राजनीति के मौसम विशेषज्ञ के घर का मौसम बिगड़ा; पासवान की पार्टी का चुनाव चिह्न जब्त,

अब चाचा-भतीजे में से किसे मिलेगा ‘बंगला’? जानिए सब कुछ

,

चुनाव आयोग ने लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) का चुनाव चिह्न ‘बंगला’ फ्रीज कर दिया है। ये फैसला पार्टी में दो गुटों के बीच चल रहे विवाद के बाद लिया गया। दरअसल, रामविलास पासवान के निधन के बाद रामविलास के बेटे चिराग और भाई पशुपति पारस के अलग-अलग गुट बन गए हैं। दोनों ही गुट पार्टी और उसके सिंबल पर अपना दावा कर रहे हैं। इसी महीने होने वाले उप-चुनाव के लिए दोनों पार्टी सिंबल चाहते थे।

आइए समझते हैं, चुनाव आयोग ने ऐसा क्यों किया? चुनाव चिह्न को देने का फैसला अब आयोग कैसे लेगा? जिसे चिह्न नहीं मिलेगा पार्टी के उस धड़े का क्या होगा? इस फैसले का 30 अक्टूबर को बिहार में होने वाले उप-चुनाव पर क्या असर पड़ेगा? इससे पहले कब-कब ऐसा हुआ है? और किसी राजनीतिक पार्टी को चुनाव चिह्न कैसे मिलता है?…

सबसे पहले चुनाव आयोग का फैसला समझ लीजिए
2 अक्टूबर को चुनाव आयोग ने लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) का चुनाव चिह्न ‘बंगला’ फ्रीज कर दिया। यानी अब पार्टी अपने चुनाव चिह्न का इस्तेमाल नहीं कर पाएगी। ये रोक तब तक लगी रहेगी जब तक कि आयोग दोनों गुटों के बीच विवाद का निपटारा नहीं कर देता।

आयोग ने ये फैसला क्यों लिया है?
दरअसल, लोजपा के संस्थापक और पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के निधन के बाद पार्टी में दो गुट बन गए हैं। एक तरफ उनके बेटे चिराग पासवान हैं तो दूसरी तरफ पार्टी के बाकी सांसदों ने रामविलास के भाई और चिराग के चाचा पशुपति कुमार पारस के साथ अलग गुट बना लिया है। दोनों में तनातनी चल रही है। दोनों ही गुटों की ओर से पार्टी के चिह्न को लेकर दावा किया जा रहा था। इसी विवाद को देखते हुए चुनाव आयोग ने ये फैसला लिया है।

तो क्या 30 अक्टूबर को होने वाले उप-चुनाव में दोनों गुट अपना उम्मीदवार नहीं खड़ा कर पाएंगे?
बिहार में दो विधानसभा सीटों पर 30 अक्टूबर को उप-चुनाव होने हैं। इनमें मुंगेर की तारापुर और दरभंगा की कुशेश्‍वरस्‍थान शामिल हैं। लोजपा के दोनों गुट इस उप-चुनाव में न तो पार्टी के चिह्न और न ही नाम का इस्तेमाल कर पाएंगे।
हालांकि, चुनाव आयोग ने दोनों गुट से कहा है कि वे उप-चुनाव के लिए नया नाम और नया चुनाव चिह्न निर्धारित करें। 4 अक्टूबर तक दोनों गुट को नया नाम और अपनी पसंद के 3 चुनाव चिह्न आयोग को सौंपना था। यानी दोनों गुट उप-चुनाव लड़ सकते हैं, लेकिन नए नाम और चुनाव चिह्न के साथ।

पार्टी का चुनाव चिह्न किसे मिलेगा, इसका फैसला कैसे होगा?
इलेक्शन सिंबल (रिजर्वेशन एंड अलॉटमेंट) ऑर्डर, 1968 के मुताबिक, एक मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल का हर गुट खुद को उस पार्टी का होने का दावा करता है, तो आयोग सभी उपलब्ध तथ्यों, परिस्थितियों और पार्टी के प्रतिनिधियों की सुनवाई को ध्यान में रखकर फैसला ले सकता है। ये नियम सभी मान्यता प्राप्त नेशनल और स्टेट पॉलिटिकल पार्टीज पर लागू होता है।
LJP के मामले में भी चुनाव आयोग इसी आधार पर फैसला लेगा। आयोग ने दोनों गुटों से कहा है कि वे अपने-अपने पक्ष में सभी सपोर्टिंग डॉक्युमेंट्स 5 नवंबर तक आयोग के पास जमा करें। उसके बाद ही आयोग फैसला लेगा।

