सरकारी सेवाओं पर भरोसे का सवाल !
पिछले दिनों पूर्वी और पश्चिमी दिल्ली के दो अस्पतालों के चिकित्सकों को स्वास्थ्य विभाग ने निलंबित कर दिया। उन पर आरोप था कि वे दवा
राजेश माहेश्वरी
पिछले दिनों पूर्वी और पश्चिमी दिल्ली के दो अस्पतालों के चिकित्सकों को स्वास्थ्य विभाग ने निलंबित कर दिया। उन पर आरोप था कि वे दवा कंपनी को फायदा पहुंचाने के लिए बाजार की दवा लिख रहे थे, जबकि वे दवाएं अस्पताल में भी उपलब्ध थीं। किसी शिकायत पर कार्रवाई होना और समस्या का समाधान होने में अंतर होता है। क्या उपलब्ध दवाओं की गुणवत्ता भी सरकार सुनिश्चित कर पा रही है? क्या सरकार निजी अस्पताल और गैर-सरकारी चिकित्सकों पर भी शिकंजा कस पा रही है? सच्चाई अब भी यही है कि आजादी के 75 साल के बाद भी सामान्य नागरिक का सरकारी स्कूल, सरकारी अस्पताल और सरकारी दवाओं की गुणवत्ता और अन्य सेवाओं पर अभी तक विश्वास नहीं जम पा रहा है।
शिक्षा पर ही छात्र और देश का भविष्य टिका होता है। जितनी अच्छी शिक्षा होगी, छात्र उच्च शिक्षा में उतना ही मेधावी होगा, लेकिन देश के अधिकतर सरकारी स्कूलों में शिक्षा राम भरोसे चल रही है। आये दिन ऐसी खबरें प्रकाश में आती रहती हैं। चंद अपवाद छोड़ दे तो सरकारी स्कूलों में बहुत मजबूरी में ही कोई अभिभावक अपने बच्चों को भेजना चाहता है। करोड़ों रुपये का बजट शिक्षा विभाग के कर्मचारियों और शिक्षकों पर हर साल खर्च होता है। खर्च के अनुपात में हासिल क्या हो रहा है वो कोई छिपा तथ्य नहीं है। सरकार भले ही लाख दावे करें लेकिन जमीनी हकीकत से सभी बावस्ता हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कई वर्ष पूर्व एक आदेश परित किया था कि सरकारी खजाने से वेतन पाने वाला हर व्यक्ति अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाएगा। लेकिन अदालत के इस आदेश पर कोई अमल नहीं हुआ।
सरकारी अस्पतालों में सुरक्षित प्रसव के पुख्ता इंतजाम होने के दावे किए जाते हैं। इसके प्रति गर्भवतियों में जागरूक करने के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं। आर्थिक मदद तक दी जाती है। बावजूद इसके प्रसव के लिए निजी क्लीनिकों पर आर्थिक भरोसा जताया जा रहा है। तभी तो सरकारी अस्पतालों में लक्ष्य के मुताबिक सिजेरियन आपरेशन नहीं हो रहे हैं। बिहार के औरंगाबाद में स्वास्थ्य विभाग के द्वारा वर्ष 2022-21 में जिले के 11 प्रखंडों में 2511 महिलाओं का सिजेरियन आॅपरेशन करने का लक्ष्य रखा गया था। परंतु मात्र 236 महिलाओं ने ही सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था पर भरोसा जताया। हद तो यह है कि सात प्रखंडों के सरकारी अस्पताल में एक भी सिजेरियन आपरेशन नहीं हुआ।
बीते जून को बिहार के नवादा जिले की चार हाथ पांव वाली बच्ची चैमुखी की तस्वीरें वायरल हुईं थीं। बच्ची का आपरेश होना था। नवादा का जिला प्रशासन और सिविल सर्जन चार हाथ पांव वाली बच्ची चैमुखी का ऑपरेशन कराने के लिए उसे खोजता रह गया। लेकिन वो कोई इंतजाम नहीं कर सका। जिसके बाद सोनू सूद और कई ऐसे समाजसेवी सामने आए। जिन्होंने चैमुखी के परिवार और मदद को हाथ आगे बढ़ाया। इस घटना से एक बात साफ हो गई है कि बिहार के लोगों को बिहार अधिकारियों के आश्वासन पर बिल्कुल भी भरोसा नहीं है। यहां के लोगों को न तो अपने जिलाधिकारी के आश्वासन पर भरोसा है, और न सिविल सर्जन पर। इसीलिए तो चैमुखी के परिवार और मुखिया पति ने चैमुखी का इलाज बिहार सरकार के खर्च पर कराने से बेहतर समाजसेवी अभिनेता सोनू सूद की शरण में जाना बेहतर समझा। ऐसे में सवाल बिहार के जिला प्रशासन से भी है और स्वास्थ्य विभाग से भी कि क्या छोटे से ऑपरेशन के लिए बिहार के लोगों को समाजसेवियों की मदद की जरूरत है?
बात केवल बिहार की नहीं है, बल्कि देश के हर राज्य मेें आपको ऐसे सैकड़ों मामले मिल जाएंगे जहां सरकारी व्यवस्था पर आम नागरिक भरोसा करने की बजाय अन्य विकल्प खोजता है। सही मायनों में ये स्थिति किसी भी लोकतांत्रिक और लोककल्याणकारी राज्य के लिए शर्म का विषय होना चाहिए। लेकिन हमारे यहां सरकारें केवल दावे करती रहती हैं और आम आदमी किसी न किसी तरीके से जीवन गुजार देता है। तस्वीर को दूसरा पक्ष यह भी है कि कई मामलों में सरकारी अमला बेहतरीन कार्य कर नागरिकों की प्रशंसा बटोरता है। लेकिन ऐसे मामले अंगुली पर गिने जा सकते हैं। मामला केवल भरोसे का है। सरकारी नीतियों को अमली जामा पहनाने की जिम्मेदारी जिन कंधों और हाथों पर होती है, वो अपनी डयूटी को पूरी ईमानदारी से निभाते नहीं हैं, इसलिए अविश्वास का वातावरण बनता है। भारत एक कल्याणकारी राज्य है, ऐसे में सरकार को नागरिकों के प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण ईमानादारी से निभाते हुए जन विश्वास को अर्जित करना चाहिए। जन विश्वास लोकतंत्र की शक्ति और पूंजी होता है।
-लेखक उत्तर प्रदेश राज्य मुख्यालय पर मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं।