्स को कपल्स के आपसी संबंधों का आधार माना जाता है। सेक्स के कारण रिश्ते बनते और बिगड़ते है। आज के दौर में कपल्स के पास एक दूसरे के लिए समय ही समय है, ऐसे में रिश्तों को बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है। मार्च- एप्रिल के महीने में लोगों ने लॉकडाउन को इंजॉय किया पर अब 24 घंटे का साथ ज्यादतर कपल्स के लिए डिप्रेशन का कारण बनता जा रहा है। यही कारण है कि मर्दानगी अथवा पुंरूषत्व बढ़ाने के नाम पर चल रहे कारोबार ने एक उ़द्योग का रुप ले लिया है। इस काम में झोला छाप डाक्टरो से लेकर राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियां लगी हुई है। आपको अखबारों और पत्रिकाओं के अलावा राह चलते इस तरह के विज्ञापन जगह जगह देखने को मिलेगें। इन विज्ञापनो में यौन क्षमता या यौन सुख बढ़ाने के लिए सस्ते इलाज और तरह-तरह के आकर्षक नामो वाली दवाइयों का जिक्र रहता है। यौन संबंधी समस्याओं से निजात दिलाने का दावा करने वाले तरह-तरह के विज्ञापन बड़ी संख्या में लोगो को अपने चंगुल में फसाकर जमकर चांदी कूट रहे है। सेक्स दवाओं के नाम पर आज एक बड़ा बाजार विकसित हो चुका है। जिसमे अनेक प्रकार के उत्पाद लोगो को भ्रमित करने में सफल रहे है। इन्हे देखकर मन मे सहज ही जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि क्या ये गोलिया व कैप्सूल वास्तव मे पुरुष और स्त्री की कामशक्ति को बढ़ाने सक्षम है अथवा स्वास्थ्य व चिकित्सा विज्ञान का उपहास उड़ा रहे है। महर्षि चरक ने दूसरी सदी मे चरक संहिता लिखते समय शायद ही इस बात की कल्पना की होगी कि पुरूषतव बनाए रखने को लेकर उनके द्वारा लिखा गया ‘वाजीकरण’ का इतने लोग मुरीद हो जाएगें।
सेक्स के प्रति बड़े पैमाने पर मौजूद अज्ञानता और पौरुष को लेकर समाज मे गहराई तक जड़े जमाए बैठी भ्रामक धारणाओं ने इस धंधे को पनपाने मे बहुत मदद की है। यौन स्वास्थ्य की समग्र समझ के अभाव का ही नतीजा है कि जरुरत न होते हुए भी लोग तमाम किस्म के यौन क्षमता बढ़ाने वाले तथाकथित टानिक, कैप्सूल, इजेंकशन, तेल, क्रीम और स्प्रे के विज्ञापन को देखकर खुद को नामर्द समझने लगते है। इस तरह वे लोग भी इन दवाइयों के मोहताज हो जाते है जो कि पुरी तरह से स्वस्थ्य है। मनोचिकित्सको की माने तो इस तरह के केस उम्रदराज लोगो से ज्यादा युवाओं में देखने को मिलता है। क्योकि सेक्स संबंधीत तरह -तरह के विज्ञापनो से उनके मन सबसे ज्यादा उत्सुकता पैदा होती है। वे बगैर डाक्टरी सलाह के ही सेक्स संबंधी नए -नए प्रयोग करने लगते है और उनके इस काम मे इंटरनेट काफी सहायक साबित हो रहा है। इंटरनेट पर उन्हे तमाम तरह की जानकारी मिल जाती है, जिसके बलबूते वे खुद को डाक्टरो से भी ज्यादा जानकार समझने लगते है, और यही नही इस तरह की आधी अधूरी जानकारी के आधार पर वे अपने मित्रों को भी गुमराह करते है। जिसका फायदा मर्दानगी बेचने के नाम पर सेक्स कारोबार कर रहे झोला छाप डाक्टरों को हो रहा हैं।
