क्या धीरे धीरे तालिबान को मान्यता दे रहा है भारत?
देश के भीतर भले सरकार पर दवाब है, लेकिन चीन-पाकिस्तान को काउंटर करने के लिए तालिबान से बात करनी ही होगी
बुधवार को रूस में हुए मॉस्को फॉर्मेट वार्ता में तालिबान और भारत के प्रतिनिधियों ने सीधी बात की। अफगानिस्तान पर तालिबान के नियंत्रण के बाद दोनों पक्षों के बीच हुई ये दूसरी बातचीत है। इससे पहले दोहा में दोनों देशों के प्रतिनिधि मिल चुके हैं। हालांकि भारत, अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार का समर्थक और तालिबान का विरोधी रहा है, लेकिन अब वह अपनी नीति बदल रहा है।
आखिर भारत ऐसा क्यों कर रहा है? तालिबान से बातचीत भारत के लिए क्यों महत्वपूर्ण हैं और आने वाले दिनों में वैश्विक स्तर पर इससे क्या कुछ बदलने वाला है। इसको लेकर भास्कर रिपोर्टर पूनम कौशल ने अफगान मामलों के कुछ एक्सपर्ट्स से बात की। आइए एक्सपर्ट की नजर से इस बातचीत के मायने समझते हैं…
ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के रिसर्चर और अफगानिस्तान के मामलों पर नजर रखने वाले कबीर तनेजा कहते हैं, ‘भारत ने तालिबान के साथ एंगेजमेंट कुछ देर से शुरू किया है, इसके क्या नतीजे होंगे अभी साफ नहीं है, लेकिन अफगानिस्तान में तालिबान शासन अब एक हकीकत है और भारत को अपनी कूटनीति इसी के इर्द-गिर्द रखनी होगी।
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की असिस्टेंट प्रोफेसर और इंटरनेशनल मामलों की जानकार स्वास्ति राव कहती हैं कि भारत ने साल 2019 से ही तालिबान के प्रति अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाना शुरू कर दिया था। इससे पहले भारत का तालिबान के प्रति नजरिया रेडलाइन एप्रोच का था। यानी, भारत आतंकवादियों के साथ बात नहीं करेगा। भारत ऐसी सरकार का समर्थन करता था जो अफगान लोगों की सरकार थी, लेकिन अगस्त 2019 में कश्मीर से 370 हटाने के बाद भारत तालिबान के साथ भी एंगेज कर रहा है।
स्वास्ति कहती हैं कि 2019 में भारत ने जब कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाया और पाकिस्तान के हो-हल्ला मचाने के बावजूद तालिबान ने भारत की आलोचना नहीं की। इससे भारत को ये संकेत मिला कि तालिबान भारत और पाकिस्तान के बीच किसी का पक्ष नहीं लेगा। तालिबान का संदेश था कि वह भारत और पाकिस्तान को लेकर अपनी विदेश नीति को स्वतंत्र रखेगा। तालिबान के इस नजरिए के बाद भारत की भी रेडलाइन नीति में बदलाव आया।
अब तालिबान ही अफगानिस्तान की नई हकीकत है
राव कहती हैं, ‘भारत जानता है कि तालिबान अफगानिस्तान में उभरता हुआ स्टेकहोल्डर है और उसे भरोसे में लिए बिना अफगानिस्तान में एंगेजमेंट नहीं किया जा सकता। 2019 की अमेरिका-तालिबान डील ने उसे और भी मजबूत कर दिया। 2021 में जो बाइडेन के प्रशासन में अमेरिका पूरी तरह अफगानिस्तान से लौट गया और अब तालिबान ही अफगानिस्तान की नई हकीकत है।
