Muslim women Alimony: तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को गुजारभत्‍ते का हक,क्या है पूरा मामला

10 जुलाई 2024** को भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जो मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों से जुड़ा है। इस फैसले को शाहबानो केस से जोड़कर देखा जा रहा है, जिसने भारतीय राजनीति और समाज पर गहरा असर डाला था। लेकिन क्या इस नए फैसले ने राजीव गांधी के बनाए कानून की व्याख्या को बदल दिया है?

10 जुलाई 2024** को भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जो मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों से जुड़ा है। इस फैसले को शाहबानो केस से जोड़कर देखा जा रहा है, जिसने भारतीय राजनीति और समाज पर गहरा असर डाला था। लेकिन क्या इस नए फैसले ने राजीव गांधी के बनाए कानून की व्याख्या को बदल दिया है? चलिए, इस फैसले की गहराई में जाकर समझते हैं कि यह नया निर्णय क्या मायने रखता है और इसके राजनीतिक और कानूनी पहलू क्या हैं।

  •  सुप्रीम कोर्ट का फैसला

सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच, जिसमें जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह शामिल थे, ने 10 जुलाई 2024 को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि मुस्लिम महिलाओं को भी अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है। कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 125 का हवाला देते हुए कहा कि यह धारा हर धर्म की शादीशुदा महिलाओं पर लागू होती है और मुस्लिम महिलाएं इससे अलग नहीं हैं। इस फैसले में शाहबानो के केस से मिलती-जुलती परिस्थितियों की झलक मिली, जहां 1985 में भी सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण का अधिकार मान्यता दी थी।

  •  शाहबानो केस का संक्षिप्त इतिहास

1985 में इंदौर की शाहबानो के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि उन्हें अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता मिलना चाहिए। तत्कालीन सरकार के दबाव में, राजीव गांधी ने संसद में मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार का संरक्षण) कानून, 1986 पारित किया। यह कानून मुस्लिम महिलाओं को तलाक के बाद केवल इद्दत की अवधि तक ही गुजारा भत्ता प्रदान करता था, और इससे अधिक का भरण-पोषण नहीं मिलता था।

  •  1986 का कानून और उसका प्रभाव

1986 का कानून मुस्लिम महिलाओं को तलाक के बाद इद्दत के समय तक ही गुजारा भत्ता प्रदान करता है, और इसके अतिरिक्त कुछ परिस्थितियों में दो साल तक भरण-पोषण की सुविधा देता है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने कई बार यह स्पष्ट किया है कि यह कानून सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण के अधिकार को प्रभावित नहीं करता है।

  • 10 जुलाई 2024 के फैसले की राजनीतिक परतें

10 जुलाई को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने कई सवाल खड़े किए हैं। क्या यह फैसला राजीव गांधी के बनाए कानून के खिलाफ है? सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि 1986 का कानून सीआरपीसी की धारा 125 पर कोई रोक नहीं लगाता। इसका मतलब यह है कि मुस्लिम महिलाएं सीआरपीसी के तहत भी भरण-पोषण का दावा कर सकती हैं।

इस फैसले ने एक नई सियासी बहस को जन्म दिया है। शाहबानो केस के बाद राजीव गांधी ने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दबाव में कानून को पलटा था। अब सवाल उठता है कि क्या पीएम नरेंद्र मोदी इस मामले में कोई हस्तक्षेप करेंगे। हालाँकि, मोदी सरकार ने पहले ही तीन तलाक पर कानून बनाकर मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की है। इसलिए, मोदी सरकार का इस फैसले पर कोई बड़ा हस्तक्षेप करने की संभावना कम है।

  •  निष्कर्ष

10 जुलाई 2024 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह शाहबानो केस की याद दिलाता है, लेकिन इसके साथ ही यह साबित करता है कि कानून में सुधार की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ कर दिया है कि मुस्लिम महिलाओं को सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण का अधिकार प्राप्त है, और इस फैसले ने राजनीतिक और सामाजिक बहस को पुनः हवा दी है। अब यह देखना होगा कि इस फैसले का वास्तविक प्रभाव समाज और राजनीति पर किस प्रकार पड़ता है।

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