इंसान में सूअर की किडनी का सफल ट्रांसप्लांटेशन; क्या वैज्ञानिकों की ये सफलता भारत में किडनी की कमी दूर कर पाएगी?
अमेरिका में वैज्ञानिकों को जिनोट्रांसप्लांटेशन को लेकर बड़ी सफलता मिली है। जिनोट्रांसप्लांटेशन यानी जानवर के ऑर्गन का मनुष्य में ट्रांसप्लांटेशन। वैज्ञानिकों ने एक एक्सपेरिमेंट के तौर पर सूअर की किडनी को महिला को ट्रांसप्लांट किया था। ये ट्रांसप्लांटेशन न सिर्फ सफल रहा बल्कि किडनी ने पूरी तरह से अपना काम भी किया। मेडिकल साइंस में इसे एक बड़ी उपलब्धि माना जा रहा है।
आइए समझते हैं, पूरा मामला क्या है? क्यों ये एक बड़ी उपलब्धि है? इससे पहले कब-कब इस तरह के प्रयास हुए हैं और वे क्यों फेल हो गए? इस सफलता से भारत को क्या फायदा हो सकता है? और वैज्ञानिकों की इस सफलता के पीछे की वजह क्या है?…
सबसे पहले पूरा मामला समझिए
न्यूयॉर्क के NYU (न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी) के लैंगोन हेल्थ के डॉक्टरों ने एक सूअर के किडनी को महिला में ट्रांसप्लांट की है। महिला के शरीर की कोशिकाओं में बाहर से ही इस किडनी को 3 दिन तक जोड़ा गया। इस दौरान किडनी ने सामान्य रूप से अपना कामकाज किया।
ट्रांसप्लांटेशन टीम को लीड कर रहे डॉक्टर रॉबर्ट मोंटगोमरी ने कहा है कि सूअर की किडनी ने एक सामान्य इंसान की किडनी की तरह ही काम किया है।
जिस महिला को किडनी ट्रांसप्लांट की गई, वो एक ब्रेन डेड महिला है। महिला की किडनी ठीक से काम नहीं कर रही थी, इस वजह से उसे लाइफ सपोर्ट पर रखा गया था। फिलहाल ये एक एक्सपेरिमेंट के तौर पर किया गया है और महिला के परिवार से इसके लिए सहमति ली गई थी।
ये एक बड़ी उपलब्धि क्यों है?
दरअसल, पशुओं से मानव में ऑर्गन ट्रांसप्लांट के प्रयास सदियों से किए जा रहे हैं, लेकिन अभी तक इस संबंध में कोई बड़ी सफलता वैज्ञानिकों के हाथ नहीं लगी है। ट्रांसप्लांट के ज्यादातर मामलों में कुछ घंटों के भीतर ही मरीज की मौत हो जाती थी।
इस मामले में मरीज की किडनी ने न सिर्फ 3 दिन तक ठीक तरह से काम किया बल्कि मरीज को किसी तरह का कोई रिएक्शन भी नहीं हुआ। साथ ही किडनी ट्रांसप्लांट के बाद महिला का असामान्य क्रिएटिनिन लेवल भी सामान्य स्तर पर आ गया। ब्लड में क्रिएटिनिन लेवल का सीधा-सीधा संबंध किडनी की फंक्शनिंग से है। क्रिएटिनिन लेवल का सामान्य स्तर पर लौटना संकेत है कि किडनी ठीक तरह से काम कर रही है।
इस एक्सपेरिमेंट की सफलता की वजह भी जान लीजिए
दरअसल सूअर की जीन्स में ग्लाइकोन नाम का एक शुगर मॉलिक्यूल होता है, जो इंसानों में नहीं होता है। इस शुगर मॉलिक्यूल को हमारी बॉडी एक फॉरेन एलिमेंट की तरह ट्रीट करती है और इसे रिजेक्ट कर देती है। इस वजह से इससे पहले जब भी किडनी ट्रांसप्लांट करने की कोशिश की गई, वो फेल हो गई। वैज्ञानिकों ने इस समस्या से निपटने के लिए सूअर के जीन में पहले से ही बदलाव कर इस शुगर मॉलिक्यूल को निकाल दिया था। साथ ही जेनेटिक इंजीनियरिंग से सूअर के जीन्स में बदलाव कर किडनी का ट्रांसप्लांट किया गया।
इससे हमें क्या फायदा होगा?
