जयंती विशेष: चिराग-पारस की लड़ाई में कितने दिन टिक सकेगी रामविलास पासवान की लोजपा
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पटना. 5 जुलाई को पूर्व केंद्रीय मंत्री और बिहार में दलितों के बड़े नेता रहे रामविलास पासवान (Ramvilas Paswan) की पहली जयंती है. उनकी जयंती पर दो हिस्सों में बंट चुकी लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के दोनों गुट उनके सच्चे अनुयायी होने का दावा करते हुए अलग-अलग कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं. अन्य पार्टियां विशेष तौर पर आरजेडी (RJD) ने अपने स्थापना दिवस के कार्यक्रम की शुरुआत ही रामविलास पासवान को श्रद्धांजलि देते हुए की. इससे पता चलता है कि बिहार की राजनीति में रामविलास पासवान की क्या अहमियत थी लेकिन, उनकी मौत के नौ महीने के अंदर ही लोजपा जिस तरह बिखर गयी उससे पार्टी के भविष्य़ पर ही सवाल खड़े हो रहे हैं कि आखिर बिना रामविलास पासवान के पार्टी की नैया कैसे पार लगेगी?
पार्टी के भविष्य पर क्यों खड़े हो रहे हैं सवाल ?
लोजपा की स्थापना सन 2000 में रामविलास पासवान ने की थी. रामविलास ने अपने बलबूते पार्टी को आगे बढ़ाया. उनकी मजबूत दलित नेता के तौर पर राष्ट्रीय स्तर पर पहचान थी. जब तक वे जिंदा थे परिवार के साथ- साथ पार्टी पर भी उनकी मजबूत पकड़ थी. उनके जाने के बाद पार्टी में कोई ऐसा बड़ा नेता नहीं है जिसकी धमक राष्ट्रीय स्तर पर हो और जो पार्टी को एकता के सूत्र में बांधे रह सके. गठन के बाद से ही पार्टी रामविलास और उनके परिवार वालों के इर्द गिर्द ही घूमती रही. द्वितीय स्तर की लीडरशिप को पनपने का मौका ही नहीं मिला. लिहाजा उनकी गैरमौजूदगी में पार्टी की नैया डगमगाने लगी और वह दो गुटों में बंट गयी. एक गुट का नेतृत्व चिराग पासवान कर रहे हैं तो दूसरे गुट का पशुपति पारस. दोनों गुट ही असली लोजपा होने का दावा कर रहे हैं.
यह पहला मौका नहीं है जब परिवार आधारित पार्टी में राजनीतिक विरासत के लिए परिवार के लोग आपस में उलझते दिख रहे हों. इससे पहले उत्तर प्रदेश में अखिलेश बनाम शिवपाल, हरियाणा में चौटाला परिवार, तमिलनाडु में जयललिता बनाम जानकी, आंध्रप्रदेश में एनटीआर बनाम चंद्रबाबू नायडू का प्रकरण हम देख चुके हैं. दरअसल जब व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा सर्वोपरि हो जाती है तब पार्टी में बिखराव आना लाजिमी हो जाता है. रामविलास पासवान की मौत के बाद परिवार के लोगों में पार्टी पर वर्चस्व की लड़ाई तेज हो गयी. पार्टी पर कब्जा करना पहली प्राथमिकता बन गयी. परिवार के सदस्यों के बीच अविश्वास की खाई चौड़ी होती चली गयी. नतीजतन जमीनी स्तर के कार्यकर्ता असमंजस में पड़ गये हैं कि आखिर वे क्या करें. खुद पार्टी में उनका क्या भविष्य होगा, इसकी चिंता सताने लगी है.पार्टी की राजनीतिक गतिविधि ठप पड़ गयी है. कार्यकर्ता अपना राजनीतिक भविष्य दूसरी पार्टियों में तलाशने लगे हैं.
पासवान वोट पर किसकी होगी पकड़?
रामविलास पासवान ने जीवन पर्यन्त राजनीति के मैदान में दलितों की राजनीति कर अपनी राजनीतिक जमीन तैयार की. दलितों में विशेषकर पासवान जाति के लोगों पर उनकी अच्छी पकड़ थी जो हर बार
विधानसभा के चुनाव परिणाम को देख कर साबित होता है. बिहार में कुल आबादी का छह प्रतिशत पासवान जाति की आबादी है. इसी छह प्रतिशत की आबादी पर सबकी नजर है. आरजेडी भी इसी कारण अपने स्थापना दिवस कार्यक्रम की शुरुआत रामविलास पासवान के चित्र पर माल्यार्पण करने के साथ कर रही है. लोजपा के दोनों गुट भी पासवान वोट बैंक पर अपनी पकड़ होने का दावा कर रहे हैं.
चिराग और पशुपति की क्या है कमजोरी?
चिराग पासवान हों या पशुपति पारस दोनों में जनता के साथ सहज संवाद स्थापित करने का वह हुनर नहीं है जो रामविलास पासवान में था. रामविलास पासवान की खूबी थी कि वो पूरी सहजता के साथ जनमानस के साथ जुड़ जाते थे. जनता के हर सुख-दुख में साथ नजर आते थे. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं चिराग की छवि महानगरीय नेता की रही है और राजनीतिक परिपक्वता का भी अभाव है. वे राजनीतिक रुप से सक्रिय नहीं रहते है. बाढ़ का समय हो या कोरोना का, जनता उन्हें अपने बीच नहीं पाया. पशुपति पारस की छवि भी खुद में सिमटे रहने वाले नेता की रही है. वो सालों तक विधायक-सांसद रहे लेकिन रामविलास पासवान की छत्रछाया से कभी बाहर नहीं निकल पाये. रामविलास पासवान ने भले ही अपने जीते चिराग पासवान को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था लेकिन जनता उनको असली वारिस मानती है या नहीं, यह समय के गर्त में ही छिपा हुआ है.