…ताकि वह ‘खबर’ ही रहे, सनसनी न बने
कोर्ट ने कहा कि मीडिया के लोगों को समझना चाहिए कि वे समाज में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं, उनका समाज पर प्रभाव है, वे समस्या का हिस्सा नहीं हो सकते और जैसा चाहें वैसा नहीं कर सकते।
निशिकांत ठाकुर
औपनिवेशिक काल में सूचना का तंत्र टेलीग्राम और टेलेक्स हुआ करता था और वर्ष 1919 भारतीय शासन अधिनियम पहला कानूनी दस्तावेज था जिसमें केंद्रीय सेवा का उल्लेख किया गया है और जिसके तहत कई और विभागों के साथ-साथ रेलवे और डाक-तार विभाग को भी रखा गया। औपनिवेशिक काल में लोक प्रशासन में कुशलता और अनुशासन के गुण विद्यमान थे। आदेशों की अवहेलना नहीं होती थी, उच्चाधिकारियों का चरित्र संदेश से परे था। कुशलता की दृष्टि से औपनिवेशिक कालीन भारतीय प्रशासन को विश्व में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। इससे पहले मुगल साम्राज्य में सूचना के आदान-प्रदान के लिए खबरनवीस हुआ करते थे, जो चार भागों में बंटे थे- वाक-ए-नवीस, सबानह-ए-निगार, खुफिया-ए-नवीस तथा हरकारह। आज की 21वीं सदी में संचार साधनों के बिना जीवन की कल्पना असंभव है। आदिकाल में कबूतरों, बाजों के माध्यम से संदेहवाहक घोड़ों की सवारी करके संदेश लेकर जाता था जिसमें कई दिन लग जाते थे। अब विज्ञान ने विकास कर लिया है जिसके कारण विश्व में किसी भी व्यक्ति से तुरंत बात की जा सकती है। इतना ही नहीं, वीडियो कान्फ्रेंसिंग के माध्यम से आमने-सामने बात की जाती है जिसे भारत में सूचना क्रांति का नाम दिया गया है और इसके जनक पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी को माना जाता है। संचार और सूचना के इन माध्यमों को स्थान दिया जाता है, जैसे- रेडियो, टेलीविजन, इंटरनेट, ई-मेल, लैंडलाइन, टेलेक्स, मोबाइल फोन, टेलीग्राम, पेजर फैक्स आदि।
यह जानकारी इसलिए, क्योंकि हम कितने विकसित हुए और इस विकास में कितना समय लगा, इसकी जानकारी देना एकमात्र उद्देश्य था। दरअसल, अब आज सूचना तंत्र विश्व सहित भारत में इतना विकसित हो गया है कि जिस क्रांति की शुरुआत पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी के कार्यकाल में हुई थी, अब सुप्रीम कोर्ट को भी न्यूज टेलीविजन चैनलों की बुराइयों की रोकथाम के लिए हस्तक्षेप करना पड़ा; क्योंकि उसे भी ऐसा लगने लगा, जैसे आज वह अभिशाप हो गया हो। सूचना तंत्र इतना विकसित होगा, यह सोचा तो जरूर था, लेकिन इतना भी नहीं सोचा था कि इस विकास का अर्थ यह होगा कि वह समाज में घृणा पैदा करने लगे तथा देशहित में सूचना के नाम पर देश को बांटने का काम करने लग जाए। इसी हालत को देखते हुए पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट को टेलीविजन न्यूज चैनल पर कड़ी टिप्पणी करनी पड़ी। सुप्रीम कोर्ट ने टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों में नफरती व भड़काऊ बयानों पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि टेलीविजन चैनल अपने एजेंडे पर चलते हैं, प्रतिस्पर्धा में खबरों को सनसनीखेज बनाते हैं और समाज को बांटते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अफसोस जाहिर करते हुए कहा कि चैनलों के लिए नियमन और नियंत्रण नहीं है, हमें स्वतंत्र और संतुलित प्रेस चाहिए। जस्टिस के एम जोसेफ, जय बीबी नागरत्न ने टेलीविजन चैनलों के रवैये पर टिप्पणी करते हुए कहा कि आजकल सब कुछ टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट से चलता है। वे एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर समाज को बांट रहे हैं।
बात 1990 के दशक की है। दिल्ली में पत्रकारिता की साख पर आयोजित सेमिनार में एक मीडिया गुरु का अपने संबोधन में कहना था कि टेलीविजन के आने से प्रिंट मीडिया का हाल बुरा होगा। ज्ञात हो उसी काल में टेलीविजन का धीरे-धीरे जन-जन में प्रवेश हो रहा था। प्रिंट के सभी सदस्य निराश हो चुके थे कि जीवनभर प्रिंट की पत्रकारिता करने के बाद अब क्या ऐसा होगा, जब प्रिंट के सारे पत्रकार बेरोजगारी के कारण भुखमरी के कगार पर पहुंच जाएंगे? स्थिति काफी गंभीर थी, लेकिन दैनिक जागरण के प्रधान संपादक नरेंद्र मोहन (अब स्वर्गीय) ने मोर्चा संभालते हुए कहा, जो लोग टेलीविजन के नाम पर इतना डर आपके दिल-ओ-दिमाग में पैदा कर रहे हैं, वह सही नहीं हैं। समाचार-पत्र