कैसे चुने जाते हैं शंकराचार्य? : मान्यता है कि आदि शंकराचार्य ने धर्म के प्रचार के लिए चार मठों की स्थापना की थी .

बचपन का नाम- Uma Shankar Pandey
जन्म- 15 अगस्त 1969. बचपन का नाम- उमाशंकर पांडे. उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में जन्म हुआ. उनके पिता एक बार उनको गुजरात लेकर गए. वहां उनकी मुलाकात काशी के संत रामचैतन्य से हुई. उमाशंकर (अविमुक्तेश्वरानंद) वहीं रूक गए. यहीं पढ़ाई और पूजा-पाठ करने लगे. इसके बाद पहुंचे काशी. वहां उनकी मुलाकात स्वरूपानंद सरस्वती से हुई. उन्होंने संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से पढ़ाई की. उमाशंकर पांडे, स्वरूपानंद सरस्वती के शिष्य बन गए. उन्होंने 2006 में उनसे दीक्षा ली. और इस तरह उनको ‘अविमुक्तेश्वरानंद’ नाम मिला. साल 2022 का सितंबर महीना- अविमुक्तेश्वरानंद के गुरू स्वरूपानंद सरस्वती को हार्ट अटैक आया और उनकी मौत हो गई.

सुप्रीम कोर्ट में गया ‘शंकराचार्य’ का मामला
अविमुक्तेश्वरानंद ने खुद को स्वरूपानंद सरस्वती का उत्तराधिकारी घोषित किया. साल 2022 के अक्टूबर महीने में ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य के रुप में उनका ‘अभिषेक’ होना था. उनपर आरोप लगे कि उन्होंने ‘फर्जी’ तरीके से खुद को स्वरूपानंद और ज्योतिष पीठ का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया है. मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा. कोर्ट ने उनके ‘अभिषेक’ पर रोक लगा दी.

मान्यता है कि आदि शंकराचार्य ने धर्म के प्रचार के लिए चार मठों की स्थापना की थी.

  • ज्योतिर्मठ, उत्तराखंड के जोशीमठ में.
  • शारदा मठ, गुजरात के द्वारका में.
  • गोवर्धन मठ, ओडिशा के पुरी में.
  • श्रृंगेरी मठ, कर्नाटक.
  • शंकराचार्य इन मठों के प्रमुख होते हैं.

कैसे चुने जाते हैं शंकराचार्य?
आदि शंकराचार्य ने मठाम्नाय ग्रंथ लिखा था. इसमें चारों मठो की व्यवस्था से संबंधित बातें लिखी हैं. खासतौर पर चर्चा इस बात की थी कि शंकराचार्य का चुनाव कैसे होगा और इसके लिए किसको योग्य माना जाएगा. ऐसा माना जाता है कि प्राचीन समय में शंकराचार्य के चुनाव के लिए ‘शास्त्रत्तर्थ’ (शास्त्रों के ज्ञान पर सवाल-जवाब) कराए जाते थे. अखाड़ों और काशी विद्वत परिषद की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी.

साल 1973 से चल रहा है विवाद
1952 में शंकराचार्य थे ब्रह्मानंद. 18 दिसंबर 1952 को उन्होंने अपनी वसीयत में रामजी त्रिपाठी, द्वारिका प्रसाद, विष्णु देवानंद और परमानंद सरस्वती का नाम लिखा. इसके अनुसार, ये चारों एक के बाद एक अगले शंकराचार्य बनते. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. किसी तरह विष्णु देवानंद शंकराचार्य बन गए. इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने 25 जून 1953 को कृष्ण बोधाश्रम को अपना उत्तराधिकारी बनाया. कृष्ण 10 दिसंबर 1973 तक शंकराचार्य रहे. लेकिन उन्होंने अपने उत्तराधिकारी की घोषणा नहीं की.

उत्तराधिकारी की घोषणा ना होने पर काशी विद्वतपीठ और भारत धर्म महामंडल ने इसकी जिम्मेदारी स्वरूपानंद को दे दी. स्वरूपानंद के शंकराचार्य बनने का विवाद 1973 से ही चल रहा है. स्वरूपानंद और वासुदेवानंद दोनों ने ही ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य के पद पर दावेदारी पेश की थी. मामला इलाहाबाद कोर्ट में गया.

