खाड़ी देशों में भारतीय मज़दूरों की ‘चोरी हुई पगार’ उन्हें कैसे मिलेगी?
बिहार के सीवान से लेकर केरल के कोल्लम और ओडिशा के पारादीप तक, कई लोग अपने पैसे का इंतज़ार कर रहे हैं, जो उन्होंने खाड़ी देशों में नौ से 23 साल के बीच काम करके कमाया था. लेकिन, अब उन्हें बताया जा रहा है कि वे 'पगार की चोरी' के शिकार हो गए हैं.
बिहार के सीवान के प्रीतम कुमार सिंह ने 13 साल तक सऊदी अरब में एक निर्माण कंपनी में सुपरवाइज़र की तरह काम किया. जब कोविड ने खाड़ी देशों में भी दस्तक दी, तो उन्हें जाने के लिए कहा गया.
वो बताते हैं, “हमें जून महीने का भुगतान भी नहीं किया गया.”
सीवान में अपने पुश्तैनी घर से बात करते हुए उन्होंने बीबीसी हिंदी से कहा, “हमें बिना किसी भुगतान के भेज दिया गया, बिना पगार के वादे के, हमें 11 साल काम करने के बदले हर साल एक महीने की पगार बेनिफिट के तौर पर कंपनी छोड़ते समय मिलनी थी.”
“मेरी सारी बचत ख़त्म हो गई है. मेरी पत्नी और दो बेटे हैं, एक दसवीं में है और दूसरा पांचवीं में है. मैं 44 साल का हूं और मैं कोरोना के कारण काम की तलाश में भी नहीं जा पाया.”
लेकिन प्रीतम एक तरह से भाग्यशाली हैं क्योंकि वह एक संयुक्त परिवार में रहते हैं, उनका गुज़ारा चल जाएगा. लेकिन, भारत के दूसरे छोर पर केरल के कोल्लम ज़िले में अनिल कुमार के सामने बड़ी समस्या है.
उन्होंने बीबीसी हिंदी को बताया, “पिछले एक साल के दौरान मेरी सारी बचत ख़त्म हो गई है. एक बेटी ने जूनियर कॉलेज में एडमिशन लिया है और मेरी दूसरी बेटी आठवीं में है. अब हमें खाने की दिक्कत हो रही है.”
केरल के कोल्लम ज़िले के अनिल कुमार सऊदी अरब में काम कर रहे थे
कोरोना की वजह से ही उन्हें सऊदी अरब की एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में बढ़ई-फोरमैन की नौकरी से हटा दिया गया था. कोरोना में अपने गृह राज्य में भी वो बेरोज़गार हैं.
48 साल के अनिल कहते हैं, “मैं कहीं नहीं जा सकता. मैं हर जगह आवेदन करता हूं, चाहे वह क़तर हो या अबू धाबी, वे कहते हैं कि 45 वर्ष से अधिक आयु के लोग रोज़गार के योग्य नहीं हैं. स्थानीय स्तर पर, पिछले एक महीने में, मुझे कुछ अलग-अलग काम मिले हैं, लेकिन सिर्फ दो-चार दिनों के लिए.”
अनिल को बताया गया था कि दो महीने के बाद उनके खाते में 50,000 सऊदी रियाल जमा की जाएगी.
“हम कुल 518 लोग थे. इसमें से 288 केरल के थे. हम सभी को इस्तीफ़ा देकर जाने के लिए कहा गया था. मैनेजर ने बाद में हमें बताया कि पैसे भेज दिए जाएंगे. मैं अभी भी इंतज़ार कर रहा हूं,”
कई लोग हुए हैं इसका शिकार
दशरती सऊदी अरब में जिस कंपनी के लिए काम कर रहे थे वहां उनके तीन लाख बकाया हैं
ओडिशा की दशरती बारिक बीबीसी हिंदी से कहते हैं, “मैंने खाड़ी में वापस जाने की कोशिश की लेकिन दलाल का कहना है कि कोई नौकरी उपलब्ध नहीं है. मैंने अपनी बचत ख़र्च कर दी है और पिछले एक साल में दो लाख रुपये का क़र्ज़ ले चुका हूं.”
दशरती सऊदी अरब में जिस कंपनी के लिए काम कर रहे थे, वहां उनके कुल तीन लाख रुपये की रक़म बकाया है.
एर्नाकुलम स्थित सेंटर फॉर इंडियन माइग्रेंट स्टडीज़ (CIMS) द्वारा किए गए एक अध्ययन में उन 397 लोगों में से यह सबसे कम राशि है, जिन्होंने दस्तावेज़ दिए हैं.
अध्ययन में न केवल केरल बल्कि तमिलनाडु, महाराष्ट्र, बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश राज्यों के भारतीय प्रवासियों के साथ हुई `पगार की चोरी’ की सीमा को समझने की कोशिश की कई है.