एक लिखित प्रपत्र (डॉक्यूमेंट) है, जिसे आप झुठला नहीं सकते, लेकिन टेलीविजन पर चले समाचारों को उस तरह का विश्वसनीय इसलिए नहीं मान सकते, क्योंकि यदि समाचारों के चलने के बाद कोई गलत समाचार चैनल चला रहा है, तो गलती का अहसास होने पर वह उसे तत्काल बदल सकता है, जबकि प्रिंट के मामले में ऐसा नहीं हो सकता। प्रिंट वाले इस बात का ध्यान रखें कि खबरों के एक-एक शब्द का महत्व होता है, क्योंकि एक शब्द के द्वारा आप किसी को कितना आघात पहुंचा देते हैं, इसका एहसास आपको करना ही होगा, आपको संवेदनशील बनना ही होगा। अखबारी साख क्या चीज है, इसे समझाते हुए उनका कहना था कि जिस प्रकार अखबार का मत्था (मास्ट हेड्स) इस बात को दर्शाता है कि यह इस नाम का अखबार है, जिस प्रकार उस मास्ट हेड्स के नीचे तारीख होती, वह यह दर्शाता है कि यह आज का अखबार है; क्योंकि अखबार पर लिखा हुआ है कि यह आज की तारीख का अखबार है, इसलिए आज यही तारीख है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रिंट मीडिया की तरह न्यूज चैनल के लिए प्रेस काउंसिल जैसी चीज नहीं है। कोर्ट ने विजुअल मीडिया के प्रभाव का जिक्र करते हुए कहा कि समाचार पत्र के बजाय विजुअल मीडिया ज्यादा प्रभावित करता है। कोर्ट ने अफसोस जताते हुए कहा कि विजुअल मीडिया अभी भी परिपक्व नहीं है, जो इस तरह की चीजों को रोक सके। न्यूज चैनल के एंकरों के लिए कहा कि कई बार टीवी पर सजीव बहस के दौरान टीवी एंकर समस्या का हिस्सा बन जाते हैं या उसे विपरीत नजरिया पेश करने की इजाजत नहीं देते। जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि नफरती भाषण का प्रसार करके टीवी चैनल प्रोग्राम करके कानून का उल्लंघन करते हैं, उनके प्रबंधन के विरुद्ध कार्रवाई की जा सकती है। नफरती कई मुद्दों को संज्ञान लेते हुए कोर्ट ने एयर इंडिया के विमान में युवक द्वारा बुजुर्ग महिला पर पेशाब करने की घटना पर कहा कि हर व्यक्ति की प्रतिष्ठा और गरिमा होती है और जब मामला कोर्ट में विचाराधीन है फिर नाम लेकर उसे कैसे संबोधित किया जा सकता है। कोर्ट ने कहा कि सजीव कार्यक्रम में निष्पक्षता की चाभी एंकर के पास होती है। अगर एंकर निष्यक्ष नहीं है, तो वह विपरीत नजरिये की इजाजत नहीं देता है या वक्ता की आवाज बंद कर देता है या दूसरे पक्ष से सवाल नहीं करता तो यह पक्षपात के चिह्न हैं। कोर्ट ने कहा कि मीडिया के लोगों को समझना चाहिए कि वे समाज में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं, उनका समाज पर प्रभाव है, वे समस्या का हिस्सा नहीं हो सकते और जैसा चाहें वैसा नहीं कर सकते।
टीवी न्यूज चैनलों पर सुप्रीम कोर्ट की कठोर आलोचना के बावजूद अब देखना यह होगा कि जिन एंकरों द्वारा समाज में हिंदू-मुसलमान,भारत-पाकिस्तान पर बिना किसी कारण के बहस चलाकर उसे एक पक्षीय करके जहर फैला दिया गया है, उसमें सुप्रीम कोर्ट की इस कठोर टिप्पणी के बाद कितना सुधार आता है। सच तो यह है कि आज जिस जातीय जहर में भारत आकंठ डूबता जा रहा है, उसका मुख्य कारण आज समाज में इन्ही कुछ न्यूज चैनल के एंकरों के कृत्यों को माना जाने लगा है। सरकार से इन पर किसी कार्रवाई की आशा करना तो बेमानी होगी, क्योंकि ये उन्हीं के द्वारा पोषित और पल्लवित होते हैं और उन्हें ही खुश करने के लिए पत्रकारिता की नीव को कमजोर करते हैं। अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी मान लिया है कि देश के भाईचारे को खंडित करने वाले इन कुछ सरकार भक्त कट्टर एंकरों ने देश के माहौल को बिगड़ा है। इसलिए अब सुप्रीम कोर्ट में ही आशा की किरण देश के शांतप्रिय नागरिकों को दिखाई दे रही है। कम-से-कम भारत सरकार ने जिस प्रकार प्रिंट मीडिया के लिए प्रेस काउंसिल का गठन कर दिया है, क्या उसी प्रकार इन न्यूज चैनलों के लिए भी किसी काउंसिल का गठन किया जाएगा अथवा इसी प्रकार उन्हें समाज में एकपक्षीय बहस कराकर देश के आमलोगों के मन में जहर फैलाने की खुली छूट मिली रहेगी? फिर भी पहले एक उम्मीद आमलोगों को सरकार से रखनी ही पड़ेगी कि सरकार इस प्रकार की गंदी मानसिकता पर अंकुश लगाने के लिएं कोई ठोस निर्णय लेकर देश में शांति बनाए रखने के लिए निर्णय लेगी। देखना यह है कि इस मामले में पहले कौन पहल करता है- सरकार या सुप्रीम कोर्ट।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)