कोर्ट ने नहीं मानी दावेदारी
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 2017 के अपने आदेश में दोनों की ही दावेदारी को ठुकरा दिया. कोर्ट ने वासुदेवानंद को इसके लिए अयोग्य बताया. और स्वरूपानंद की नियुक्ति को अवैध बताया. कोर्ट ने अखिल भारतीय धर्म महामंडल (साधुओं का संगठन) और काशी विद्वत परिषद (संस्कृत विद्वानों और संतों का संगठन) को अन्य तीन हिंदू मठों के प्रमुखों के परामर्श से योग्य शंकराचार्य चुनने का निर्देश दिया. कोर्ट ने कहा . . .आसान भाषा में कहें तो स्वरूपानंद को ज्योतिर्मठ का कार्यवाहक शंकराचार्य बनाया गया. कई मीडिया रिपोर्ट्स में लिखा गया कि स्वरूपानंद को कांग्रेस का और वासुदेवानंद को विश्व हिंदू परिषद का समर्थन प्राप्त था. स्वरूपानंद अपने निधन तक शंकराचार्य बने रहे. उनकी मौत के बाद अविमुक्तेश्वरानंद ने खुद को उनका उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने जब उनके ‘पट्टाभिषेक’ पर रोक लगाई तब कोर्ट ने कहा,

“पुरी में गोवर्धन मठ के शंकराचार्य ने हलफनामा दायर किया है कि उन्होंने ज्योतिर्मठ के नए शंकराचार्य के रूप में अविमुक्तेश्वरानंद की नियुक्ति का समर्थन नहीं किया है. इसलिए उनके अभिषेक पर रोक लगाई जा रही है.”

Avimukteshwaranand का दावा झूठा?
इस याचिका में अविमुक्तेश्वरानंद के उस दावे को झूठा बताया गया जिसमें उन्होंने कहा था कि स्वरूपानंद सरस्वती ने उन्हें ज्योतिष पीठ का उत्तराधिकारी चुना है. ये भी आरोप लगा कि किसी एक अयोग्य और अपात्र व्यक्ति को गलत तरीके से ये पद देने का प्रयास किया जा रहा है. आरोप ये भी लगे कि उनके चयन में संन्यासी अखाड़ों के साथ चर्चा नहीं की गई. हालांकि, इसके बावजूद अविमुक्तेश्वरानंद यहां के शंकराचार्य के रूप में काम कर रहे हैं.

राम मंदिर पर नाराजगी
अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए जब ट्रस्ट बनाया गया, तबसे लेकर मंदिर के बनने तक अविमुक्तेश्वरानंद की नाराजगी दिखती रही. वो नाराज रहे कि उनको ट्रस्ट का सदस्य नहीं बनाया गया. उन्होंने आरोप लगाया कि ट्रस्ट पर कुछ लोगों ने कब्जा कर लिया है. उन्होंने मंदिर के भूमि पूजन के लिए तय समय पर भी सवाल उठाया. कहा कि ये समय जानबूझकर तय किया गया है ताकि ‘शंकराचार्य’ इसमें हिस्सा नहीं ले सकें. जब राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह हुआ तब भी उन्होंने कहा कि मंदिर का निर्माण अभी पूरा नहीं हुआ है. उन्होंने कहा कि अधूरे मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा सही नहीं है.

अविमुक्तेश्वरानंद कांग्रेसी हैं?
वाराणसी में जब ‘काशी कॉरिडोर’ का निर्माण हो रहा था, तब भी उन्होंने सरकार को घेरा था. उन्होंने कहा कि काशी में हजारों साल पुरानी मूर्तियों को तोड़ा जा रहा है. उन्होंने कहा था कि यहां की स्थिति देखकर लग रहा है कि महाभारत हो रखा है. उन्होंने कहा,

“मैं इसका विरोध कर रहा हूं. अब सब कहेंगे कि मैं कांग्रेसी हो गया हूं. हम तो धर्म के लोग हैं, हमें राजनीति से क्यों जोड़ते हैं.”

कांग्रेस के नाम पर अविमुक्तेश्वरानंद ने सफाई क्यों दी? दरअसल, जानकार इनके कांग्रेस से करीब होने की बात बताते हैं. हालांकि, पुख्ता तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता. लेकिन इतना तो तय है कि इनके गुरु स्वरूपानंद कांग्रेस के करीब रहे. उन्होंने भाजपा और RSS के खिलाफ खुलकर मोर्चा खोला था. वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई बताते हैं कि उन्हें ‘कांग्रेस स्वामी’ कहा जाता था. उन्होंने कहा,

“स्वरूपानंद राम मंदिर ट्रस्ट के खिलाफ थे. वो चाहते थे कि शंकराचार्यों के नेतृत्व में राम मंदिर का निर्माण हो. एक वक्त पर सोनिया गांधी को स्वरूपानंद के लिए लगा था कि उन्हें भाजपा की हिंदूवादी राजनीति का काट मिल गया है. हालांकि, ऐसा हुआ नहीं.”

