माध्यमों की भाषा कमज़ोर पड़ी है।

माध्यमों की भाषा कमज़ोर पड़ी है।

माधव राव सप्रे स्मृति समाचार पत्र राष्ट्रीय संग्रहालय ने एक अभिनव प्रयोग किया । संस्थान ने पत्रकारिता के तमाम रूपों में प्रयुक्त हो रही भाषा पर एक परिसंवाद किया । इसमें मुद्रित , टेलिविजन ,रेडियो और डिजिटल माध्यमों में इन दिनों प्रचलित भाषा की पड़ताल की गई । मुद्रित माध्यमों की भाषा पर वरिष्ठ कवि और पत्रकार सुधीर सक्सेना ,डिजिटल माध्यमों के सभी अवतारों पर प्रोफ़ेसर दिवाकर शुक्ला और रेडियो तथा टीवी की भाषा पर मुझे अपनी बात कहने का अवसर मिला ।
यूं तो इस व्यापक विषय पर गंभीर विमर्श के लिए क़रीब एक सप्ताह का समय चाहिए ,फिर भी सभी वक्ताओं ने सीमित अवधि में बेहतर ढंग से अपनी बात रखी । मैने अपने विषय में रंगमंच की भाषा को भी जोड़ा क्योंकि एक ज़माने में पारसी थिएटर,नौटंकी और रामलीलाओं की भाषा ही शुरूआती दौर में परदे की भाषा बनी थी । आलमआरा, मुग़ल ए आज़म और तीसरी कसम ऐसी ही कलजयी फिल्में हैं । इसी कालखंड में आज़ाद भारत के रेडियो ने अंगड़ाई ली और सुनी जाने वाली भाषा ने आकार लिया । टीवी की भाषा में भी समय समय पर बदलाव होते रहे । उस पर तकनीक ने भी काफी असर डाला । इस तरह लिखी जाने वाली,सुनी जाने वाली और देखी जाने वाली भाषा अस्तित्व में आई । लेकिन इन सभी माध्यमों की भाषा में पढ़ने की आदत छूटी है । यदि आज की पीढ़ी प्रेमचंद, रेणु और शरद जोशी को ही पढ़ ले तो संकट काफी हद तक दूर हो सकता है ।


इस जलसे में संग्रहालय के मुखिया विजय दत्त श्रीधर ने संस्थान के अतीत की कहानी प्रस्तुत की । स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के मुख्य महाप्रबंधक विनोद मिश्र ने बैंकिंग और व्यावसायिक उपक्रमों की भाषा पर विचार व्यक्त किए । अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार एन के सिंह ने की । संचालन पत्रकार ममता यादव ने किया । संस्थान की प्रतियोगिताओं में अव्वल रहे छात्र छात्राओं को भी सम्मानित किया गया । कार्यक्रम के दरम्यान ही जबलपुर के पत्रकार साथी पंकज पटेरिया के असामयिक निधन की ख़बर आई । उन्हें श्रद्धांजलि दी गई । चित्र इसी अवसर के हैं ।

जर्नलिस्ट – राजेश बादल

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