जानिए पहली बार कैसे 1928 के ओलंपिक में पहुंची भारतीय हॉकी टीम और गोल्ड जीता था

भारत ने 41 सालों में पहली बार ओलंपिक हॉकी में कांस्य पदक जीता. ये उस देश के लिए बहुत बड़ी बात है, जो एक जमाने में ओलंपिक खेलों में केवल हॉकी के कारण ही जाना जाता था. कहना चाहिए कि ये तोक्यो ओलंपिक भारतीय हॉकी टीम के लिए एक बड़ा मोड़ होगा. जानते हैं कि जब भारतीय टीम ने पहली बार वर्ष 1928 के ओलंपिक में हिस्सा लिया था तो वो कैसे संभव हो पाया था. ये वही ओलंपिक था जब ध्यानचंद का जादू छा गया था. भारतीय हॉकी टीम के पास ओलंपिक में जाने लायक पैसा नहीं था, इसे कोलकाता शहर ने इकट्ठा करके दिया था.

भारतीय हॉकी के सफर की जब भी बात होती है तो हमेशा याद रखना चाहिए कि किस मुश्किल से हमारी हॉकी टीम तब बनी थी. फिर चुनी गई. ओलंपिक के लिए जाने के लिए भारतीय टीम के पास तब वास्तव में ना तो तरीके से कपड़े थे और ना ही पर्याप्त धन. यहां ये भी गौरतलब है कि 1928 के ओलंपिक में भारतीय ओलंपिक संघ के अनुरोध के कारण ही हॉकी को दोबारा ओलंपिक में शामिल किया गया था, अन्यथा उसे तो हटाया ही जा चुका था.

ओलंपिक टीम चुनने के लिए कोलकाता में प्रतियोगिता हुई
अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ ने भारत के अनुरोध को मान लिया और हॉकी को दोबारा ओलंपिक खेलों में जगह मिल गई. भारत ने इसमें अपनी टीम भेजने का फैसला किया. समस्या ये थी कि किस तरह देश की सर्वश्रेष्ठ टीम चुनी जाए बल्कि किस तरह चयन प्रतियोगिता की जगह तय की जाए. भारतीय हॉकी संघ ने कोलकाता (तत्कालीन नाम कलकत्ता) में परीक्षण मैच कराने का फैसला किया.

ध्यानचंद ने अपनी आत्मकथा गोल में कई बार जिक्र किया है कि वह अपने जीवन में अंग्रेजों की दो बातों से बहुत प्रभावित रहे. पहला ये कि अंग्रेज खिलाडिय़ों और सैनिक अधिकारियों ने औपनिवेशिक काल और नस्ली श्रेष्ठता के दौरे में भी हॉकी खेल को भेदभाव और रंगभेद से दूर रखा. उन्होंने बगैर पक्षपात उन खिलाडिय़ों को सेना की टीम में जगह दी, जो इस लायक थे. इस टीम में ध्यानचंद को भी शामिल किया गया. ओलंपिक खेलों में भाग लेने के लिए भारतीय खिलाडिय़ों को चुनना अंग्रेजों की खेल के प्रति बेहतर भावना को भी दर्शाता है. भले ही अंग्रेजों ने भारतीय राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में दमन और शोषण का रवैया अपनाया लेकिन खेल को इससे दूर रखा.

कोलकाता की आभारी रहनी चाहिए भारतीय हॉकी
दूसरी बात जिसके प्रति ध्यानचंद हमेशा आभारी रहे, वो कोलकाता शहर था, क्योंकि इस शहर ने अगर तब भारतीय हॉकी का आगे बढक़र सहयोग नहीं किया होता तो कौन भारतीय हॉकी और ध्यानचंद को जानता. उसके सहयोग के बगैर न तो तब भारतीय हॉकी चयन प्रतियोगिता ही हो पाती और न भारतीय टीम ओलंपिक में जा पाती. हॉकी को लोकप्रिय बनाने में बंगाल और कोलकाता की खास भूमिका रही है. बंगाल हॉकी संघ देश का सबसे पुराना हॉकी संघ था.

कैसे हुई सेलेक्शन के लिए अंतरप्रांतीय प्रतियोगिता
ओलंपिक के लिए भारतीय हॉकी टीम की चयन प्रतियोगिता कोलकाता में होनी तय हुई. ये जगह इसलिए भी मुफीद मानी गई क्योंकि उस समय भारतीय हॉकी संघ को पैसे की बहुत जरूरत थी, जिसकी पूर्ति बंगाल से ही संभव थी. पहले अंतरप्रांतीय हॉकी टूर्नामेंट में पांच प्रांतीय टीमों ने शिरकत की. बंगाल हॉकी संघ ने हरसंभव कोशिश करके इस प्रतियोगिता को सफल आयोजन में बदल दिया. इसमें आर्थिक पहलू की भूमिका सबसे ज्यादा अहम थी.