बुधवार को रूस की राजधानी मॉस्को में अफगानिस्तान को लेकर दस देशों के प्रतिनिधियों ने वार्ता की है। मॉस्को फॉर्मेट पहली बार 2017 में बना था। उस समय 6 सदस्य थे, तब भारत एक पर्यवेक्षक की हैसियत से मॉस्को गया था। तालिबान के सरकार बनाने के बाद मॉस्को फार्मेट पहली बार हुआ है और इसमें भारत शामिल रहा है।
लंबे संघर्ष के बाद तालिबान अफगानिस्तान को नियंत्रण में लेने में तो कामयाब हो गया है, लेकिन तालिबान के सामने कई बड़ी समस्याएं हैं। सबसे बड़ी समस्या है अंतरराष्ट्रीय मान्यता और आर्थिक मदद प्राप्त करने की। मॉस्को फॉर्मेट के जरिए तालिबान ने अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने की कोशिश की है।
अमेरिका ने अफगानिस्तान के सभी एसेट फ्रीज कर दिए हैं। IMF ने भी उसके लिए फंड फ्रीज कर दिया है। अफगानिस्तान ऐसा देश है जिसका 75% काम विदेशी मदद के जरिए ही चलता है। विश्लेषक मानते हैं कि तालिबानी अफीम का कारोबार करके अपना समूह तो मजबूत कर सकते हैं, लेकिन देश नहीं चला सकते हैं। इससे पहले बाइडेन प्रशासन और तालिबान के प्रतिनिधियों के बीच दोहा में वार्ता हुई थी। तालिबान ने अमेरिका से मदद मांगी, लेकिन अमेरिका ने समावेशी सरकार बनाने की शर्त रख दी।
तालिबान को ये भी समझ आ रहा है कि जो समावेशी सरकार बनाने का वादा उन्होंने किया था उसे लागू करना अब उनकी मजबूरी बनती जा रही है। इसलिए वह चाहता है कि दुनिया के दूसरे देश उसके साथ एंगेजमेंट करें।
तालिबान ISI के प्रभाव में है
स्वास्ति राव कहती हैं कि गनी बरादर तालिबान के एक बड़े नेता थे। वे रातों रात गायब हो गए। सरकार से किनारे कर दिए गए। पाकिस्तान की खुफिया एजंसी ISI के चीफ हामिद गुल काबुल पहुंचे और सरकार हक्कानी नेटवर्क के हाथ में आ गई। बरादर जैसे लोग जो सरकार बनने तक तालिबान का चेहरा थे और उसके बाद किनारे कर दिए गए, हक्कानी नेटवर्क हावी हो गया। इससे ये साफ हो गया कि तालिबान ISI के प्रभाव में है। इस वजह से इंटरनेशनल लेवल पर तालिबान किनारे होते गया। चीन, रूस और सऊदी अरब जैसे देश जिन्हें तालिबान अपना करीबी समझता था वो सरकार के गठन में शामिल नहीं हुए। अभी तक किसी देश ने तालिबान को मान्यता नहीं दी है।
सितंबर में हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में तालिबान के प्रतिनिधियों ने भी सभा में शामिल होना चाहा, लेकिन उन्हें मौका नहीं दिया गया। हाल ही में हुए सार्क सम्मेलन में भी पाकिस्तान की गुजारिश के बाद भी तालिबान को शामिल नहीं होने दिया गया और वो बैठक ही रद्द हो गई।
स्वास्ति राव कहती हैं कि मान्यता मिलना तो बड़ी बात है, तालिबान को अभी स्वीकार्यता भी नहीं मिल पा रही है। मध्य एशिया में रूस के अपने हित हैं। चीन के सुरक्षा हित भी अफगानिस्तान से जुड़े हैं। ऐसा नहीं है कि रूस या चीन तालिबान को बहुत पंसद करते हैं, बल्कि वास्तविकता ये है कि तालिबान उनके लिए सुरक्षा कारणों से बहुत महत्वपूर्ण है। मॉस्को फार्मेट के जरिए रूस ने भी तालिबान को स्वीकार्यता दिलाने की कोशिश की है।
