समाजवादी पार्टी को मैनपुरी में करनी पड़ेगी मेहनत , वरना साबित होगा पानीपत।
समाजवादी पार्टी को मैनपुरी में करनी पड़ेगी मेहनत , वरना साबित होगा पानीपत।
पत्रकार – गौरव मैत्रेय , न्यूज़नशा
हर जिंदा कौम अपना इतिहास कहां भूल सकती भला बीता हुआ कौन कैसे भूल पाएगा शायद इसीलिए पीछे झांकना बहुत जरूरी होता है ताकि आने वाली पीढ़ियां वह गलती ना दोहराएं जो पुरखों ने दोहराया था गर्मी धीरे धीरे –धीरे ठंड की ओर बढ़ रही थी 8 दिसंबर 2022 का दिन होगा दिल्ली से तकरीबन 350 किलोमीटर दूर एक नए राजनैतिक पानीपत के युद्ध का आरंभ होना था जिसमें उत्तर प्रदेश के भविष्य में बड़े बदलाव होने की संभावनाओं की सुगबुगाहट है उस दिन जो होगा तो उत्तर प्रदेश की तहजीब कुछ और ही होगी अगर उस राजनीतिक पानीपत की लड़ाई के स्थान की बात करें तो मैनपुरी जितनी बार नाम लो उतनी बार मुलायम सिंह यादव का चेहरा सबकी आंखों के सामने आ जाता है भारतीय राजनीति के दलदल के बीच रहकर इससे कैसे बचा जाए तो मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक सफर पर एक नज़र डाल सकते हैं मुलायम सिंह यादव सिर्फ एक नेता नहीं थे बल्कि राजनीति में कदम रखने से पहले पहलवान और शिक्षक भी थे
मुलायम सिंह यादव अपने राजनीतिक जीवन में 10 बार विधायक चुने गए और 7 बार सांसद भी रहे वे तीन बार उत्तरप्रदेश के सीएम बने वह 1996 से 1998 के दौरान देश के रक्षा मंत्री रहे थे 1989 में मुलायम पहली बार यूपी के मुख्यमंत्री बने थे। लेकिन नेताजी के देहांत के बाद अब अखिलेश पर बड़ी जिम्मेदारी सामने खड़ी है अखिलेश के सामने यादव परिवार को एकजुट रखने के साथ-साथ सपा के सियासी आधार और मुलायम के यादव और मुसलमान समीकरण को अपने कण्ट्रोल में रखने की बड़ी जिम्मेदारी है। अखिलेश के सामने आगे ऐसी कई चुनौतियां आने वाली है, जिसे नेताजी ने बड़े बखूबी से संभाल रखा था। अब देखना ये है कि अखिलेश यादव मैनपुरी के इस पानीपत युद्ध में जिम्मेदारियों को कैसे निभाते हैं वैसे मैनपुरी यादव परिवार की ही सीट है और इसी कुनबे का सिक्का जमा रहेगा। मुलायम सिंह यादव के निधन पर अखिलेश यादव को रोते बिलखते देखा गया।बाप का साया उठने का ग़म ही ऐसा होता है।
लेकिन मुलायम सिंह सिर्फ अखिलेश यादव पिता ही नहीं बल्कि उनके राजनीतिक गुरु और संरक्षक भी थे।इन तीनों का साया एक साथ उठने के सदमे से अखिलेश यादव कुछ ज्यादा टूटे हुए दिखे। पारिवारिक कलह के बावजूद पार्टी पर अपना वर्चस्व कायम करने में कामयाब रहे लेकिन अब मुलायम सिंह के जाने का बाद अखिलेश का ये सहारा छिन गया है। अब उनके सामने कई चुनौतियां है, जिनसे उन्हें पार पाना है। क्योंकि दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी 2024 के चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश की सीट पर पूरे दमखम के साथ अपने प्रत्याशी को उतारेगी कि कि उसे पता है कि मैनपुरी जैसी जगह पर उपचुनाव में यदि जीत हासिल कर ले तो 2024 के आम चुनाव में इसका बड़ा प्रभाव पड़ सकता है साथ ही वोट बैंक में सेंधमारी का प्रयास जरूर करेगी वैसे तो यादव मैनपुरी लोकसभा सीट पर विपक्ष की उम्मीदों की डोर यहां प्रभावी संख्या में है। मौजूदा शाक्य सहित अति पिछड़ी बिरादरी के वोटों से जुड़ती है। पिछले 26 साल से यहां विपक्ष ने उम्मीदवार के तौर पर चौहान या शाक्य चेहरे को ही उतारा है। तो बीजेपी कभी भी यहां पर यादव चेहरे के तौर पर किसी प्रत्याशी को कभी नहीं उतारेगी बीजेपी ने पिछले दो चुनावों में यहां प्रेम सिंह शाक्य को अपना उम्मीदवार बनाया था।
2019 के लोकसभा चुनाव में तो एसपी-बीएसपी के साथ होने के बाद भी मुलायम व प्रेम सिंह शाक्य के बीच जीत का अंतर 1लाख था। इसलिए, अखिलेश ने डिंपल की उम्मीदवारी घोषित करने से पहले इस सवाल का जवाब तलाशा और यादवों के गढ़ मैनपुरी में शाक्य बिरादरी से जिलाध्यक्ष बनाया, जिससे वोटों का समीकरण बेहतर किया जा सके।2022 के विधानसभा चुनाव में बनाए अपने ही गठबंधन को वो कायम नहीं कर पाए।बाद में हुए विधान परिषद के चुनाव और लोकसभा के उपचुनाव में भी उनके नेतृत्व में पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई। इसी ले सवाल उठ रहे है कि क्या मुलायम के बाद अखिलेश उनकी विरासत को उन्हीं के जलवे के मुताबिक संभालकर उसे आगे बढ़ा पाएंगे या एक फिर से इतिहास की पुरानी पानीपत की लड़ाई को मैनपुरी के उप लोकसभा चुनाव में दोहराना चाहेंगे ।