यूपी ने ये टूर्नामेंट जीता था
इस टूर्नामेंट में फाइनल में दो टीमें पहुंची-संयुक्त प्रांत और राजपूताना. फाइनल मैच संयुक्त प्रांत की टीम के लिए अविस्मरणीय दिन साबित हुआ. उसने ये मैच जीतकर पहली बार राष्ट्रीय चैंपियन बनने का गौरव हासिल किया. हालांकि यूपी टीम को लगातार तीन दिनों में तीन मैच खेलने पड़े थे. वह बुरी तरह थक चुकी थी लेकिन इसके बाद भी उन्होंने अपने जज्बे को बनाए रखा. अब तो दुनिया की शायद ही कोई ऐसी टीम हो जो लगातार तीन दिनों में तीन मैच खेलकर अपनी श्रेष्ठता को बरकरार रख पाए. फाइनल मैच यूपी ने 3-1 से जीता.

हर कोई ध्यानचंद के खेल का दीवाना हो गया
फाइनल मैच तक हर कोई ध्यानचंद के खेलकौशल का दीवाना हो चला था. हर किसी को लगने लगा था कि वह खिलाड़ी से कहीं ज्यादा विलक्षण खिलाड़ी हैं. उन्होंने जैसा खेल दिखाया, उसके आसपास भी दूसरा कोई खिलाड़ी नहीं था. ये भारतीय टीम के लिए वरदान कहा जाएगा कि उन्हें ऐसा खिलाड़ी मिल गया था.
प्रतियोगिता के आधार पर 13 खिलाडिय़ों की उस टीम को चुना गया, जिसे अम्सर्टडम ओलंपिक में शिरकत करना था

तब बंगाल से जुटाया गया टीम के लिए धन
असल समस्या धन की थी. बगैर इसके सभी खिलाडिय़ों का ओलंपिक जाना संभव नहीं दीख रहा था. दो खिलाडिय़ों के जाने के लिए जरूरी धन अभी नहीं जुट पाया था. भारतीय हॉकी संघ ने देशभर में कोष के लिए अपील की. कम से कम 15 हजार रुपए की राशि कम पड़ रही थी. उस जमाने के लिहाज से ये छोटी-मोटी रकम भी नहीं थी. ऐसे समय में भी बंगाल ने इस धनराशि को जुटाकर भारतीय टीम की जाने की मुकम्मल व्यवस्था कर दी.

इस तरह साधनविहीन और सुविधाविहीन भारतीय हॉकी टीम वर्ष 1928 के ओलंपिक में जाने की तैयारियों में जुट गई. उन दिनों खिलाडिय़ों को अपनी किट और गर्म कपड़ो की व्यवस्था खुद करनी होती थी. लिहाजा हर खिलाड़ी इसे पूरा करने में लग गया. ध्यानचंद के परिवार में खुशी का माहौल था. वह एक बार फिर से विदेश यात्रा पर जा रहे थे. वह भी राष्ट्रीय टीम में सेलेक्ट होकर. उन्हें बधाइयां मिल रही थीं.रेजीमेंट के साथियों और अफसरों ने उन्हें बधाई दी और उम्मीद जाहिर की वह ओलंपिक में अच्छा प्रदर्शन करेंगे. किसे पता था कि भारतीय हॉकी टीम पहली बार ओलंपिक में हिस्सा लेने ही नहीं जा रही है बल्कि इतिहास बनाने जा रही है. खेलों का नया स्वर्णिम अध्याय ये टीम खोलने वाली है.

कैसर ए हिन्द जहाज से रवाना हुई हॉकी टीम
हॉकी टीम जब 10 मार्च 1928 को ये कैसर ए हिन्द जहाज पर सवार होकर जब मुंबई से रवाना हुई तो महज तीन लोग उन्हें विदा करने आए थे. ये तीन लोग थे भारतीय हॉकी संघ के अध्यक्ष बर्न मुर्डोक, उपाध्यक्ष चार्ल्स न्यूहैम और बंगाल हॉकी संघ के संस्थापक एस भट्टाचार्य. जहाज चल पड़ा. तीन सप्ताह समुद्र की लहरों को चीरकर जहाज आगे बढता रहा. इसका अगला पड़ाव था इंग्लैंड का तिलवरी बंदरगाह, जहां भारतीय हॉकी टीम को उतरना था. इंग्लैंड में कुछ प्रदर्शन मैचों में हिस्सा लेना था.भारत ने यहां 11 मैच खेले, नौ मैच जीते, एक हारे और एक ड्रा हुआ.