कामशक्ति बढ़ाने की चाह लोगो मे प्राचीन काल से रही है, जिसका साक्षी हजारो वर्ष पूर्व लिखी गई ‘चरक संहिता’ है। इसमें आयुर्वेद के जनक महर्षि चरक ने अलग से ‘बाजीकरण’ के नाम से एक अध्याय रखा है, जिसमे कामशक्ति को बढ़ाने के लिए विभिन्न उपायों एवं दवाइयों का विवरण है। वैदिक साहित्य में धर्म और अर्थ के बाद काम को स्थान दिया गया है, मोक्ष उसके बाद की स्थिति है। इसी तरह गीता के दसवें अध्याय में कृष्ण ने कहा है –“मै सर्वत्र व्याप्त हूँ,…मै मनुष्य के अंदर कामेच्छा के रुप मे मौजूद हूं।” जबकि खजुराहो, वैल्लूर और हिन्दुस्तान के कई मंदिरो की दीवारों पर संभोग की विभिन्न मुद्राओं वाले बने चित्र इस बात के प्रमाण है कि संभोग क्रिया पाप की वस्तु नही है। रजनीश ने भी अपनी पुस्तक संभोग से समाधी मे लिखा है कि “अगर संभोग करना पाप होता तो इसे मंदिरो में स्थान नही मिलता।” सच तो ये है कि हमारे यहा कालिदास का साहित्य भी रहा है और खजुराहो, एलोरा, अजंता तथा कोणार्क की मूर्तिकला भी। नंगा शरीर हमारे लिए पाप से जुड़ा हुआ नही था। अगर समूचे प्राचीन भारतीय साहित्य, मूर्तिकला और चित्रकला को कल्पना ही माना जाए तो इन कल्पनाओं के सामाजिक आधार की मौजूदगी को भी स्वीकार करना पडेगा।
यौन भ्रांतिया सिर्फ भारत में ही नही है बल्कि अमेरिका और यूरोप जैसे देशों में भी है, जहां साक्षरता की दर 90 से लेकर 100 फीसदी है। पश्चिमी संस्कृति के अगुआ बने इन देशों में वैवाहिक संबंधों में दरार का प्रतिशत भारत जैसे बंद समाज वाले देशों की तुलना में ज्यादा है। इसके के पीछे मुख्य वजह यौन असंतुष्टि और आपसी संवाद में कमी बताया जा रहा है। भारत की तरह ही यौन सुख को लेकर अमेरिका जैसे विकसित देशों में भी गलतफहमी है। जिसकी वजह से स्त्रियों और पुरुषों में समलैंगिता बढ़ रही है। दो व्यक्तियों में यौनेच्छा का स्तर एक समान नही हो सकता। कोई एक दिन में तीन बार यौन संबंध की इच्छा रखता है, तो कोई हफ्ते और महीने मे एक बार । यदि शादी समान यौनेच्छा के स्तर वाले जोड़े के बीच हो तो आगे चलकर परेशानी कम होती है। शादी के बाद अपने पार्टनर की इच्छाओं का ख्याल रखें तो संबंध अच्छे बने रहेगें। जिसका अभाव अमेरिका और यूरोप जैसे देशो में देखने को मिलता है। जिसकी वजह से वहां तलाक का औसत ज्यादा है। जबकि भारत और एशिया के ज्यादतर देशो में जहां सेक्स पर चर्चा बंद कमरे के अन्दर की जाती है और स्त्रियों का इस संबंध में बाते करना अनैतिक समझा जाता है, वहा उत्पीड़न तो है पर तलाक का औसत काफी कम है। भारत जैसे देशों में यौन संबंधी बीमारी पर मर्द जहां चर्चा करने से डरते है, वही पत्निया उन्हे छुपाने की कोशिश करती है। ऐसे जोड़ो द्वारा अपने दोस्तो के बीच झूठी तारीफ करना और शेखी बघारना आम बात है। जिसकी वजह से दूसरे तो गुमराह होते ही है, उनके बीच के संबंध भी खराब होते चले जाते है। वही फिल्मो का असर भी लोगो पर देखने को मिलता है। हर स्त्री अपने पुरुष साथी को एक हीरो के रुप देखती है और पुरुष भी खुद को हीरो साबित करने की कोशिश करता है। उससे लगता है जब तक वह अपने महिला साथी को यौन सुख नही देगा, वह मर्द नही है। लेकिन जो यौन क्रिड़ा मे लम्बे समय तक टिक नही