2024 में नरेंद्र मोदी के रथ को रोकने से पहले विपक्षी पार्टियों को जीतनी होगी ये ‘जंग’
नई दिल्ली. लुटियंस दिल्ली में विपक्षी नेताओं की मीटिंग (Opposition Meeting) का एक ही एजेंडा था- 2024 के लोकसभा चुनाव (2024 Loksabha Election) में नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के विजयी रथ को रोकना, लेकिन उससे पहले विपक्षी पार्टियों को एकजुट होकर 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव (UP Election 2022) में योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) की सत्ता में दोबारा वापसी को रोकना होगा, क्योंकि यूपी जीते बिना विपक्ष के लिए मोदी को रोक पाना संभव नहीं लगता. इस दलील पर बहस हो सकती है, लेकिन अभी तक ‘एकजुट विपक्ष’ के पास उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर कोई प्लान नहीं है. यूपी चुनाव मात्र 6 महीने दूर है, और विपक्ष को उम्मीद है कि अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) की अगुवाई वाली समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) बीजेपी को सत्ता विरोधी लहर के सहारे हराने में कामयाब रहेगी.
दूसरी ओर अखिलेश यादव ने साफ कर दिया है कि वह बेहद कमजोर कांग्रेस या मायावती की बसपा के साथ कोई गठबंधन नहीं करना चाहते हैं. ऐसे में यूपी चुनाव में त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिलेगा, और यह बीजेपी के लिए बेहद मुफीद साबित हो सकता है. अखिलेश यादव, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल की मेजबानी में हुई विपक्ष के वरिष्ठ नेताओं की मीटिंग में भी शामिल हुए थे, जहां यूपी चुनाव में अखिलेश यादव को समर्थन देने और उनके हाथों को मजबूत करने पर भी चर्चा हुई. लेकिन, अखिलेश यादव कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी की ओर से बुलाई गई विपक्षी नेताओं की हाई-प्रोफाइल मीटिंग में शामिल नहीं हुए… सपा नेता का इशारा साफ है कि बीजेपी के खिलाफ यूपी चुनाव उनकी अकेली लड़ाई है.
दूसरी ओर बसपा सुप्रीमो मायावती को मीटिंग के लिए निमंत्रित भी नहीं किया गया था, शायद उत्तर प्रदेश की प्रभारी और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के साथ उनके रिश्तों में असहजता और राजस्थान में कांग्रेस द्वारा बसपा के विधायकों को तोड़ने के बाद से मायावती के साथ कांग्रेस के रिश्ते में कड़वाहट देखने को मिली है.
यूपी चुनाव में जीत का समीकरण
राजनीतिक तर्कों को देखें तो उत्तर प्रदेश के त्रिकोणीय मुकाबले में एक पार्टी को सत्ता में आने के लिए तकरीबन 34 फीसदी वोट चाहिए होते हैं, जिससे कि वह बहुमत के आंकड़े (202 सीट) को पार कर जाती है. 2017 के यूपी चुनाव में बीजेपी को तकरीबन 40 फीसदी वोट मिले थे, और पार्टी अपने बलबूते पर 312 सीटों के आंकड़े तक पहुंच गई थी. यूपी में मतदाताओं के वर्ग की बात करें तो ये मुख्य तौर पर 6 हैं- सवर्ण वोटर, यादव, मुस्लिम, गैर-यादव ओबीसी, दलित और अत्यंत पिछड़ा वर्ग का वोटर, राजनीतिक दलील ये है कि यूपी में जो भी पार्टी मतदाताओं के दो समूह का वोट हासिल कर लेती है, उसे जीत मिल जाती है.
2017 के चुनाव में बीजेपी तीन से ज्यादा वोटर समूह के मत हासिल करने में सफल रही थी- इनमें गैर यादव ओबीसी, सवर्ण और अत्यंत पिछड़ा समुदाय के वोटरों ने बीजेपी को अपना समर्थन दिया. वहीं बीजेपी को दलित वर्ग से काफी संख्या में वोट मिले, जोकि चौंकाने वाला था. मुस्लिम वोट सपा-कांग्रेस गठबंधन और बसपा के बीच बंट गया, जबकि सपा के साथ गठबंधन के चलते कांग्रेस का सवर्ण वोटबैंक बीजेपी को चला गया.
