जनसंघ के 70 साल:स्कूल के एक कमरे में 2 घंटे की बैठक के दौरान पड़ी जनसंघ की नींव,
आज वहां भाजपा का कोई नेता नहीं जाता
आज से 70 साल पहले यानी 21 अक्टूबर 1951, दिल्ली के मशहूर गोल मार्केट से करीब आधा किलोमीटर दूर राजा बाजार में एक पब्लिक स्कूल में दो घंटे के लिए कमरा लिया जाता है। इसमें कुछेक लोग शामिल होते हैं और एक नई पार्टी की नींव रखी जाती है। नाम भारतीय जनसंघ पार्टी। उस वक्त कांग्रेस के विकल्प के रूप में उभरी जनसंघ आज भाजपा में तब्दील हो चुकी है। आज उसका हेडक्वार्टर 1.7 लाख स्क्वायर फीट में फैला है। देशभर में सैकड़ों दफ्तर हैं, करोड़ों कार्यकर्ता हैं, केंद्र के साथ ही कई राज्यों में उसकी सरकार है।
एक पार्क की तरफ इशारा करते हुए उस व्यक्ति ने बताया हां, ‘1979 में एक प्रतिमा का अनावरण करने आडवाणी जी जरूर आए थे। उसके अलावा मैंने किसी को भी यहां आते नहीं देखा। वैसै भी यह कोई पार्टी दफ्तर नहीं था, उस वक्त RSS के लोगों ने दो घंटे के लिए बस एक कमरा विद्यालय के प्रबंधन से बैठक के लिए लिया था।’
इस स्कूल को देखने के बाद दिमाग में चल रहा था कि यह वही जगह है जहां भाजपा की वंशज पार्टी की नींव रखी गई। कैसी बहस हुई होगी, कैसा माहौल होगा, क्या बैठक में भाग लेने वाले लोगों को पता था कि वे एक इतिहास रच रहे हैं? इस सवाल का जवाब RSS के पूर्ण कालीन प्रचारक और भाजपा के जनरल सेक्रेटरी रहे के.एन गोविंदाचार्य देते हैं। वे कहते हैं, ‘उस बैठक में तो मैं भी मौजूद नहीं था।’
यह वही स्कूल है जहां आज से 70 साल पहले एक कमरे में दो घंटे तक बैठक चली थी और जनसंघ नाम की एक पार्टी की नींव रखी गई थी।
‘हालांकि मैं यह कह सकता हूं कि तब शायद बहस नहीं हुई होगी। वहां ज्यादातर लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के थे। कांग्रेस के विकल्प के रूप में एक पार्टी बनाने का विचार रखा गया होगा। जिस पर सब सहमत हुए होंगे। हां, जैसा कि संघ का चरित्र है, मकसद हमेशा साफ होता है। उस वक्त भी पार्टी का मकसद साफ रहा होगा। देश को एक मजबूत राजनीतिक विकल्प देना ही उस बैठक का लक्ष्य था। लिहाजा इतिहास बनेगा ऐसा अनुमान भी शायद होगा ही।’
मुस्लिमों के नहीं बल्कि उनके अपीजमेंट के खिलाफ था जनसंघ
जनसंघ के स्पष्ट मकसद और दूरदृष्टि के विचार को आगे बढ़ाते हुए भाजपा नेता एवं राज्यसभा सांसद विनय सहस्त्रबुद्धे अपने एक लेख में लिखते हैं कि जवाहर लाल नेहरू के समाजवादी मॉडल के विरोध में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और मिश्रित अर्थव्यवस्था को साथ लेकर भारतीय जनसंघ की दो प्रमुख बातें थीं जो उसे दूसरों से अलग करती थीं। वे यह भी कहते हैं कि कांग्रेस का विकल्प तो कई दूसरी पार्टियों ने भी देने की कोशिश की, लेकिन सफल केवल जनसंघ हुई। वे इस लेख में यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि यह पार्टी कभी मुस्लिमों के खिलाफ नहीं थी।
दरअसल यह पार्टी मुस्लिमों के अपीजमेंट के खिलाफ थी। वे 1952 में हुए चुनाव के मेनिफेस्टो का जिक्र करते हैं। जनसंघ के मेनिफेस्टो में लिखा गया था, ‘भारतीय संस्कृति और राजनीतिक मर्यादा, सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के आधार पर भारत का पुनर्निर्माण हमारा मकसद है। इसमें सभी को समान मौके और स्वतंत्रता देना शामिल है। इन सब के जरिए एक समृद्ध, ताकतवर और विकसित, आधुनिक, प्रबुद्ध संयुक्त राष्ट्र बनाना ही पार्टी का मकसद है।’