पाते है, उनमें नार्मद होने का एहसास होने लगता है और ऐसे पुरुष दवाओं और दूसरे इलाजो का सहारा लेते है। जबकि सेक्सलोजिस्ट का कहना है कि एक साधारण व्यक्ति में पांच से दस मीनट तक सेक्स करने की क्षमता होती है। लेकिन ज्यादतर लोगो का मानना है कि जो एक घंटे तक सेक्स कर सकते है वही मर्द तो यह गलत अवधारणा है और इस तरह की सोच लोगों को मानसीक तौर पर बीमार कर देती है। बीमारी को छुपाने और यौन सुख से वंचित रहने के कारण ऐसे जोड़े कई तरह के मनो रोग के शिकार हो जाते है। इस प्रकार जिस बीमारी का इलाज मनोचिकित्सक के साथ सलाह मशविरा कर आसानी से किया जा सकता है, उसे लाइलाज बना दिया जाता है, जिसका फायदा कल तक नीम-हकीम उठा रहे थे, आज उनके साथ-साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी पैसे बटोर रही हैं।
चिकित्सकीय अनुसंधानों से यह सिद्ध हो चुका है कि बाजार में उपलब्ध कोइ भी ऐसी दवा नही है जो नपुंसक व्यक्ति की कामोत्तेजना को बढ़ा सके। इसके उलट इन दवाइयों से नुकसान ज्यादा होता है। यहां तक कि वियाग्रा जैसी जांची-परखी दवा भी कई बार जान लेवा साबित हो चुकी है। ऐसे मे नीम-हकीमों की दवा की बिसात ही क्या है। कार्ल माक्र्स ने एक संदर्भ में कहा था कि “यदि भगवान सचमुच नही है तो मनुष्य को उसका अविष्कार करना होगा।” शायद इस बात को मर्दानगी का इलाज करने वाले और दवा बनाने वाले भली भांती समझ रहे है। यही वजह है कि आज मार्केट में जड़ी-बूटियों से लेकर थर्टी प्लस, थ्री नाट थ्री और वियाग्रा के देशी-विदेशी वर्जन मौजूद है। सेक्स की क्षमता को बढ़ाने वाली दवा वियाग्रा की तो बाजार में इतनी मांग है कि लोग ब्लैक में लेने को तैयार है। इस तरह की दवाइयों का सेवन करने से आपको कुछ समय के लिए तो फायदा हो सकता है लेकिन आगे चलकर इसका असर कम होता जाएगा। ऐसे मे यदि आप इसकी मात्रा बढ़ाते है तो आपको नुकसान भी हो सकता है। ऐसे लोगो को शेक्सपीयर की यह बात याद रखनी चाहिए कि “शराब कामना बढ़ाती है और बुझाती भी है, लालसाएं भड़काती है पर क्षमताएं छीन लेती है।” शराब की थोड़ी मात्रा से संभव है संकोच टूटे पर ज्यादा लेने पर हो सकता है कि स्तंभन ही न हो। दरअसल नीम-हकीमों से इलाज लोग चोरी छिपे करवाते है, जिसकी वजह से ज्यादतर मामले सामने नही आ पाते। आंकड़े बताते है कि पिछले कुछ सालों में दुनिया भर में नपुंसकता के मामले तेजी से बढ़े है लेकिन इसके साथ ही लोगो में सेक्स के प्रति जागरुकता भी बढ़ी है। हमारे देश मे हाल में सर्वेक्षण और अध्ययनों से भी कुछ ऐसी ही तस्वीर उभर कर सामने आई है, लेकिन बड़े शहरो की तुलना में छोटे शहरो में जागरुकता का प्रतिशत काफी कम है। विशेषज्ञों की राय मे नपुंसकता आधुनिकता और विकास के साथ-साथ आने वाली एक शांत महामारी है। दरअसल उपभोक्तावाद और भागम-भाग भरी जिंदगी मनुष्य के जीवन मे इतना तनाव भर देती है कि वह यौन आनंद के लिए मानसिक रुप से तैयार नही हो पाता और धीरे-धीरे नपुंसकता का शिकार हो जाता है। इसके अलावा अत्यधिक शराब पीने या धूम्रपान करने से भी नपुंसकता पनपती है। आधुनिक भारतीय समाज में इन दोनों का ही प्रचलन बढ़ता जा रहा है।