कितनी पगार चोरी की गई
वेतन की चोरी का मतलब कंपनियों द्वारा कर्मचारियों को मिलने वाले लाभों से वंचित करना है. कर्मचारी वार्षिक बोनस राशि जैसी राशी के हकदार हैं.
खाड़ी देशों में यह राशि दो साल के रोज़गार के बाद हर साल एक महीने के वेतन के बराबर है. इसका आमतौर पर तब भुगतान किया जाता है जब कर्मचारी कंपनी छोड़ देता है.
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कई मामलों में कंस्ट्रक्शन, मैन्युफैक्चरिंग, ट्रांसपोर्टेशन और हॉस्पिटैलिटी सेक्टर की कंपनियां महीने में एक दिन पूरे वेतन का भुगतान नहीं करती हैं. कर्मचारियों के अनुसार कई जगहों पर वेतन के साथ-साथ ओवरटाइम के पूरे पैसे का भुगतान हर महीने नहीं किया जाता है.
कोरोना के दौरान जब से खाड़ी देशों के बेरोज़गार श्रमिकों को वापस लाने के लिए वंदे भारत मिशन शुरू किया गया, पिछले महीने तक 15.4 लाख लोग केरल लौट थे.
केरल सरकार के एक विभाग, नॉन रेज़िडेंट केरलाइट अफेयर्स या NORKA द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, इन 15.4 लाख में से 10.98 लाख श्रमिक रोज़गार चले जाने के कारण वापस आए थे.
CIMS इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि श्रमिकों का `कम से कम’ 1200 करोड़ रुपये बकाया है. नाम न छापने की शर्त पर कुछ अधिकारियों ने हैरानी प्रकट करते हुए कहा कि यह राशि `बहुत बड़ी’ थी.
लेकिन, CIMS का अध्ययन मौखिक साक्षात्कार पर आधारित सामान्य सर्वेक्षण नहीं है. इसमें न केवल कर्मचारियों के वेतन पर्ची और अनुबंध पत्र एकत्र किए गए हैं, बल्कि उनके अध्ययन को प्रमाणित करने के लिए उनके पहचान पत्र भी एकत्र किए गए हैं.
1200 करोड़ रुपये की रक़म कैसे है?
अध्ययन में पाया गया कि दस्तावेज़ों के आधार पर 397 कर्मचारियों की कुल राशि 62.58 करोड़ रुपये बकाया थी.
397 कर्मचारी, अध्ययन में शामिल कुल 3,345 कर्मचारियों का 11.86 प्रतिशत हैं.
CIMS के अध्ययन ने कुल 11.86 के इसी आंकड़े को NORKA के आंकड़ों पर अप्लाई किया.
सीआईएमएस के निदेशक रफ़ीक रावुथर ने बीबीसी हिंदी को बताया, “इस गणना से, अगर हम सिर्फ ये मान कर चलें कि श्रमिकों का केवल एक लाख रुपये का औसत बकाया है, तो यह राशि कम से कम 1200 करोड़ रुपये होगी.”
अगर इसे अर्थव्यवस्था के नज़रिये से देखें, उदाहरण के लिए, केरल की अर्थव्यवस्था को ही लें. लगभग 24 लाख अप्रवासी केरलवासियों ने पिछले वर्ष (नवीनतम आंकड़ों के अनुसार) 2.27 लाख करोड़ रुपये अपने गृह राज्य में भेजे थे.
केरल में नहीं रह रहे लोग प्लंबर, कारपेंटर और नर्सिंग जैसा काम खाड़ी देशों में करते हैं और अपने गृह राज्य में पैसा भेजते हैं. उसी पैसे का इस्तेमाल उनके परिवार के लोग मिस्त्री, प्लंबर, कारपेंटर आदि को काम पर रखने के लिए करते हैं जो कि भारत के विभिन्न हिस्सों से आते हैं. इनमें अधिकतर उत्तर भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल राज्यों के लोग शामिल होते हैं.
CIMS में रिसर्च एसोसिएट पार्वती देवी बीबीसी हिंदी से कहती हैं, “इन कामगार लोगों का सबसे कम 3 लाख रुपये बकाया है जबकि कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनका 30 लाख रुपये तक बकाया है जो कि इंजीनियर के तौर पर काम करते थे.”
लेकिन क्या इन भुगतानों का न होना नया है?
तमिलनाडु के कन्याकुमारी से आने वाले जॉन बॉस्को माइकल कहते हैं, “नहीं.”
यह मामला कोविड के बाद का नहीं है बल्कि कोविड से पहले भी ऐसा होता रहा है. कोविड के आने से एक साल पहले ही दुनिया में लोग और रोज़गार ख़त्म हो रहे थे.
