कन्हैया से पिछड़ गए उमर खालिद
कम्युनिस्ट कन्हैया कांग्रेसी हो गए जबकि JNU छात्र राजनीति में उनके बैचमेट उमर खालिद आज भी तिहाड़ जेल में बंद
9 फरवरी 2016 को JNU में छात्रों ने 2001 संसद हमलों के दोषी अफजल गुरु और मकबूल भट्ट की फांसी की सजा के खिलाफ प्रदर्शन किया। इस दौरान कथित तौर पर भारत विरोधी नारे लगाए गए। इसको लेकर दिल्ली पुलिस ने JNU के तत्कालीन छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया। कुछ दिनों बाद प्रदर्शन में शामिल रहे उमर खालिद और दूसरे छात्रों ने भी आत्मसमपर्ण कर दिया। हालांकि आगे चलकर अदालत में आरोप साबित नहीं हो सके।
इस घटना के बाद कन्हैया कुमार और उमर खालिद दोनों देशभर में चर्चित हो गए। सरकार विरोधी चेहरा बन गए। उनका जितना विरोध हुआ, उतना ही समर्थन भी मिला। अब करीब 5 साल बाद 28 सितंबर को कन्हैया कुमार जोर-शोर से कांग्रेस में शामिल हुए हैं। इससे पहले वे CPI के टिकट पर बिहार के बेगूसराय से लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं। जबकि उमर खालिद दिल्ली दंगों की साजिश, देशद्रोह और UAPA के तहत जेल में बंद हैं।
ऐसे में यह सवाल जेहन में आता है कि एक साथ एक ही घटना से सुर्खियां बटोरने वाले कन्हैया कुमार से उमर खालिद पीछे क्यों रह गए? उन्हें सक्रिय राजनीति में जगह क्यों नहीं मिली? क्या इसके पीछे उनका मुसलमान होना है?
उमर खालिद जेल में क्यों बंद हैं?
पिछले साल 23 फरवरी को भारत की राजधानी दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे हुए। इसमें पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक 53 लोग मारे गए। केंद्र सरकार के नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के खिलाफ देशभर में मुसलमानों और मानवाधिकार समूहों ने प्रदर्शन किए थे। उमर खालिद इस आंदोलन में सक्रिय थे और उन्होंने लिंचिंग की घटनाओं के खिलाफ यूनाइटेड अगेंस्ट हेट अभियान भी शुरू किया था।
हाल ही में CPI छोड़कर कन्हैया कुमार कांग्रेस में शामिल हुए हैं। पार्टी में शामिल होने के बाद उन्होंने राहुल गांधी से मुलाकात की थी।
इसके पहले 17 फरवरी 2020 को उमर खालिद ने महाराष्ट्र के अमरावती में भाषण देते हुए कहा था, ‘जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत में होंगे तो हमें सड़कों पर उतरना चाहिए। 24 तारीख को ट्रंप आएंगे तो हम बताएंगे कि हिंदुस्तान की सरकार देश को बांटने की कोशिश कर रही है। महात्मा गांधी के उसूलों की धज्जियां उड़ा रही है। हम दुनिया को बताएंगे कि हिंदुस्तान की आवाम हिंदुस्तान के हुक्मरानों के खिलाफ लड़ रही है।
उमर खालिद के इसी भाषण को उन पर मुकदमों का आधार बनाया गया था। खालिद का नाम लिए बिना गृहमंत्री अमित शाह ने भी दिल्ली दंगों पर संसद में दिए अपने बयान में इस भाषण का जिक्र किया था। दिल्ली दंगों की साजिश के एक मामले में तो उमर खालिद को जमानत मिल चुकी है, लेकिन FIR संख्या 59/60 में अभी उन्हें जमानत नहीं मिली है। उनकी जमानत पर अगली सुनवाई 9 अक्टूबर को होगी।
कन्हैया और उमर खालिद के बीच तुलना होती रही है। अब सवाल उठ रहा है कि कन्हैया को तो भारत की राजनीति ने स्वीकार कर लिया है, लेकिन उमर खालिद जेल में बंद हैं। उमर खालिद के दोस्त और लेखक दराब फारूकी कहते हैं- मैं नहीं जानता कि पहले चीजें कैसी थी, लेकिन आज हम भारत में जहां खड़े हैं वहां नाम ही सबसे अहम हो गया है। आपका नाम क्या है, इसी से तय होता है कि आप कहां तक जाएंगे। नाम ही आपका परिचय पत्र बन गया है।
एक कार्यक्रम के दौरान गुजरात के युवा दलित नेता जिग्नेश मेवाणी (बाएं), उमर खालिद और कन्हैया कुमार। (फाइल फोटो)
कन्हैया और उमर खालिद के बीच तुलना करते हुए फारूकी कहते हैं, ‘उमर का रास्ता अग्निपरीक्षा है। उमर को हर कदम पर अग्निपरीक्षा देनी होगी। कन्हैया और उमर खालिद अगर एक क्षमता के धावक हैं और एक ही दौड़ में हैं तो उमर बाधादौड़ कर रहा है और कन्हैया फर्राटा दौड़ रहा है।
वहीं उमर खालिद के पिता कासिम रसूल इलियास कहते हैं, ‘बुनियादी तौर पर उमर एक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और कई मामलों पर उसने सरकार के खिलाफ स्टैंड लिया है। खासतौर पर CAA के खिलाफ प्रदर्शनों में उमर सक्रिय थे।’
मीडिया ने कन्हैया की तरह खालिद को जगह नहीं दी
मानवाधिकार कार्यकर्ता और उमर खालिद के दोस्त जाकिर अली त्यागी कहते हैं कि आज कन्हैया मेनस्ट्रीम पॉलिटिक्स में है और उमर खालिद जेल में है। इसकी एक बड़ी वजह ये है कि भारत की मेनस्ट्रीम मीडिया ने कन्हैया को तो जगह दी, लेकिन उमर खालिद को नजरअंदाज किया। TV मीडिया ने न ही उन्हें बहस में बुलाया और न ही उनके इंटरव्यू दिखाए।
खालिद के दोस्त जाकिर अली त्यागी का कहना है कि खालिद को मीडिया ने टुकड़े-टुकड़े गैंग के सदस्य के तौर पर पेश किया।
वहीं कन्हैया और उमर के दोस्त और TISS मुंबई के पूर्व महासचिव छात्रसंघ फहद अहमद कहते हैं, ”मुझे नहीं लगता कि कन्हैया और उमर के बीच तुलना होनी चाहिए। इन दोनों की तुलना मुद्दा नहीं है, मुद्दा ये है कि आज की हमारी राजनीतिक पार्टियां धार्मिक पहचान से समझौता कर रही हैं, ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है।
क्या राजनीति उमर खालिद को स्वीकार करेगी?