जनसंघ के एक मात्र या कहें उसके अध्यक्ष पद पर रहने वाले सबसे आखिरी व्यक्ति एल के आडवाणी का जिक्र करना भी वे नहीं भूलते हैं। वे कहते हैं, मुस्लिमों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने की राजनीति के लिए आडवाणी जी ने एक टर्म सबसे ज्यादा प्रचलित किया, वह था माइनॉरटिज्म (minority-ism)।
विद्यालय में जनसंघ की बस एक निशानी, आडवाणी
इस विद्यालय की नींव लाला हंसराज ने रखी थी। उनका संघ से लगाव रहा था। इसी वजह से इस स्कूल को बैठक के लिए चुना गया था।
यहां जनसंघ, भाजपा या संघ से जुड़े एक ही व्यक्ति का निशान मिलता है। वे हैं एल के आडवाणी। यहां के एक पार्क में लगी स्वामी श्रद्धानंद की प्रतिमा का अनावरण 1979 में आडवाणी ने ही किया था। इसके सिवाय राजनीतिक तौर पर इतिहास के बेहद खास उन दो घंटों का कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता।
जनसंघ की बेशकीमती विरासत एल के आडवाणी
दैनिक भास्कर ने आडवाणी जी से संपर्क करने की कोशिश की। उनके PA ने उनकी उम्र का हवाला देते हुए स्पष्ट कर दिया वे किसी से नहीं मिल सकते। इसके बाद हमने लिखित सवाल-जवाब की कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिली।
हालांकि, इस कोशिश का नतीजा यह रहा कि आडवाणी जी ने एक लाइन बोलकर यह साबित कर दिया कि उनके लिए पार्टी से आगे कुछ भी नहीं। उन्होंने फैब इंडिया पर चल रही एक बहस का जिक्र उनके PA द्वारा उनके सामने करने पर कहा, ‘पार्टी ही नहीं बल्कि पूरे समाज में ही सहनशीलता नहीं बची है।’
दरअसल भाजपा के किसी नेता ने फैब इंडिया द्वारा एक उर्दू टैगलाइन इस्तेमाल करने के खिलाफ बयान दिया था। उनके जवाब से साफ था कि वे पार्टी पर किसी भी तरह का आरोप नहीं मढ़ना चाहते। उन्होंने समाज में आए बदलाव का हवाला देकर अपनी पार्टी को किसी भी तरह के आरोप से अपनी अदालत में तो कम से कम बरी ही कर दिया।
भारतीय जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी तक का सफर
21 अक्टूबर 1951 में जनसंघ बना और 1980 में यह पार्टी भाजपा तब्दील हो गई। जनसंघ का की शुरुआत श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की थी। इस पार्टी का चुनाव चिन्ह दीपक था। इसने 1952 के संसदीय चुनाव में 3 सीटें प्राप्त की थीं, जिसमें डॉक्टर मुखर्जी स्वयं भी शामिल थे।
फिलहाल कोविड के चलते स्कूल बंद है। कमरों में ताले लटके हैं। दीवारों पर कोविड प्रोटोकॉल को लेकर गाइडलाइन दर्ज हैं।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लागू आपातकाल (1975-1976) के बाद जनसंघ सहित भारत के प्रमुख राजनीतिक दलों का विलय कर एक नए दल ‘जनता पार्टी’ का गठन किया गया। आपातकाल से पहले बिहार विधानसभा के भारतीय जनसंघ के विधायक दल के नेता लालमुनि चौबे ने जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में बिहार विधानसभा से अपना त्यागपत्र दे दिया।
जनता पार्टी 1980 में टूट गई और जनसंघ की विचारधारा के नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। भारतीय जनता पार्टी 1998 से 2004 तक राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक गठबंधन (NDA) सरकार की सबसे बड़ी पार्टी रही थी। 2014 के आम चुनाव में इसने अकेले अपने दम पर सरकार बनाने में सफलता प्राप्त की।
कब बना यह विद्यालय और क्यों संघ ने इसे चुना जनसंघ की बैठक के लिए?
