आज का इतिहास
हाथ में गीता लेकर हंसते-हंसते फांसी पर चढ़े थे क्रांतिकारी खुदीराम बोस, महज 18 साल 8 महीने और 8 दिन की उम्र में हुए थे शहीद
कोलकाता में चीफ प्रेसिडेंसी जज थे- किंग्सफोर्ड। किंग्सफोर्ड पूरे बंगाल में भारतीय क्रांतिकारियों को कठोर सजा देने के लिए जाने जाते थे। इस वजह से वो भारतीय क्रांतिकारियों की नजर में थे। अंग्रेजों को इसकी भनक लग चुकी थी और उन्होंने जज किंग्सफोर्ड का तबादला मुजफ्फरपुर कर दिया।
जज किंग्सफोर्ड को मारने की जिम्मेदारी दो युवा क्रांतिकारियों को मिली- खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी। दोनों किंग्सफोर्ड के पीछे-पीछे मुजफ्फरपुर आ गए।
यहां दोनों ने जज किंग्सफोर्ड की रेकी की। दोनों ने देखा कि जज किंग्सफोर्ड रोजाना यूरोपियन क्लब से बग्घी में निकलते थे। दोनों ने योजना बनाई कि जिस बग्घी में जज किंग्सफोर्ड सवार होंगे, उसे विस्फोट से उड़ा दिया जाएगा।
30 अप्रैल 1908 का दिन। दोनों क्रांतिकारी अपनी योजना को पूरा करने के लिए तैयार थे।
क्लब से एक बग्घी बाहर निकली और दोनों ने उस पर बम फेंक दिया, लेकिन बग्घी में जज किंग्सफोर्ड की जगह दो महिलाएं सवार थीं। हमले में दोनों की मौत हो गई। जज किंग्सफोर्ड को मारने का प्लान अधूरा रह गया। हमले के बाद दोनों क्रांतिकारी भाग निकले।
पुलिस से बचने के लिए दोनों अलग-अलग भागे। प्रफुल्ल चाकी समस्तीपुर में एक रेलगाड़ी में बैठ गए, लेकिन रेल में पुलिस सबइंस्पेक्टर भी सवार था। उसने चाकी को पहचान लिया और पुलिस को सूचना दे दी। अगले स्टेशन पर चाकी को पकड़ने के लिए पुलिस तैयार खड़ी थी। चाकी ने भागने की कोशिश की, लेकिन चारों तरफ से घिरे होने की वजह से भाग नहीं सके और उन्होंने खुद को गोली मार ली।
इधर वैनी पूसा रोड स्टेशन से खुदीराम बोस गिरफ्तार कर लिए गए। उन पर मुकदमा चलाया गया। अंग्रेज सरकार ने केवल 8 दिन में ही सुनवाई पूरी कर दी। 13 जुलाई 1908 को फैसला आया जिसमें खुदीराम बोस को फांसी की सजा सुनाई गई। इस फैसले के खिलाफ कोलकाता हाईकोर्ट में अपील की गई, लेकिन जज ने फांसी की सजा बहाल रखी। फांसी का दिन तय हुआ- 11 अगस्त 1908।
आज ही के दिन ये युवा क्रांतिकारी हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर चढ़ गया। खुदीराम बोस अपने हाथ में गीता लेकर एक वीर भारतीय की तरह निडर होकर फांसी के तख्त पर चढ़े थे। उनके चेहरे पर फांसी का बिल्कुल भी खौफ नहीं था। मात्र 18 साल 8 महीने और 8 दिन की उम्र में शहीद हुए खुदीराम बोस की शहादत ने युवाओं में आजादी की एक नई अलख जगा दी थी।