राजनीति में शंकराचार्यों की भूमिका
राजनीति में शंकराचार्यों की भूमिका पर रशीद किदवई कहते हैं,

“राजनीति और धर्म को अलग-अलग रखने की राय दी जाती है. कहा जाता है कि इन्हें आपस में मिलाना नहीं चाहिए. लेकिन आप आजादी के बाद से देखिए, महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू के बीच मतभेद रहा. गांधी धर्म और आस्था को महत्व देते थे. उनका मानना था कि धर्म को नजरअंदाज करना देश का उद्देश्य नहीं हो सकता. जबकि नेहरू धर्म और देश को अलग-अलग रखना चाहते थे. तभी से हिंदूवादी संस्थाओं ने धर्म को महत्व दिया. जिसमें भाजपा भी शामिल है. इन्होंने तमाम धर्मगुरुओं और शंकराचार्यों को जोड़ा. सब साथ-साथ चले. लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद चीजें बदलती हुई नजर आ रही हैं.”

‘Rahul Gandhi को Avimukteshwaranand का समर्थन’
इसी महीने लोकसभा में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एक बयान दिया. जिसपर विवाद हुआ. राष्ट्रपति के अभिभाषण के लिए धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस के दौरान उन्होंने BJP पर लोगों को सांप्रदायिक आधार पर बांटने का आरोप लगाया. जवाब में PM मोदी ने कहा कि राहुल ने पूरे हिंदू समुदाय को हिंसक बता दिया है. फिर राहुल का जवाब आया. उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी और BJP का मतलब पूरा हिंदू समुदाय नहीं है.

अविमुक्तेश्वरानंद ने राहुल के इस बयान का समर्थन किया. उन्होंने एक वीडियो में दावा किया कि राहुल गांधी का बयान हिंदू धर्म के खिलाफ नहीं है. उन्होंने कहा कि राहुल स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि हिंदू धर्म में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है. उन्होंने कुछ भी गलत नहीं कहा है.

Maharashtra में Uddhav Thackeray को समर्थन
इसके कुछ ही दिन बाद अविमुक्तेश्वरानंद का एक और बयान आया. उन्होंने महाराष्ट्र की राजनीति पर टिप्पणी की. उन्होंने उद्धव ठाकरे का समर्थन किया और कहा कि उनके साथ विश्वासघात हुआ है. उन्होंने कहा,

“हिंदू धर्म में सबसे बड़ा पाप विश्वासघात को बताया गया है. उद्धव ठाकरे के साथ विश्वासघात हुआ है. हमलोगों के मन में इस बात की पीड़ा है. जब तक वो दोबारा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री नहीं बन जाते तब तक ये पीड़ा दूर नहीं होगी. विश्वासघात करने वाला हिंदू नहीं हो सकता, जो विश्वासघात सह ले वो हिंदू है. लोकसभा चुनाव से ये प्रमाणित भी हो गया है कि उद्धव ठाकरे के साथ विश्वासघात हुआ है.”

केदारनाथ मंदिर से सोने की चोरी
अविमुक्तेश्वरानंद के एक और बयान ने तूल पकड़ लिया है. इसमें उन्होंने आरोप लगाया है कि उत्तराखंड के केदारनाथ धाम से 230 किलो सोने की चोरी हो गई है. अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद और निरंजनी अखाड़ा के अध्यक्ष रवींद्र पुरी ने इस मामले पर जवाब दिया है. उन्होंने कहा है कि अविमुक्तेश्वरानंद के पास अगर सोना चोरी का सबूत हैं तो उन्हें पुलिस या कोर्ट को सौंपे. उन्होंने कहा कि अगर उनके पास प्रमाण नहीं है तो सुर्खियों में बने रहने के लिए अनर्गल बयानबाजी ना करें.

चुनाव में PM मोदी के खिलाफ
एक रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में उन्होंने वाराणसी में PM मोदी के खिलाफ उम्मीदवार उतारने की कोशिश की थी. साल 2008 में गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने के लिए उन्होंने अनशन किया था. लेकिन तबीतय बिगड़ गई तो अस्पताल में भर्ती होना पड़ा. फिर अपने गुरू स्वरूपानंद के कहने पर अनशन खत्म किया.

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