जानकारों के मुताबिक जनसंघ की नींव रखने के लिए उस हॉल को चुनने का मकसद कोई खास नहीं था। उस वक्त तक पार्टी का अपना कोई दफ्तर नहीं था। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का दफ्तर जरूर था, लेकिन वह इतना बड़ा नहीं था कि 200 लोग उसमें एक साथ बैठ सकें। जनसंघ के इतिहास को खंगालने पर पता चलता है कि उस बैठक में 200 लोग शामिल हुए थे। विद्यालय के चेयरमैन संजीव कहते हैं- इस विद्यालय की नींव लाला हंसराज ने रखी थी।
लाला हंसराज ने कई शैक्षिक संस्थान स्थापित किए। रघु मल आर्य कन्या उच्च माध्यमिक विद्यालय की स्थापना भी उन्हीं ने की। वे आर्य समाजी थे। आज भी आर्य समाज हनुमान मंदिर रोड संस्था इसके प्रबंधन का काम देखती है। वे कहते हैं, ‘इसके बारे में तो मुझे कुछ नहीं पता कि आखिर यही विद्यालय क्यों चुना गया, शायद उस वक्त प्रबंधन से संघ आसानी से अप्रोच कर सकता हो, इसलिए इस विद्यालय को चुना गया।’ जानकारों की मानें तो आर्य समाज संस्था, संघ के करीब मानी जाती है।
यहां के एक पार्क में लगी स्वामी श्रद्धानंद की प्रतिमा का अनावरण 1979 में लालकृष्ण आडवाणी ने किया था।
लिहाजा, हो सकता है कि इसलिए इस विद्यालय को जनसंघ की नींव रखने के लिए होने वाली बैठक के लिए चुना गया। कुछ दस्तावेज इस बात की भी गवाही देते हैं कि इस विद्यालय के फाउंडर हंस राज से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की निकटता थी। ऐसे में इस विद्यालय को चुनने की यह भी एक वजह मानी जा सकती है।
जिस पार्टी के पास 200 लोगों की बैठक के लिए जगह नहीं थी, उसका दफ्तर आज देश की भव्य इमारतों में शामिल
आज के भव्य भाजपा के पार्टी दफ्तर को देखकर किसी को यकीन नहीं होगा कि कभी 200 लोगों की बैठक के लिए भी इस पार्टी के पास जगह नहीं थी। 6A,दीनदयाल उपाध्याय मार्ग में मौजूदा दफ्तर में हजारों लोग एक साथ समा सकते हैं। लाल पत्थरों से बना 70 कमरों वाला भाजपा का भव्य दफ्तर किसी ऐतिहासिक इमारत की तरह दिखाई देता है। इस इमारत की सबसे ऊपरी मंजिल से स्काई लाइन में जामा मस्जिद और लाल किला का एरिया भी थोड़ा बहुत दिखता है।
आसपास के लोगों को कुछ पता नहीं, क्या है भाजपा से इस स्कूल का नाता?
विद्यालय के आसपास के लोगों से जब इस स्कूल और जनसंघ के जुड़ाव को लेकर बात की तो लोग क्लूलेस थे। उन्हें नहीं पता था कि उनसे क्या सवाल किया जा रहा है। सवाल सरल करने के लिए जब यह पूछा गया कि क्या भाजपा से इस स्कूल का कोई नाता है? तो उन्होंने कहा, नहीं यह तो एक स्कूल है और वह एक राजनीतिक दल है। ज्यादातर लोग न नाम बताने में इंटरेस्ट ले रहे थे और न ही कैमरे के सामने आने से। उन्हें लग रहा था कहीं कोई राजनीतिक मुद्दा तो नहीं है। वे कुछ बोल कर फंस न जाएं।
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