बिकने के लिए खड़ा हूँ बताओ खरीदोगे…
- महोबा में सजता हैं इंसानों का बाजार और गवाह बनतें हैं हाथी पर सवार आल्हा
- कोई बिकता है घण्टे भर के लिए तो कोई बेच देता है खुद को दिनभर के लिए
- अतिगरीबी की मार से बेहाल खुद खड़े होकर लगवातें हैं अपनी बोली
- खरीददार को घेर लेतें हैं मुसीबत के मारे हर कोई कहता है कि साहब मैं बिकाऊ हूँ
- हांथो में सूखी रोटियां और तन पर गन्दे कपड़ों से होती है बिकने वालों की पहचान
- बदहाल बुन्देलखण्ड के बेहाल किसानों का एक कड़ुआ सच है ये भी
- भूख बदहाली और तिरस्कार के मारों की है ये मंडी
महोबा : सारे बाजार एक तरफ और इंसानों का बाजार एक तरफ । सुनकर ही बड़ा अजीब लगता है कि भला अब भी हिंदुस्तान में इंसान बिक़तें हैं । जी हां मैं उसी हिंदुस्तान की बात कर रहा हूँ जिसने अब चांद तक अपनी पहुच बना ली है । काफी विकसित हो चुका है भारत लेकिन कान खोलकर इस कड़ुए सच को भी जान लीजिए साहब । की इसी हिंदुस्तान में आज भी इंसान चंद कागज के नोटों के लिए मजबूरी में बिक जातें हैं । जिसका गवाह बनता है बुन्देलखण्ड का अति पिछड़ा जिला जिसे वीर आल्हा ऊदल की नगरी महोबा के नाम से पूरी दुनिया जानती है।
आल्हा चौक पर लगता है इंसानों का बाजार और आल्हा की प्रतिमा के सामने बिक जातें हैं आल्हा की ही नगरी के वीर बुंदेले। गरीबी भुखमरी और सूखे की मार से जूझने वाले मजबूर बिकाऊ बुंदेलों से सजता है ये इंसानी बाजार। कभी कोई खरीददार यहां से किसी को कुछ घण्टे के लिए बोली लगाकर ले जाता है। तो कभी कोई पैसेवाला किसी मजबूर की बोली लगाकर दिहाड़ी पर उसको दिनभर का अपना गुलाम बना लेता है। इस बाजार की खास बात ये है कि यहां बिकने वाला ही खरीददार से बोलता है कि साहब मैं बिकाऊ हूँ। जितने भी बिकाऊ इंसान उस मंडी में मजबूरीवश अपनी बोली लगवातें हैं ज्यादातर उनमे बुंदिली किसान ही होतें हैं । पिछले कई वर्षों से जहां इस धरा का किसान अपने बिगड़े हुए हालातों से लड़कर हार चुका है।
वहीं कुछ ऐसे भी इनमें शामिल हैं जिनके एक दिन भी मजदूरी न करने पर उनका परिवार भूख को चादर समझ कर ओढ़ लेता है और भर लेता है उस दिन पानी से अपना पेट। चेहरे पर मजदूरी की कशमकश लिए हर सुबह आकर खड़ें हो जातें हैं। यहां इंशान ज्यादातर की निगाहें चौराहे से गुजरने वाले राहगीरों पर होतीं हैं । बिकने वाले कि मंशा यही होती है कि कोई खरीददार आकर ले जाये उसे ताकि मिल जाये उसे एक दिन की मजदूरी और भर जाए उसके भूखे परिवार का पेट। इस बाजार में सिर्फ नोजवान ही नही आतें हैं कभी कभार कुछ बूढ़े बुजुर्ग मजदूर भी इस बाजार में अपने झुके हुए कंधे लेकर मजबूरी भूख और बेबसी को छुपाने की नाकाम कोशिश करते हुए इस इंसानों के बाजार का ना चाहते हुए भी हिस्सा बन ही जातें हैं । किसी के घर मे छत नही है । तो किसी की बूढ़ी मां और बच्चें हैं ।
किसी को अपनी बेटी की शादी की चिंता है । तो कोई खुद घर से निकाला हुआ है । किसी के खेत में फसल नही होती है तो कोई अपने परिवार की भूख मिटाने चाहता है । इंसान की रूह को झझोर कर रख देने वाली परिस्थितियों के मारे ही इस बाजार में अपनी शिरकत दर्ज कराकर इसकी शोभा बढ़ातें हैं । इस मंडी में देने वाले हर शख्श के चेहरे पर मुर्झाहट आंखों में आस और खाली पेट भूख की तड़प और परेसानी को बयां करता है । शरीर पर गन्दे कपड़े और हांथों में एक पोटली इस बात की गवाही देती है कि हाल फिलहाल तो सूखी रोटियों की व्यवस्था किसी ना किसी तरह हो गयी है अगर आज मजदूरी नही मिली तो कल का इंतजाम नही हो पायेगा । जिसको मजदूरी मिल जाती है वो खुश और जिसको नही वो दुखी होकर शाम को अपने घर की तरफ मुड़ जाता है । रही सही कसर हमारे नेता उनकी बेबसी की तरफ ध्यान ना देकर पूरी कर देतें हैं ।
चुनाव जीतने से पूर्व किये गए लम्बे चौड़े वादे चुनाव जीतने के साथ ही पूर्व की भांति हर बार गर्त में कही खों जातें हैं और जलता रह जाता है तो बस गरीबी की मजार में भुखमरी का दिया । ऐसा ही सालों से चलता आया है ये बाजार और भविष्य में कितने वर्ष और चलेगा ये तो आने वाला कल ही बताएगा । हाल फिलहाल तो इंसानों की मंडी वैसे ही सज रही है जैसे काफी पूर्व से सजती आई है । बुंदेली शौर्य और पराक्रम का प्रतीक माने जाने वाले आल्हा ऊदल अगर आज जीवित होते तो शायद उन्हें भी ये बात नागवार गुजरती की जिस धरती के स्वाभिमान शौर्य और पराक्रम के चर्चे विदेशों तक मे सुने सुनाए जातें हैं । उसी धरा का मजबूर किसान अपनी पीड़ा को रो रो कर बतलाता है कि बिकने के लिए खड़ा हूँ बताओ खरीदोगे…