नपुंसकता दो तरह की होती है-प्राथमिक और माध्यमिक। प्राथमिक नपुंसकता युवा अवस्था में शुरु में होती है, जिसका इलाज संभव है, जबकि माध्यमिक एक निश्चित उम्र के बाद होती है, जिसमें स्तंभन नही होता। स्तंभन दोष दो तरह के हो सकता है-शारीरिक या मानसिक। वैसे नपुंसकता की वजह शारीरिक है या मानसिक इस बात को लेकर चिकित्सकों मे आम राय नही है। कुछ चिकित्सक मानते है कि नपुंसकता के दो तिहाई से ज्यादा मामले दिमाग की उपज है, क्योंकि यौन तरंगे दिमाग से ही उठती है और संपूर्ण देह मे संचारित होकर पुरुष – स्त्री को को यौन आनंद की अनुभूति कराती है। जबकि कुछ चिकित्सको का कहना है कि यौन तरंगे दिमाग से उठती जरुर है लेकिन यह सारा खेल हार्मोनो और रसायनों का है। नाइट्रिक आक्साइड की कमी से व्यक्ति नपुंसक हो सकता है, जबकि जिंक की कमी के कारण वीर्य का निर्माण होना बंद हो जाता है। इसलिए नपुंसकता की वजह देह की कार्यप्रणाली में छिपी है, न कि दिमाग में। शारीरिक नपुंसकता उस समय होती है जब रोगी मे कोई गड़बड़ी हो या फिर वह किसी बीमारी से पीड़ित हो। इसमें धमनियां क्षतिग्रस्त हो सकती है। जिससे जननेंद्रिय मे पर्याप्त रक्त नही पहुंच पाता। रीढ़ में चोट या फिर मधुमेह से स्न्नायु क्षतिग्रस्त हो सकती है। यह अवसाद, अधिक तनाव, एलर्जी या दिल की बीमारी के लिए खायी गयी दवाओं का भी नतीजा हो सकता है। साथ ही हार्मोन के असंतुलन, अधिक शराब का सेवन या धूम्रपान से भी स्तंभन दोष हो सकता है। समान्य लोगो के मुकाबले मधुमेह पीड़ित पुरुष में 30 से 75 फीसदी अधिक नपुंसकता होती है। कई मामलो मे तो नपुंसकता मधुमेह का पहला लक्षण बनकर प्रकट होती है। नपुंसकता से जुड़ी अनेक किस्म की गहरी भ्रांतिया समस्या को और भी गंभीर बना देती है। आम धारणा है कि नपुंसकता का पता चलने पर कुछ करने की स्थिति नही रह जाती और इसे उम्र बढ़ने के स्वाभाविक परिणाम के रुप में स्वीकार कर लेना चाहिए, लेकिन चिकित्सकों का कहना है कि बढ़ती उम्र का स्तंभन से कुछ भी लेना देना नही है। मनोचिकित्सकों के अनुसार किशोरावस्था में किये गये हस्तमैथुन का अपराधबोध भी पुरुषों की नपुंसकता का कारण बन सकता है। सच तो ये है कि हस्त मैथुन से न तो कमजोरी होती है और नही शिश्न टेढ़ा होता है। गर्भधारण को छोड़कर न तो वीर्य जीवनप्रद है और न ही शक्तिप्रद। यह कहना गलत है कि वीर्य की एक बूंद, खून की सौ बूंदों से बनती है।
स्वीकृति और वर्जना के बीच की लक्ष्मण रेखा क्या हो ? यह प्रश्न यौनगत व्यवहार के संदर्भ में बड़ा उलझा हुआ है। इसका सार्वजिक और व्यक्तिगत जीवन के प्रसंग में उत्तर एक सा नही है। अक्सर दुहरे मानदंड अपनाये जाने की समस्या खड़ी हो जाती है। सेक्स या यौन शब्द आम तौर पर चौकानेवाला, जिज्ञासा और उत्सुकता को प्रोत्साहित करने वाला, रहस्य के कुहासे मे छिपे हमारे अस्तित्व या शख्सियत के एक ऐसे कोने को छूता है, जिसे भ्रद लोग सबकी आंखो से बचाकर अपने निजी एकांत की सम्पति मानते है। सेक्स संबंधी जिज्ञासा बच्चो में काफी होती है। वे