जानिए द्रौपदी मुर्मू के बारें में सबकुछ, आखिर बीजेपी ने क्यों बनाया राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार

भारत के पूर्वी हिस्से से आने वालीं एक आदिवासी महिला. अगर चुनाव जीत जाती हैं, जिसकी प्रबल संभावना भी है, तो भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पद तक पहुंचने वाली वो पहली आदिवासी होंगी.

Draupadi Murmu भारत के पूर्वी हिस्से से आने वालीं एक आदिवासी महिला. अगर चुनाव जीत जाती हैं, जिसकी प्रबल संभावना भी है, तो भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पद तक पहुंचने वाली वो पहली आदिवासी होंगी. इधर नड्डा ने द्रौपदी मुर्मू के नाम का ऐलान किया, उधर धड़ाधड़ इंटरनेट पर द्रौपदी मुर्मू के बारे में जानकारी तलाशी जाने लगी. ये बात गूगल ट्रेंड्स के ग्राफ में नज़र भी आती है. इसका मतलब जनता की पहली जिज्ञासा तो यही है कि द्रौपदी मुर्मू आखिर हैं कौन?

Draupadi Murmu जानिए कौन हैं द्रौपदी मुर्मू?

आपको  द्रौपदी मुर्मू ओडिशा के मयूरभंज ज़िले से ताल्लुक रखती हैं. गांव का नाम है बैडापोसी. संथाल आदिवासी समाज से आने वाली मुर्मू ने बीए की पढ़ाई के बाद ओडिशा सरकार के सिंचाई और बिजली विभाग में बतौर जूनियर असिस्टेंट काम किया. फिर 3 साल तक उन्होंने बच्चों को पढ़ाया. फिर राजनीति की छात्र हो गईं – थ्योरी वाली नहीं, प्रैक्टिकल वाली. वो भाजपा के साथ जुड़ीं और 1997 में उन्होंने मयूरभंज के रायरंगपुर से पार्षदी का चुनाव जीत लिया.

इसके बाद जैसे-जैसे वक्त बीता, मुर्मू आगे ही गईं. साल 2000 में भाजपा और बीजू जनता दल ने साथ चुनाव लड़ा, तो इसका फायदा मुर्मू को भी मिला. उन्हें रायरंगपुर से टिकट मिला और नवीन पटनायक की लहर में वो जीत कर कैबिनेट में शामिल हो गईं. भाजपा ने भी उन्हें धीरे-धीरे आगे बढ़ना शुरू कर दिया. साल 2002 से लेकर 2015 के बीच वो भाजपा अनुसूचित जनजाति मोर्चो में लगातार बनी रहीं – कभी नेशनल एग्ज़ीक्यूटिव के पद पर तो कभी सूबा अध्यक्ष पद पर.इस बीच उन्होंने विधायकी का दूसरा चुनाव लड़ा. साल था 2009. लेकिन इस बार भाजपा और बीजू जनता दल ने अलग-अलग चुनाव लड़ा और भाजपा का प्रदर्शन बुरी तरह गिरा. बावजूद इसके, मुर्मू ने अपनी सीट पर जीत दर्ज कर ली.

Draupadi Murmu जानिए कब चर्चा में आई द्रौपदी मुर्मू

राष्ट्रीय स्तर पर द्रौपदी मुर्मू का नाम तब चर्चा में आया जब नरेंद्र मोदी सरकार ने उन्हें 2015 में झारखंड का राज्यपाल बनाया. झारखंड के लिए वो जीके का सवाल भी बन गईं क्योंकि झारखंड के राजभवन में पहली बार किसी आदिवासी महिला को नियुक्त किया गया था. उस वक्त सूबे में रघुबर दास की भाजपा सरकार थी. 2017 में रघुबर दास सरकार ने छोटा नागपुर लैंड टेनेंसी एक्ट 1908 और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट 1949 को बदलने की कोशिश की. इन कानूनों के तहत एक आदिवासी अपनी ज़मीन दूसरे आदिवासी को ही बेच सकता था. मकसद बताया गया कि विकास और निवेश के रास्ते खुलेंगे. लेकिन रघुबर दास इसके लिए जो अध्यादेश लाए, उसका खूब विरोध हुआ. और इसी के नतीजे में शुरू हुआ पत्थलगढ़ी आंदोलन. आदिवासी इलाकों में जगह-जगह पत्थर गड़ाकर आदिवासी अधिकारों को लेकर संविधान तथा न्यायालय के फैसलों को लिखा जाने लगा. आंदोलन उग्र हुआ तो जगह-जगह हिंसा होने लगी. दास सरकार मौके की नज़ाकत को समझ नहीं पाई और उसने आंदोलनकारी आदिवासियों पर राजद्रोह की धाराएं लगानी शुरू कर दीं.