कुवैत और फिर सऊदी अरब में काम करते हुए अपने घर लौटे माइकल को स्ट्रोक आया था. स्ट्रक्चरल इंजीनियर के तौर पर वो 1.25 लाख रुपये कमाते थे. ढाई साल पहले वो वापस चले गए थे लेकिन उन्होंने किडनी फ़ेलियर का सामना किया.
माइकल ने बीबीसी हिंदी से कहा, “मैं घर लौटा और मेरी सारी जमा पूंजी अस्पताल के ख़र्चे में चली गई. मुझे कंपनी से 3.30 लाख रुपये मिले थे. मैं और मेरा परिवार अब (बीवी, कॉलेज जाने वाला बेटा और कॉलेज शुरू करने की तैयारी में लगी हुई बेटी) पूरी तरह मेरे भाई पर निर्भर हैं.”
माइकल को अब अपना पैसा कैसे मिल सकता है? उनको वापस अपने पैसे प्राप्त होने की कितनी उम्मीद बची हुई है? उसे ऐसे समझा जा सकता है.
सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों में कोई कर्मचारी वकील के ज़रिए शिकायत दर्ज कराने के बाद अपने बकाए के भुगतान पर दावा कर सकता है. हालांकि, कई कर्मचारियों को इस बारे में अधिक जानकारी नहीं है. एक शोध बताता है कि 397 में से 9 लोगों को इस तरह के तंत्र के बारे में कोई ख़बर नहीं है.
पार्वती कहती हैं, “कई लोगों ने हमें बताया कि उन्हें बेहद शॉर्ट नोटिस पर उनके मैनेजर ने उन्हें फ़्लाइट के बारे में बताया उन्हें टिकट पकड़ाया और कोई सवाल पूछे बिना सादे काग़ज़ पर हस्ताक्षर करा लिए. कई लोगों को वंदे भारत मिशन की उड़ानों और पानी के जहाज़ों में भेज दिया गया.”
इस शोध के बाद पिछले साल अगस्त में केरल हाई कोर्ट में लॉयर्स बियॉन्ड बॉर्डर्स नाम की एक संस्था ने याचिका दायर की थी. कोर्ट ने केंद्र सरकार को एक नोटिस जारी किया. केंद्र सरकार ने इस पर बताया कि विदेश मंत्रालय में ‘मदद’ नाम का एक निवारण मंच है.
वकील सुभाष चंद्रन ने बीबीसी हिंदी से कहा, “हाई कोर्ट के आदेश के बाद कर्मचारियों को ‘मदद’ (MADAD) के ज़रिए ईमेल याचिका दायर करने को कहा गया. विभिन्न दूतावासों ने उनसे जानकारी मांगी, हमने सबकुछ साझा किया लेकिन उनकी ओर से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं थी.”
पार्वती कहती हैं, “कई खाड़ी देशों में यह समस्या है कि वकीलों को पावर ऑफ़ अटॉर्नी (POA) केस दायर करने और जिरह करने के लिए दी जाती हैं. यह कोई साधारण काम नहीं है क्योंकि इन कामगार लोगों के कारण अधितकर बार कुछ वकीलों की फ़ीस साधारण रक़म से 40% अधिक बढ़ जाती है जबकि नियम सिर्फ़ 10% फ़ीस बढ़ाने का है.”
सिर्फ़ यही नहीं कुछ देशों में सीमा अवधि का क़ानून भी आड़े आता है.
फ़्लेम यूनिवर्सिटी पुणे में माइग्रेशन स्टडीज़ की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर डॉक्टर दिव्या बालन बीबीसी हिंदी से कहती हैं, “इन देशों में कर्मचारियों को अपने बकाया के दावे के लिए एक साल की समयसीमा है. कई मामलों में भारतीय कर्मचारी इस एक साल की समयसीमा को पार कर जाते हैं.”
डॉक्टर बालन कहती हैं, “मैंने कुछ कर्मचारियों से बात की है और वो अपनी समस्या सुलझाना चाहते हैं. शुरुआत में कोविड के दौरान वो उम्मीद कर रहे थे कि वे वापस चले जाएंगे. उन्होंने मुझसे कहा था कि वे केस दायर करना नहीं चाहते हैं क्योंकि वे नहीं चाहते हैं कि दूसरी कंपनियों में नौकरी के मौक़े चले जाएं. इन सभी कारणों और समयसीमा के क़ानून के कारण बहुत सारा समय बर्बाद हो गया. स्थिति बेहद उलझ चुकी है. अभी भी इससे निकलने का समय है. केंद्र सरकार विभिन्न देशों से इन शिकायतों पर बात करके एक सक्रिय भूमिका निभा सकती है.”