खालिद के पिता कहते हैं, ‘राजनीति में स्थान दो वजहों से मिलता है। पहला ये कि आप किसी वंचित समाज के प्रति कितने प्रतिबद्ध हैं, उसके मुद्दों के साथ कब तक खड़े रहते हैं। ऐसे में आपको आज नहीं तो कल अपनी जगह मिल ही जाती है। दूसरी वजह होती है आपकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं, जिन्हें पूरा करने के लिए आप सियासत करते हैं, जहां मौका मिलता है वहां चले जाते हैं। मैं ये मान कर चलता हूं कि भारत में अभी भी जगह है। यदि कोई व्यक्ति किसी एक समूह या वंचित वर्ग के लिए शिद्दत से काम करता है, तो उसके लिए जगह ही खत्म हो जाए, ऐसा नहीं है। उमर के लिए भले ही आज नहीं है, लेकिन कल मौके जरूर बनेंगे।’
वहीं जाकिर अली त्यागी कहते हैं, ‘उमर खालिद को राजनीति में इस तरह स्वीकार नहीं किया जाएगा जैसे कन्हैया कुमार को किया गया है। जिस तरह से राहुल गांधी ने कन्हैया को स्वयं अपने हाथ से नियुक्ति पत्र दिया है। अगर कल रिहा होने के बाद उमर खालिद कांग्रेस में आना चाहेंगे तो क्या कांग्रेस उनका इस तरह स्वागत करेगी? भारत की राजनीति में आज मुसलमानों के लिए जगह तो है, लेकिन सिर्फ दरी बिछाने या नेताओं के पीछे खड़ा होने तक।
उमर खालिद के दोस्त और लेखक दराब फारूकी कहते हैं कि खालिद मुसलमान होने की कीमत चुका रहा है।
वहीं दराब फारूकी बताते हैं कि उमर के लिए राजनीतिक सफर आसान नहीं होगा। इस देश में पहचान की राजनीति इस कदर हावी हो गई है कि आज हर व्यक्ति को उसके नाम के आधार पर परखा जा रहा है। आपका नाम ये तय कर रहा है कि आप क्या हैं।
फहद का मानना है कि मुसलमान युवाओं को राजनीति में आने का संघर्ष जारी रखना चाहिए। वे कहते हैं कि मैं चाहता हूं कि हर मुसलमान युवा जो संविधान के लिए संघर्ष कर रहा है, बराबरी के लिए संघर्ष कर रहा है, उसे राजनीति को स्वीकार करना चाहिए। उमर जेल में है, लेकिन मुझे इस बात का दुख नहीं है क्योंकि वह लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा है, वह हमारे संघर्ष का चेहरा है। भारत में अधिकारों की बात करने वाले लोग जेल जाते रहे हैं। नेहरू, गांधी, मौलाना आजाद और भीमराव अंबेडकर जैसे नेता भी जेल भेजे गए थे।
नहीं टूटा है उमर का हौसला
उमर खालिद के परिजन और दोस्तों का कहना है कि जेल में बंद होने के बावजूद उनका हौसला टूटा नहीं है। खालिद जेल में किताबें पढ़ते हैं और अब तक 70 से अधिक किताबें पढ़ चुके हैं। वे हर सप्ताह वीडियो कॉल के जरिए अपने दोस्तों और परिजनों से बात करते हैं। दराब फारूकी कहते हैं, ‘वीडियो कॉल के दौरान हम उमर को हौसला देने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन वास्तविकता ये थी कि वह हमें हौसला दे रहा था।
उमर खालिद के दोस्त फहद अहमद का मानना है कि मुसलमान युवाओं को राजनीति में आने का संघर्ष जारी रखना चाहिए।
अवसरवाद की राजनीति कर रहे हैं कन्हैया?
उमर खालिद के पिता कन्हैया पर अवसरवाद की राजनीति करने का आरोप लगाते हुए कहते हैं, ‘कन्हैया कुमार कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की छात्र इकाई के नेता थे और बाद में CPI में शामिल हो गए थे। उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं थीं, उन्होंने चुनाव भी लड़ा। कन्हैया के CPI छोड़कर कांग्रेस में शामिल होने का कारण उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं ही हैं। CPI में उन्हें अपना भविष्य नजर नहीं आ रहा था। उन्हें ये महसूस हुआ होगा कि कांग्रेस में ही उनका भविष्य बन सकता है और वह कोई चुनाव जीत सकते हैं।