इस बार ऐसी स्थितियां दिख रही हैं कि मुस्लिम वोटर सपा के पीछे एकजुट हो रहा है, शायद बिहार और बंगाल के चुनाव परिणाम से इस वर्ग ने सबक लिया है. बिहार में असदुद्दीन ओवैसी ने अपने उम्मीदवार खड़े करके मुस्लिम वोटों को बांट दिया, जिसके चलते आरजेडी-कांग्रेस को कई सीटों पर हार का सामना करना पड़ा, परिणाम स्वरूप बिहार में नीतीश और बीजेपी ने सत्ता में वापसी कर ली. वहीं बंगाल में मुस्लिम वोटरों ने कांग्रेस को छोड़ टीएमसी का साथ दिया.
अखिलेश का गणित
2022 के यूपी चुनाव में यादव और मुस्लिम वोटरों के सपोर्ट ने अखिलेश यादव की उम्मीदों को नए पंख दिए हैं, लिहाजा उन्होंने अकेले दम पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है. सपा नेता की सोच है कि वह बीजेपी से गैर यादव वोटर को अपने पाले में खींच पाने में सफल रहेंगे. इसके लिए उन्होंने यूपी में छोटी-छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन का फैसला किया है. वहीं मायावती को इस बात का एहसास हो गया है कि मुस्लिम वोटर उनके साथ नहीं है, लिहाजा बसपा ने ब्राह्मणों को अपने पाले में करने के लिए अभियान शुरू कर दिया है.
वहीं कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करने का फायदा भी अखिलेश यादव को मिल सकता है, क्योंकि कमजोर कांग्रेस भी बीजेपी के सवर्ण वोट बेस में सेंध लगा सकती है, जोकि अभी तक बीजेपी के साथ दिख रहा है. अखिलेश यादव कांग्रेस को बहुत ज्यादा सीटें देना भी पसंद नहीं करते. सपा , “कांग्रेस के साथ यूपी में गठबंधन नहीं करना ही असली गठबंधन है.” यह एक तरीके से बंगाल में टीएमसी और कांग्रेस के बीच अप्रत्यक्ष सहयोग की तरह है, जहां दोनों पार्टियां मुकाबले में थीं.
दूसरी ओर यूपी की सत्ता में काबिज बीजेपी के लिए टुकड़ों में बंटे विपक्ष से लड़ना आसान है, और इस चुनाव में गहरा ध्रुवीकरण देखने को भी मिलेगा. राम मंदिर निर्माण के चलते सूबे की बहुसंख्यक आबादी के बीजेपी का समर्थन करने की उम्मीद है. बीजेपी ने पहले से ही मुस्लिमों के समर्थन को लेकर समाजवादी पार्टी पर निशाना साधना शुरू कर दिया है, योगी आदित्यनाथ ने मुलायम सिंह यादव को अब्बाजान करार दिया, वहीं बीजेपी कह रही है कि अखिलेश यादव कल्याण सिंह को श्रद्धांजलि देने इसलिए नहीं आए क्योंकि वे अपने मुस्लिम वोटरों को नाराज नहीं करना चाहते थे.
बीजेपी को लगता है कि मुस्लिम वोट एकजुट किसी एक पार्टी नहीं जाएगा, क्योंकि यह सूबे के विभिन्न हिस्सों में बंटा हुआ है. योगी आदित्यनाथ ने हाल ही में लगातार प्रियंका गांधी और मायावती का जिक्र किया है, ताकि दोनों पार्टियों को मुख्य विपक्षी पार्टी के तौर पर दर्शाया जा सके. बीजेपी की कोशिश है कि सत्ता विरोधी वोट एकमुश्त समाजवादी पार्टी को ना मिले, बल्कि सभी विपक्षी पार्टियों में बंट जाए. बीजेपी को उम्मीद है कि उसके सहयोगी अपना दल और निषाद पार्टी अपने ओबीसी वोटबैंक को एकजुट बनाए रखेंगे.