दरअसल इस्लामिक स्टेट मध्य एशिया में प्रभाव बना रहा है, लेकिन तालिबान उसका विरोधी है। रूस ये सोचकर तालिबान की मदद कर रहा है कि आने वाले समय में मध्य एशिया में तालिबान ही इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़ेगा। तालिबान ने रूस के सत्ता में आने के बाद तजाकिस्तान में अपने सैन्य अड्डे को फिर से एक्टिवेट किया है।
कबीर तनेजा कहते हैं कि कुछ रिपोर्ट्स में ऐसा दावा किया जा रहा है कि नवंबर में भारत अफगानिस्तान के मुद्दे पर एक NSA स्तर की बैठक करने जा रहा है। जिसमें पाकिस्तान के NSA भी शामिल हो सकते हैं। इससे साफ है कि भारत अपने नेतृत्व में अफगानिस्तान को लेकर एंगेजमेंट चाहता है।
भारत पर घरेलू दबाव हो सकता है कि वह सीधे तौर पर तालिबान से बातचीत नहीं करे
वहीं स्वास्ति राव कहती हैं, ‘भारत के लिए अफगानिस्तान बहुत महत्वपूर्ण है, उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। अफगानिस्तान मध्य एशिया जाने के लिए भारत का रास्ता है और वहां भारत के कई प्रोजेक्ट चल रहे हैं। पाकिस्तान की चीन के साथ नजदीकियां बढ़ रही हैं। यदि भारत के अफगानिस्तान से संबंध नहीं रहेंगे तो भारत चीन और पाकिस्तान को काउंटर नहीं कर पाएगा।
इसके अलावा भारत सरकार अधिकारिक तौर पर भी इसे लेकर प्रतिबद्ध है कि तालिबान का असर कश्मीर पर ना हो। भारत की सुरक्षा चिंताएं तालिबान से जुड़ी हैं। भारत नहीं चाहता कि अफगानिस्तान की जमीन भारत के खिलाफ आतंकवाद के लिए इस्तेमाल हो। ये भरोसा हासिल करने के लिए भारत को तालिबान से बात करनी पड़ेगी। इस तरह के अंतरराष्ट्रीय फोरम में बात करने का दबाव बनाया जाता है।
भारत में तालिबान को एक आंतकवादी संगठन माना जाता है और आम लोगों की राय अक्सर तालिबान के खिलाफ होती है। ऐसे में सरकार पर ये घरेलू दबाव हो सकता है कि वह तालिबान के साथ सीधे तौर पर एंगेज ना करे।
वे कहती हैं कि हमें यह समझना होगा कि तालिबान से बातचीत का मतलब यह नहीं है कि भारत सरकार ने उसके सामने घुटने टेक दिए हैं या आतंकवादी समूह से बात शुरू कर दी है। तालिबान के साथ एंगेज करना भारत की कूटनीति का हिस्सा है।
तालिबान ने भारत से आर्थिक सहयोग भी मांगा है। कबीर तनेजा कहते हैं कि जहां तक मानवीय मदद का मसला है, भारत को बिलकुल शुरू करना चाहिए। पिछले 20 सालों से भारत ने अफगानिस्तान में अपनी बहुत साख बनाई है। उसे अपनी इस सॉफ्ट पॉवर को बरकरार रखना होगा। अब संयुक्त राष्ट्र भी अफगानिस्तान में काम शुरू करने जा रहा है, भारत संयुक्त राष्ट्र के जरिए भी काम कर सकता है।
स्वास्ति राव कहती हैं कि अफगानिस्तानी लोगों के साथ भारत के दोस्ताना संबंध हैं और भारत ये चाहेगा कि आगे भी ये रिश्ता बरकरार रहें। भारत ने भी साफ किया है कि वह मानवीय मदद देगा, तालिबान के हाथों में पैसा नहीं देगा।
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