कितना कारगर साबित हुआ स्वच्छ भारत अभियान?
केंद्र सरकार द्वारा गत छः वर्षों से जिस स्वच्छता अभियान का बिगुल बजाया जा रहा है, जिस स्वच्छता अभियान के नाम पर अब तक हजारों करोड़ रूपये खर्च किये जा चुके है. जिस महत्वाकांक्षी योजना के लिए अनेक नामचीन हस्तियों को ब्रांड अम्बेस्डर बनाया गया था और देश को यह दिखाने की कोशिश की गयी कि देश में पहली बार किसी सरकार ने सफाई के प्रति गंभीरता दिखाई है, आखिर आज छः वर्षों बाद वह अभियान कहां तक पहुंचा है? जिस तरीके से स्वच्छता अभियान का ढिंढोरा पीटा जा रहा था, उसे देखकर तो ऐसा ही लग रहा था कि जल्द ही अब हमारा देश विश्व के सबसे स्वच्छ कहे जाने वाले चंद गिने चुने देशों की पंक्ति में जा खड़ा होगा। परन्तु हकीकत तो ठीक इसके विपरीत है। इस खर्चीले स्वच्छता अभियान के शुरू होने से पहले सफाई को लेकर शहरों के जो हालात थे आज उससे भी बदतर स्थिति देखी जा रही है।
हरियाणा सरकार का बाल्टी बाटों अभियान
केंद्र सरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली हरियाणा सरकार ने भी स्वच्छता अभियान के नाम पर जिस तरीके से ढोल पीटा था वह आज महज तमाशा बन कर रह गया है। पूरे राज्य में कूड़ा रखने के लिए प्लास्टिक की बाल्टियां बांटी गयीं थीं। यह निश्चित रूप से जनता के पैसे की बर्बादी थी। इस ‘सरकारी बाल्टी’ वितरण से पहले भी जनता आखिर अपने-अपने घरों में कूड़ेदान का इस्तेमाल तो करती ही थी? तो फिर प्लास्टिक बाल्टी वितरण के नाम पर पैसों की बर्बादी क्यों? शहरों व कस्बों में अनेक स्थानों पर स्टील,प्लास्टिक अथवा टीन के कूड़ेदान लगाए गए। आज लगभग वह सभी कूड़ेदान नदारद हैं। घरों से कूड़ा इकठ्ठा करने के लिए निजी ठेकेदारों को ठेके दिए गए थे। कुछ ही दिनों तक घरों से कूड़ा उठाने का सिलसिला चला होगा कि कूड़ा इकठ्ठा करने वाले कर्मचारियों ने आना बंद कर दिया। पूछने पर पता चला कि उन्हें ठेकेदार पैसे नहीं दे रहा है। ऐसा इसलिए कि सरकार ठेकेदार को पैसे नहीं दे रही है। बमुश्किल यह योजना कुछ ही समय तक चली। सरकार ने कूड़ा इकठ्ठा करने के नाम पर जनता से पैसों की वसूली भी शुरू कर दी जो आज भी जारी है। परन्तु अब जो व्यक्ति कूड़ा इकठ्ठा करने घर घर जाता है वह पचास रूपये प्रति माह प्रत्येक घरों से वसूल करता है। और सरकार न जाने किस बात का पैसा इसी कूड़ा संग्रहण के नाम पर ले रही है? इसी प्रकार जहाँ तक नाली व गली मोहल्ले की सफाई का प्रश्न है तो सरकार इस मोर्चे पर भी पूरी तरह नाकाम है। नालियों की सफाई करने व कूड़ा उठाने के लिए जो नगर निगम सफाई कर्मचारी नियमित रूप से प्रतिदिन या एक दो दिन छोड़ कर आया करते थे अब उन्होंने लगभग बिल्कुल ही आना बंद कर दिया है। एक सफाई निरीक्षक ने बताया कि जहां 50 सफाई कर्मियों की जरुरत है वहां मात्र 23 कर्मचारियों से काम चलाया जा रहा है। ऐसा क्यों है? यह पूछने पर जवाब मिला की सरकार नए सफाई कर्मियों की भर्ती नहीं कर रही है।
नगर निगमों की सुस्ती