जिस गुट को पार्टी का चुनाव चिह्न नहीं मिलेगा, उसका क्या होगा?
जिस गुट को पार्टी का चुनाव चिह्न नहीं मिलेगा, उसे एक नई पार्टी के तौर पर चुनाव आयोग के पास रजिस्ट्रेशन कराना होगा। हालांकि ये नया नियम है। इस नियम के लागू होने से पहले दोनों गुटों को अविभाजित पार्टी की तरह ही दर्जा दिया जाता था।
यानी अगर चिराग पासवान या पशुपति कुमार में से किसी एक को पार्टी का चुनाव चिह्न मिलता है, तो दूसरे को चुनाव आयोग के पास नए सिरे से पार्टी का रजिस्ट्रेशन करवाना होगा।

कैसे मिलता है किसी पार्टी को चुनाव चिह्न?
भारत का चुनाव आयोग राजनीतिक पार्टियों को चुनाव चिह्न भी आवंटित करता है। इसके लिए चुनाव आयोग ने इलेक्शन सिंबल (रिजर्वेशन एंड अलॉटमेंट) ऑर्डर, 1968 जारी किया है। देश के अंदर राजनीतिक पार्टियों और उम्मीदवारों को चुनाव चिह्न इसी के तहत आवंटित किया जाता है।

चुनाव आयोग के पास चुनाव चिह्नों की दो लिस्ट होती है। एक लिस्ट में वे चुनाव चिह्न होते हैं, जो बीते सालों में आवंटित किए जा चुके हैं। दूसरी लिस्ट में ऐसे चुनाव चिह्न होते हैं, जो किसी को भी आवंटित नहीं किए गए हैं। चुनाव चिह्न आमतौर पर इस तरह से लिए जाते हैं कि मतदाता उन्हें आसानी से पहचान जाएं।

पार्टियों को भी ये अधिकार दिया जाता है कि वे खुद अपनी पसंद का चुनाव चिह्न आयोग को सौंपे, जैसा कि अभी LJP के मामले में हो रहा है, लेकिन जरूरी नहीं है कि पार्टी का पसंदीदा चुनाव चिह्न उसे आवंटित कर ही दिया जाए। अगर किसी पार्टी के पास वह चुनाव चिह्न पहले से है, तो आयोग मना कर सकता है।

इससे पहले कब-कब ऐसा हुआ है?
1969 में कांग्रेस के बंटवारे के समय ऐसा हुआ था। मई 1969 में तत्कालीन राष्ट्रपति जाकिर हुसैन का अचानक निधन हो गया था। उस समय इंदिरा गांधी का कांग्रेस सिंडिकेट से विवाद चल रहा था। सिंडिकेट के नेता राष्ट्रपति पद पर अपने आदमी को बैठाना चाहते थे। इस वजह से इंदिरा के विरोध के बाद भी सिंडिकेट के नेताओं ने नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार मनोनीत कर दिया था।

दूसरी तरफ इंदिरा ने वीवी गिरी को राष्ट्रपति पद के लिए मनोनीत कर दिया। इसके बाद सिंडिकेट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पार्टी से निकाल दिया और कांग्रेस पार्टी दो गुटों में बंट गई। पहली, कांग्रेस (O) जो सिंडिकेट सदस्यों की पार्टी थी और दूसरा कांग्रेस (R) जो इंदिरा गांधी की पार्टी थी। कांग्रेस (O) को पार्टी का पहले से चला आ रहा चिह्न दिया गया और कांग्रेस (R) को नया चिह्न दिया गया। 1999 में जनता दल में विभाजन के बाद चुनाव आयोग ने ‘पहिये’ के निशान को जब्त कर लिया था। आयोग ने एक गुट को ‘हल चलाता किसान’ और दूसरे को ‘तीर’ आवंटित किया। इसके अलावा भी कई मौकों पर पार्टी में बंटवारे के बाद नए सिरे से चुनाव चिह्नों का आवंटन किया गया।

Related Articles

Back to top button