दर्द का किस्सा:क्या दवा और उपचार की खुराक सिर्फ पुरुषों को ध्यान में रखते हुए बनाई गई है?
विज्ञान की मानें तो बच्चे को जन्म देते हुए मां को बीस हड्डियों के एक साथ टूटने जितना दर्द होता है। महिलाओं को होने वाला ये दर्द 57 डेल (दर्द नापने की इकाई) होता है। वहीं, पुरुष सिर्फ 45 डेल तक दर्द सह सकते हैं। इससे ज्यादा दर्द में उनकी मौत भी हो सकती है। हालांकि, ज्यादा दर्द सहने के बाद भी महिला मरीज की तकलीफ को डॉक्टर हल्के में लेते हैं, उनके दर्द को शिकायत माना जाता है। वहीं पुरुषों को चटपट दर्द की दवा दे दी जाती है।
तेज असर करने वाली पेनकिलर पर रिसर्च करने वाले डॉक्टर्स भी इसमें हामी भरते है। साल 1989 में अमेरिका के 10 अस्पतालों में बाईपास सर्जरी के मरीजों पर हुई रिसर्च में महिलाओं की बजाय पुरुषों के दर्द को लेकर डॉक्टर गंभीर दिखें। डाक्टरों ने पुरुष मरीजों को दर्दनिवारक दवाएं दी और महिलाओं को सिर्फ एक ही रोज दवा देकर काम चला लिया। इसी बात को लेकर साल 1996 में दोबारा रिसर्च हुई, इसमें भी अस्पतालों में पुरुषों के दर्द को ज्यादा तवज्जो दी गई। जब एक ही सर्जरी, एक ही जैसे दो इंसान, तो क्या वजह रही होगी कि सिर्फ पुरुषों का दर्द ही डॉक्टरों को दिखा। या फिर यूं कहे कि महिलाओं का दर्द मायने ही नहीं रखता है।
दर्द के विज्ञान में भूले महिलाओं की पीड़ा
कनाडा के टोरंटो मिसिसॉगा विश्वविद्यालय (यूटीएम) में नर और मादा चूहों में हुए एक शोध में पता चला था कि महिलाएं और पुरुष पहले के बुरे अनुभवों को अलग-अलग तरीके से याद रखते हैं। यानी नर चूहे दर्द से भरे अनुभवों को लेकर ज्यादा सेंसिटिव दिखें और मादा बेपरवाह नजर आई। शायद यही कारण है कि औरत को दर्द सहने की क्षमता को देख उसे चूहा समझकर कुचला जा रहा है। न जाने कितनी ही ऐसी शारीरिक और मानसिक तकलीफें है जो सिर्फ औरतों की हैं इसलिए उनपर बात नहीं होती। पुरुषों में दर्द के इस विज्ञान में महिलाओं की पीड़ा का गणित भूलते जा रहे है।
कोरोना महामारी के खिलाफ दवा कंपनियों ने वैक्सीन का ट्रायल गर्भवती या दूध पिलाती मांओं पर नहीं किया। मां या अजन्मे शिशु की हेल्थ को नुकसान का बहाना देकर टीके से दूर कर दिया। इतिहास के पन्नों में झांक कर देखे तो 1993 में अमेरिका में पहली बार महिलाओं को क्लिनिकल ट्रायल में शामिल किया गया था। इस दौरान भी शोधकर्ता इस बात पर चिंतित हो जाते थे कि महिलाओं के हॉर्मोन कहीं नतीजों को खराब न कर दें। तभी पुरुषों को ही डिफॉल्ट यानी सर्वस्वीकृत मनुष्य मानकर इस्तेमाल कर लेते थे। इसका मतलब ये भी है कि क्या दवा और उपचार की खुराक सिर्फ मर्दों को ध्यान में रखते हुए बनाई गई।
सिर्फ 33% महिलाओं को ही मिल पाती हैं स्वास्थ्य सेवाएं