यह भी पता चला की अक्सर इन मेहनतकश सफाई कर्मचारियों की कई-कई महीने की तनख्वाहें भी रुकी रहती हैं। इस स्थिति में यदि आप अपने गली मोहल्ले की नाली की सफाई कराना चाहें तो आपको नगर निगम या नगर परिषद् /पालिका को फोन कर अपनी सफाई संबंधी शिकायत लिखवानी पड़ेगी। उसके बाद 2 दिन से लेकर 15-20 दिनों के बीच आपकी शिकायत पर अमल होने की संभावना है। यदि कोई सफाई कर्मचारी इतने लंबे समय बाद आकर नाली का कचरा निकाल कर नाली के बाहर ही छोड़ देगा। इसके बाद आपको उस निकले हुए कचरे को उठाने के लिए पुनः शिकायत लिखवानी पड़ेगी। फिर इसी तरह दस पंद्रह दिन बाद शायद कोई वाहन आकर कूड़ा उठा ले जाए। पहले नगरपालिकाओं व निगमों में दो पहिया वाली गाड़ियां होती थीं जो नियमित रूप से गली मोहल्ले में जाकर कूड़ा उठाने में इस्तेमाल होती थीं। अब वह गाड़ियां भी समाप्त गयी हैं। जब कर्मर्चारियों से पूछा जाता है कि वे नियमित रूप से कूड़ा उठाने या नालियां साफ करने क्यों नहीं आते तो जवाब मिलता है कि वे वहीँ जा सकते हैं जहाँ जाने का आदेश होगा। जाहिर है गांव से लेकर कस्बे शहरों और महानगरों तक हर जगह चूंकि संपन्न या तथाकथित विशिष्ट लोगों के मुहल्लों या इलाकों की सफाई प्राथमिकता के आधार पर होती है लिहाजा इनकी ड्यूटी भी प्राथमिकता के आधार पर उन्हीं इलाकों में लगती है।
बरसात में बहती सच्चाई
नालों व नालियों की नियमित सफाई न हो पाने का ही नतीजा है कि मामूली सी बरसात में भी सभी नाले-नाली ओवरफ्लो हो जाते हैं। परिणामस्वरूप नालियों का पानी लोगों के घरों में घुस जाता है। केवल नाले-नालियां ही नहीं बल्कि सीवर लाइन भी पूरी तरह जाम पड़ी हुई है। संबंधित अधिकारियों से यदि आप शिकायत करें तो भी कोई सुनवाई करने वाला नहीं। जरा सी बारिश में सीवर के मेनहोल भी ओवरफ्लो हो जाते हैं और इनका गन्दा बदबूदार पानी लोगों के घरों में भी वापस जाता है और इनके मेनहोल के ढक्कनों से भी निरंतर निकलता रहता है। कई सीवर मेनहोल तो ऐसे भी हैं जहाँ बिना बारिश हुए भी गन्दा पानी हर समय बाहर निकलता रहता है। मगर सरकार को तो उसे अपनी पीठ थपथपाने से ही फुर्सत नहीं मिलती है। सरकार द्वारा स्वच्छता अभियान के नाम पर पूरे देश में शौचालयों का निर्माण कराया गया था। आज उन शौचालयों की स्थिति कितनी दयनीय है यह देखा जा सकता है। यह बताने की जरुरत नहीं कि ठेके पर निर्मित शौचालयों के निर्माण में ‘राष्ट्र भक्त’ ठेकेदारों द्वारा संबध अधिकारियों की मिलीभगत से किस तरह की सामग्री का प्रयोग किया जाता है।
धराशाही अभियान
आज फिर लगभग सभी शहरों में जगह जगह कूड़े के ढेर दिखाई देने लगे हैं। गोवंश, सूअर व कुत्ते आदि उन कूड़े के ढेरों की न केवल शोभा बढ़ा रहे हैं बल्कि उन्हें चारों ओर बिखेरते भी रहते हैं। एक ओर तो सरकार के पास नए सफाई कर्मचारियों को भर्ती करने के लिए धन की कमी है। यहां तक कि सरकार अपने वर्तमान कर्मचारियों को सही समय पर वेतन भी नहीं दे पाती। इन हालात में बड़े बड़े पार्कों व गोल चक्कर तथा तालाब आदि के जीर्णोद्धार के नाम पर अंधाधुंध पैसे खर्च करने का आखिर क्या औचित्य है? और वह भी ऐसे सार्वजनिक स्थलों पर धौलपुरी से लेकर ग्रेनाइट के पत्थरों तक के इस्तेमाल पर सैकड़ों करोड़ रूपये खर्च कर देना ? जनता को गंदगी से निजात दिलाना, नए सफाई कर्मियों की भर्ती करना, नगर पालिका व निगमों में कूड़ा उठाने वाली छोटी गाड़ियां खरीदना, समय पर सफाई सेनानियों को वेतन देना, नियमित रूप से नालों व गली मोहल्ले की नालियों की सफाई कराना आदि सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। जब तक जनता को अस्वछता के वर्तमान वातावरण से मुक्ति नहीं मिलती तब तक सरकार के स्वच्छता अभियान को धराशाही हुआ ही समझना चाहिए।