अंग्रेजों के घंमड को चूर-चूर करके रख दिया
अंग्रेजों को लगता था कि इन अभ्यास मैचों में भारतीय टीम की बुरी दुर्गति होगी. इसके बाद भारत को हराकर ब्रिटेन की टीम जब ओलंपिक में जाएगी तो उसके हौसले पूरी तरह बुलंद होंगे. लेकिन हुआ उल्टा-ध्यानचंद की अगुवाई में भारत ने ब्रिटेन में उनकी टीम को इस कदर धोया कि उनके सिर झुक गए

एम्सटर्डम ओलंपिक में पहला मैच
इंग्लैंड में शानदार प्रदर्शन से भारतीय टीम उत्साह में भर गई. उसका आत्मविश्वास इंग्लैंड दौरे में हासिल जीत ने खूब बढ़ाया. जब टीम ओलंपिक में पहुंची तो उसका खेल और आत्मविश्वास दोनों ही निखरा हुआ था. सारे खिलाड़ी चुस्त दुरुस्त थे. एम्सर्टडम ओलंपिक में भारत का पहला मुकाबला आस्ट्रिया एकादश से था. भारत को छह गोलों से जीत मिली. ध्यानचंद ने चार गोल करके प्रतिद्वंद्वी टीमों के लिए खतरे की घंटी बजा दी.

ध्यानचंद का जादुई खेल
अगला मैच बेल्जियम से था. इसमें भारत ने बेल्जियम को 9-0 से हराया. 20 मई को भारतीय टीम ने डेनमार्क को 5-0 से पराजित किया. भारतीय टीम के तेजतर्रार खेल और ध्यानचंद जैसे जबरदस्त फारवर्ड का कोई तोड़ किसी भी टीम के पास नहीं था. भारत तीन मैच खेल चुका था. किसी में भी उसके ऊपर एक भी गोल हो सका था. आगे होने वाले सेमीफाइनल और फाइनल मैचों की कहानी भी यही रही.

फिर आय़ा फाइनल मैच और इतिहास बन गया
सेमीफाइनल मैच स्विटजरलैंड के खिलाफ 22 मई को खेला गया, जिसमें प्रतिद्वंद्वी टीम को भारत ने 6-0 से रौंद दिया. फाइनल मैच 26 मई को हालैंड के खिलाफ था. फाइनल मैच से पहले भारतीय टीम के कई खिलाड़ी बीमार हो गए. खुद ध्यानचंद को तेज बुखार था. इसके बाद भी उन्होंने तय कर लिया था कि वह मैदान में जरूर उतरेंगे. वह मैदान में उतरे. वह एक सैनिक थे और सैनिक की तरह ये मैच उनके और देश के लिए करो या मरो वाला मुकाबला था.

मैच जबरदस्त हुआ. हालैंड की टीम ने भी कड़ा संघर्ष किया. आखिरकार भारत को 3-0 से जीत मिली, जिसमें दो गोल ध्यानचंद ने किए. इस तरह भारत ने इतिहास बना लिया. भारतीय हॉकी टीम ने ओलंपिक का पहला स्वर्ण पदक जीतकर एक ऐसा सफर शुरू किया, जिसकी धमक दशकों तक सुनाई देने वाली थी. इस जीत ने भारत और भारतवासियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसा सम्मान दिया, जिसके वो वाकई हकदार थे. भारतीयों ने अपनी श्रेष्ठता साबित कर दी थी.

मुंबई में स्वागत के लिए भीड़ उमड़ आई
भारतीय टीम फिर इंग्लैंड होते हुए भारत लौटी. भारत में जब ये लौटी तो उसके स्वागत के लिए नजारा ही बदला हुआ था. जब भारतीय टीम ओलंपिक के लिए रवाना हुई थी तो उससे किसी को कोई उम्मीद नहीं थी और महज तीन लोग उसे विदा करने गए थे। अब वापसी पर बंबई का माले स्टेशन खचाखच भरा हुआ था, जिधर देखो उतर सिर ही सिर नजर आ रहे थे. हर कोई भारतीय हॉकी टीम के जादूगर को एक नजर देख लेना चाहता था.

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