अपने शरीर के अन्दर हो रहे बदलाव को बहुत पहले से महसूस करने लगते है और उसका सवाल अपने सहपाठियों के बीच ढूंढने की कोशिश करते है। छोटे बच्चे अपने से बड़े उम्र के लोगो के प्रति आकर्षित होते है। स्कूली शिक्षा के दौरान अक्सर ये देखने को मिलता है कि लड़के और लड़कियां अपने हमउम्र के बच्चो बजाए शिक्षक और शिक्षिकाओं से स्नेह रखते है। उनसे मिलना और बाते करना, उन्हे काफी अच्छा लगता है। बच्चो में इस तरह के परिवर्तन को गलत मान लिया जाता है, जो सही नहीं है। यह तो प्रकृति का नीयम है कि हर एक जीव का, चाहे वह इन्सान हो या जानवर, अपने से विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षित होता है। लेकिन यौन संबंधी अज्ञानता के कारण कभी-कभी उन्हे ऐसे परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है, जिसका असर उन पर सारी उम्र रहता है। यही वजह है कि आज यौन जनित बीमारीयां अपना पैर पसार रही है। जिसके रोक थाम पर करोड़ो रुपये खर्च करने के बावजूद कोई सामाधान होता नही दिख रहा है। यदि अब भी इस विषय पर लोग खुलकर बाते नही करेंगे, बच्चो को यौन संबंधी शिक्षा नही दी जाएगी, तो आने वाले वर्षो में स्थिति और भी भयानक हो सकती है। आज न तो माता-पिता अपने बच्चो को सेक्स की शिक्षा देने को तैयार है और न ही स्कूलो मे टीचर इस विषय को बढ़ाने को तैयार है। ऐसे में बच्चो को सेक्स की शिक्षा कहा से मिले, यह एक यक्ष प्रश्न है, जिसका जवाब न तो सरकार के पास है और नही सेक्स शिक्षा को अनिवार्य करने की बात करने वाले योजनाकारो के पास है।
भारतीय समाज की संरचना काफ़ी जटिल है। अति प्राचीन मूल्य मान्यताओं मे आस्था रखने वाले कबीलाई जन समुदाय से लेकर उन्मुक्त यौन संबंधो की वकालत करने वाले चन्द यूरोपिय समाजो की तर्ज पर अति आधुनिक ख्यालों वाले जन समुदायों तक अनके समाजिक परते एक साथ मौजूद है। दिल्ली या मुंबई जैसे महानगरों में बिना विवाह किये स्वतंत्र यौन संबंधो के आधार पर सहचर्य का जीवन जीने वाले अनेक जोड़े मिल जाएगें। वहीं किसी दूरस्थ गांव मे इस प्रकार की कथित घोर अनैतिकता की कल्पना भी नही की जा सकती। जिस समाज मे यौन संबंधी नैतिक मान्यताओं में ध्रुवीय फासला मौजूद हो उस समाज मे इन मान्यताओं की ओर तत्संबंधित नैतिकताओ की जांच-परख आसान नही है। फिर भी जहां कुछ एक नैतिक मान्ताए क्रुरता की हद पार कर जाये और उनका भय विकृत गोपन आचरण का वाहक बन जाये, तो उन पर पुर्नविचार आवश्यक हो जाता है। हर युग में यौन संबंधी नैतिक मूल्य और मर्यादाए परिस्थितिगत, सामाजिक और वैचारिक परिवर्तनों की खराद पर भी चढाये जाते रहे है। एक दौर की यौन वर्जनाएं जो चरम नैतिकता के रुप में स्थापित होती है। दूसरे दौर में मनुष्य को अपनी उन्मुक्ति में बाधा के रुप मे महसूस होने लगती है। स्थापित नैतिक मान्यताओं के विरुद्ध नई नैतिक स्थापनाओं के बीच एक निरंतर टकराहट की स्थिति बनी रहती है और यह टकराहट आज भी बदस्तूर जारी है। जिसकी वजह से आज के आधुनिक दौर में, जबकि हम अंतरिक्ष में जीवन तलाश रहे है, यौन संबंध को लेकर भ्रांतियां बनी हुई है।