बात सिर्फ दर्द तक सीमित नहीं है। स्वास्थ्य सुविधाएं भी महिलाओं की पहुंच से कोसों दूर है। जेएनयू और इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एप्लाइड सिस्टम्स एनालिसिस की रिसर्च में सामने आया है कि भारत में पुरुषों के लिए इनपेशेंट खर्च लगभग 24 हजार रुपये है, जबकि महिलाओं के लिए सिर्फ 16 हजार रुपये। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को अस्पताल में भर्ती करने पर बहुत कम खर्च किया जाता है। वहीं, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान और हार्वर्ड विश्वविद्यालय के अनुसार भारत में लैंगिक आधार पर भेदभाव के कारण महिलाओं की हेल्थ पर बुरा असर पड़ रहा है। इसे लेकर 2016 जनवरी से लेकर दिसंबर तक एम्स में इलाज कराने आए 23,77,028 मरीजों के रिकॉर्ड का अध्ययन किया, जिसमें ये बात सामने आई कि सिर्फ 33% महिलाओं को ही स्वास्थ्य सेवा मिल पाती है। वहीं, पुरुषों में यह दर 67% है। सबसे ज्यादा 31 से 44 वर्ष की उम्र की महिलाओं को लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। अब सोचने वाली बात ये है कि आखिर स्वास्थ्य के मुद्दों में ये भेदभाव किस आधार पर किया जाता है।
अब जरा बात करते है हार्ट प्रॉब्लम की। वैसे तो बीमारी लिंग भेद नहीं करती है, लेकिन प्रश्न उठता है कि हार्ट अटैक का खतरा, महिलाओं को ज्यादा होता है या पुरुषों को? कार्डियोलॉजिस्ट डॉ. सीमा सिंह बताती हैं कि महिलाओं और पुरुषों में हार्ट की बनावट का फर्क होने के चलते कुछ बीमारियां सिर्फ महिलाओं में होती हैं। इससे कोरोनरी आर्टरी डिजीज होने का खतरा बढ़ जाता है। यही महिलाओं में हार्ट अटैक की वजह बनती है। इन बीमारियों में एंडोमेट्रियोसिस, पॉलीसिस्टिक अंडाशय रोग और प्रेगनेंसी में होने वाली डायबिटीज और हाई ब्लड प्रेशर भी शामिल है। दुनिया भर में लगभग 20% लोग क्रोनिक डिजीज के चलते दर्द का अनुभव करते हैं, जिसमें ज्यादातर महिलाएं है। इन्हें छोड़कर महिलाओं में सेहत को लेकर वो खतरे तो है ही, जो पुरुषों में होते हैं, जैसे हाई शुगर, हाइ ब्लड प्रेशर, हाई कोलेस्ट्रॉल और मोटापा। बावजूद महिलाओं की बीमारी को रोने की आदत मानकर नजरअंदाज करना आम बात है और पुरुषों की मामूली खरोंच भी पहाड़ के समान बड़ी नजर आती है।
ये दर्द सिर्फ औरत समझ सकती है…
बीमारियों को छोड़ कुछ ऐसे भी दर्द है जिन्हें केवल एक महिला ही समझ सकती है। पीरियड के दौरान दर्द कुछ को ज्यादा होता है तो कुछ को कम। यूनिसेफ (UNICEF) की रिपोर्ट बताती है कि 2021 के पहले रोज दुनियाभर में करीब 3.7 करोड़ बच्चों ने जन्म लिया। UN की मानें तो रोज हर मिनट 250 बच्चे जन्म लेते हैं। यानी हर एक मिनट 250 मांएं प्रसव पीड़ा से गुजरती हैं। ऑपरेशन हो या नॉर्मल डिलवरी, बच्चे होने की खुशी में वो औरत अपने दर्द को पल-भर में भूल जाती है।

आखिर दर्द में कैसा भेद
दर्द में औरत और मर्द के बीच भेद का पता लगाने के लिए जर्मनी के रुइर विश्वविद्यालय के अस्पताल में 10,200 मरीजों के ऑपरेशन के आकड़ों को इकट्ठा किया गया, जिसमें कुल मिलाकर महिलाओं और पुरुषों के दर्द में ज्यादा फर्क नहीं देख गया। लेकिन ये बात सामने आई कि बड़े ऑपरेशन के बाद पुरुषों ने ज्यादा दर्द होने की बात कही, जबकि महिलाओं ने छोटे इलाज के बाद ज्यादा दर्द की शिकायत की। अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन जनरल ऑफ पर्सनैलिटी एंड सोशल साइकोलॉजी के मुताबिक महिलाएं काफी एक्सप्रेसिव होती हैं। दर्द हो या फिर खुशी की बात हो, चाहकर भी दबाकर या छुपा कर नहीं रख पातीं। उनका दर्द किसी न किसी तरीके से बयां हो जाता है।