Draupadi Murmu द्रौपदी मुर्मू पर आरोप, आंदोलन के दौरान खामोश रहीं

जब ये सब हुआ, तब सारी नज़रें राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू की तरफ ही थीं. क्यों? क्योंकि झारखंड के कई इलाके संविधान की पांचवीं अनुसूचि के तहत आते हैं. और पांचवी अनुसूचि के तहत भारत का संविधान आदिवासी पहचान के संरक्षण के लिए विशेष नियमों की व्यवस्था करता है. पांचवीं अनुसूचि के तहत राज्यपाल को भी विशेष शक्तियां दी गई हैं. ताकि वो आदिवासियों के संरक्षण हेतु, संसद या विधानसभा से पारित कानून पर अपने विवेक का इस्तेमाल करें. आदिवासी परंपरा के मुताबिक कानून या कानून के हिस्सों को लागू करें, या रोकें. लेकिन आरोप लगा कि द्रौपदी मुर्मू आंदोलन के दौरान खामोश रहीं. झारखंड को कवर करने वाले पत्रकार बताते हैं कि हालात बिगड़ते देख भाजपा नेता और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा सामने आए. उन्होंने सरकार और संगठन से ये कहा कि आदिवासियों को लेकर रघुबर दास सरकार को अपने रुख पर पुनर्विचार करना चाहिए. और तब जाकर द्रौपदी मुर्मू ने खूंटी इलाके के मुंडाओं और मांकियो के साथ बैठक की. मुंडा और मांकी – आदिवासी परंपरा के ग्रामप्रधानों को कहते हैं. मुर्मू ने रघुबर दास सरकार से अध्यादेश पर जवाब तलब कर लिये. उन्होंने पूछा कि सरकार ये बताए कि प्रस्तावित अध्यादेश से जन कल्याण का मकसद कैसे पूरा होगा.

मुर्मू ने आदिवासी समाज को राजभवन में दावत दी

दिल्ली और रांची में एक ही पार्टी की सरकार होने के बावजूद राजभवन से कानून वापस आने का मर्म रघुबर दास सरकार ने भी समझा और दोबारा अध्यादेश को राजभवन नहीं भेजा. इस वाकये के बाद भी समय-समय पर मुर्मू ने आदिवासी समाज को राजभवन में दावत दी, और उनकी चिंताओं को सुना. रघुबर दास के बाद झारखंड के मुख्यमंत्री बने झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन. और तब राजभवन और मुख्यमंत्री कार्यालय के बीच संबंध तेज़ी से बेहतर हुए. सोरेन और मुर्मू, दोनों संथाल हैं और दोनों के बीच अच्छे संबंध हैं. सोरेन उन्हें आदरपूर्वक ‘फुआ’ यानी बुआ भी कह देते हैं. रांची के पत्रकार बताते हैं कि मुर्मू अपने कार्यकाल के पूरे होने पर जब रवाना हो रही थीं, तब उन्हें विदा करने वालों में प्रोटोकॉल स्टाफ से इतर, जितने भाजपा कार्यकर्ता नहीं थे, उतने झारखंड मुक्ति मोर्चा के लोग थे.

जानें द्रौपदी मुर्मू के उम्मीदवारी के बारें में

आपने द्रौपदी मुर्मू के बारे में जान लिया, अब उनकी उम्मीदवारी पर चर्चा करते हैं. ये संयोग की बात है कि राष्ट्रपति चुनाव 2022 में जितने लोगों के नाम की चर्चा रही, उनमें से दो 2017 के चुनाव में भी चर्चा में थे – गोपाल कृष्ण गांधी और द्रौपदी मुर्मू. फिलहाल हमारा फोकस रहेगा द्रौपदी मुर्मू की 2022 की उम्मीदवारी पर. राष्ट्रपति का पद भारत का सबसे ऊंचा और गरिमा वाला पद है. लेकिन भारत में राजनीति की सच्चाई यही है कि यहां बिना बैकग्राउंड देखे कोई काम हो नहीं पाता. मुर्मू के मामले में ये बैकग्राउंड है उनकी आदिवासी पहचान.

भारत में आदिवासी समाज कई जातियों, उपजातियों में बंटा हुआ है. पूरे देश की आबादी में अनुपात देखेंगे, तो बहुत बड़ी संख्या नहीं है. 2011 की जनसंख्या के अनुसार देश में 8.6 फीसदी नागरिक आदिवासी थे. लेकिन अगर भारत के नक्शे को आप मैग्निफाइंग लेंस के नीचे रखेंगे, तो आपको अलग आंकड़े नज़र आएंगे.

आदिवासी पारंपरिक रूप से भाजपा के वोटर नहीं माने जाते. और इसी धारणा को अब भाजपा बदल देना चाहती है. एक लंबा सिलसिला है, जिसमें करिया मुंडा और जुआल ओराम जैसे नेता आते हैं. भाजपा ने इनमें निवेश किया, और पद भी दिया. इसी क्रम में पीए संगमा की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को भी गिना जा सकता है. भाजपा को इसका फायदा नहीं मिला, ये कहना ठीक नहीं होगा. भाजपा ने आदिवासी बहुल राज्यों जैसे छत्तीसगढ़ और झारखंड में खूब सरकार चलाई है. लेकिन पार्टी का मंसूबा है, आदिवासियों की डिफॉल्ट पार्टी बनना.

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