भारत में ट्रांसप्लांटेशन के लिए ऑर्गन की डिमांड और सप्लाई में बहुत अंतर है। स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुमानों के मुताबिक, भारत में हर साल करीब 2 लाख लोगों को किडनी ट्रांसप्लांट की जरूरत होती है, लेकिन केवल 6 हजार लोगों को ही किडनी मिल पाती है।
अगर सूअर से इंसान में ये किडनी ट्रांसप्लांट सफल होता है, तो भारत में किडनी की डिमांड-सप्लाई का ये अंतर कम हो सकता है।
साथ ही भारत में हर साल किडनी संबंधित बीमारियों की वजह से करीब 2 लाख लोगों की मौत हो जाती है। इनमें से 10-15% लोगों की जान समय पर किडनी ट्रांसप्लांट कर बचाई जा सकती है। हालांकि, पिछले कुछ सालों में भारत में किडनी डोनेशन बढ़ा है, लेकिन डिमांड के हिसाब से ये अभी भी बहुत कम है।
भारत में किडनी डोनेशन को लेकर एक और चिंताजनक ट्रेंड है। हर साल होने वाले कुल किडनी डोनेशन में करीब 90% किडनी लिविंग डोनर डोनेट करते हैं। इसका मतलब है कि जिसे किडनी की जरूरत होती है उसके परिजन या पहचान वाले ही किडनी डोनेट करते हैं। केवल 10% किडनी ही डोनर के मरने के बाद डोनेट की गई है। यानी भारत में ऑर्गन डोनेशन को लेकर लोग जागरूक नहीं है।
इस सफलता के बाद अब वैज्ञानिकों का क्या प्लान है?
अभी ये ट्रांसप्लांटेशन बस एक एक्सपेरिमेंट के तौर पर किया गया है। डॉक्टर मोंटगोमरी का कहना है कि अगले 2 साल में किडनी पेशेंट्स पर इसके ट्रायल शुरू किए जा सकते हैं। साथ ही फिलहाल जो ट्रांसप्लांट हुआ है, उमसें केवल 3 दिन तक ही किडनी को मरीज के शरीर में रखा गया। लॉन्ग टर्म में ट्रांसप्लांटेशन की सफलता जानने के लिए आने वाले दिनों में इस अवधि को भी बढ़ाया जा सकता है।
इससे पहले कब-कब इस तरह की कोशिशें हुईं और क्यों फेल हो गईं?
जिनोट्रांसप्लांटेशन को लेकर सालों से कोशिश की जा रही है। इसमें अभी तक कोई बड़ी सफलता हाथ नहीं लगी। वैज्ञानिक इससे पहले लंगूर और बंदर के अंगों को भी इंसानी शरीर में ट्रांसप्लांट करने के प्रयास कर चुके हैं। ब्लड क्लॉट्स से लेकर शरीर के इम्यून रिस्पॉन्स की वजह से ट्रांसप्लांटेशन सफल नहीं हो सके।
जून 1992 में पहली बार किसी इंसान के शरीर में लंगूर का लीवर ट्रांसप्लांट किया गया था। ट्रांसप्लांट के 21 दिन बाद ही मरीज के पूरे शरीर में संक्रमण फैल गया था। ये संक्रमण धीरे-धीरे बढ़ता गया और 70 दिन बाद मरीज की ब्रेन हैमरेज से मौत हो गई।जनवरी 1993 में 62 साल के एक शख्स में लंगूर का लीवर ट्रांसप्लांट किया गया, लेकिन 26 दिन बाद ही उसकी भी मौत हो गई थी।1920 से लेकर 1990 तक दुनियाभर में इस क्षेत्र में काफी काम हुआ। खरगोश, बंदर से लेकर लंगूर तक के ऑर्गन इंसानों का ट्रांसप्लांट किए गए। 1990 के बाद वैज्ञानिकों ने जिनोट्रांसप्लांटेशन के लिए सूअर को सबसे मुफीद माना।
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