स्त्री चाहे क्रांतिकारी हो या वैज्ञानिक, वह देश को आजादी दिलाए या फिर बल्ब बनाए,
रहेगी तो औरत ही जिसे देखकर पुरुष लार टपकाता रहे
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दक्षिण-पश्चिम इटली में एक शहर है सप्री। सुस्ताते हुए इस शहर में दोपहर को बसों या कारों की नहीं, बल्कि समंदर की आवाजें गूंजती हैं। शाम का अंधेरा भी यहां इटली के बाकी चमकीले शहरों से पहले घिर आता है। बत्तियां बुझने के साथ घरों के दरवाजे बंद होते हैं तो सूरज उगने पर ही खुलते हैं। कुल 7 हजार की आबादी वाला ये छोटा-सा शहर अब चर्चा में है।
इसकी वजह है कांसे की बनी एक स्त्री-देह। 19वीं सदी की एक इटालियन कविता को सम्मान देने के लिए ये मूर्ति बनाई गई। खूब धूमधाम और टीमटाम के साथ मूर्ति से कपड़ा हटा। कई मिनट तक तालियां बजीं। अब इसी कांसे की मूर्ति को हटाने की मांग हो रही है। दरअसल युवा स्त्री की इस मूरत ने झीने कपड़े पहने हुए हैं, वह भी नाममात्र के। इसके अलावा लंबी उंगलियों वाला उसका तराशा हुआ हाथ छाती पर रखा है।
यह मूर्ति खेतों में अनाज इकट्ठा करने वाली उस जवान औरत की है, जो इटली की क्रांति में शामिल होने के लिए अनाज का अपना तसला फेंक देती है। खेतों से निकलकर वह जाती है और बागियों की भीड़ को चीरती हुई सबसे आगे खड़ी हो जाती है। गोलियां चलती हैं और युवा किसान स्त्री मारी जाती है। उसका चेहरा फ्रीज हो जाता है। खून से लथपथ, लेकिन बदलाव की उम्मीद में दमकता हुआ। गहरे-सुनहरे बाल धूल से लिथड़े हुए, लेकिन कल के रेशम का वादा करते हुए। और कपड़े! हल्के काम वाली सूती की मोटी स्कर्ट और सूती की ही कमीज।
बाद में इटालियन कवि लुइजी मिरकन्तिनी ने इटली की क्रांति पर एक कविता लिखी। कविता की हीरोइन यही लड़की थी। अब ये लड़की सप्री शहर की हरियाली के बीच खड़ी है। कांसे में बदलकर! औरत में बदलकर! इटली की महिलाओं का कहना है कि मूर्ति को लगभग नग्न बनाना क्रांति में हिस्सा लेने वाली महान स्त्रियों से नाइंसाफी है। एक तर्क ये भी है कि स्त्री चाहे क्रांतिकारी हो या वैज्ञानिक- वह देश को आजादी दिलाए या फिर बल्ब बनाए- रहेगी औरत ही।
महिला राजनेता भी इससे बच नहीं सकतीं। ब्रिटिश कंजर्वेटिव पार्टी की नेता ईस्टर मैकवे को गुलाबी कोट और स्टॉकिंग्स पहनने के कारण जांघ-दिखाऊ नेता तक कह दिया गया। उनके सुनहरे बालों पर कमेंट करते हुए उन्हें पुरुष वोटरों को लुभाने वाला कहा गया। गौर करें, ये सारे कमेंट्स आम ब्रिटिश पुरुष ने नहीं किए, बल्कि ये कमेंट प्रतिष्ठित मीडिया हाउसेज ने किए। यहां तक कि ईस्टर समेत महिला नेताओं के सदन से बाहर आने और चलने-फिरने पर कमेंट करते हुए इसे डाउनिंग स्ट्रीट कैटवॉक तक कह दिया गया।
आर्ट की बात करें तो औरत कला में है तो, लेकिन कलाकार नहीं, बल्कि कलाकृति की तरह। कलाकार होने का रुतबा मर्द के पास है। मर्द के सुलझे हुए हाथों से छूकर ही कोई औरत कला का नमूना बन पाती है, फिर चाहे वो पेंटिंग हो या फिर मूर्ति।
स्टडी बताती है कि मॉडर्न आर्ट सेक्शन में केवल 5% ही कलाकार महिलाएं हैं, लेकिन यहां शामिल लगभग 85% कलाकृतियां नग्न औरतों की है। साल 1989 में गुरिल्ला गर्ल्स नाम की फेमिनिस्ट संस्था ने सबसे पहले कला दीर्घाओं में इस मुद्दे को उठाया। हालांकि इसका कोई फायदा नहीं हुआ। आर्ट गैलरीज में अब भी धड़ल्ले से या तो पूरी तरह से नग्न या फिर झीने कपड़ों में औरत को उकेरा जाता है। कहीं-कहीं नग्न पुरुषों की मूर्ति या चित्र भी बन रहे हैं, लेकिन इस तरह से, जिससे उनकी ताकत दिखे। चौड़ा सीना, आंखों में दुनिया जीतने की ललक, होंठ सख्ती से भिंचे हुए।
दूसरी तरफ औरत की तस्वीर में कामुकता ही दिखेगी- होंठ अधखुले, बाल बिखरे हुए, झीना आंचल एक तरफ ढुलककर हवा में लहराता हुआ, और आंखों में आमंत्रण। दुनिया में तबाही मची हो, जंगल हरियाली की जगह आग उगल रहे हों या फिर लोग भूख से दम तोड़ रहे हों, लेकिन मूर्ति बनेगी तो नग्न औरत की ही। वो औरत, जिसकी सूखी छाती को भूख से बिलबिलाता उसका बच्चा चिचोड़ रहा हो- वह आर्ट गैलरी से गायब रहेगी। ऐसी सच्ची, लेकिन कंगाल तस्वीरें किसी को महान कलाकार नहीं बनातीं। महान बनने के लिए चाहिए, स्त्री-देह, जो भरी हुई हो और जिसमें मादकता हो।
ये नग्नता भी तभी कंप्लीट होगी, जब कैनवास पर फिरते हाथ किसी पुरुष कलाकार के हों। इटली में भी यही हुआ। पुरुष कलाकार इमैनुएले स्तिफानो ने अनाज बीनने वाली मजदूर युवती को मदालसा में बदल दिया, जिसके वक्ष कसे हुए हैं और निचला हिस्सा उभार लिए हुए। अपनी कला को ज्यादा से ज्यादा दिखाने की ललक में मूर्ति को लगभग नग्न बना दिया गया, बगैर ये सोचे कि 19वीं सदी की इटली में खेतिहर मजदूरन सारा दिन पसीने से लथपथ रहती थी, और वही कपड़े पहनकर रात में सो भी जाया करती थी।
अब इटली की औरतें मूर्ति को ‘बगैर आत्मा का शरीर’ कहते हुए उसे तोड़ने की मांग कर रही हैं। इसमें कुछ गलत भी नहीं। खासकर अगर हम 19वीं सदी की वह कविता पढ़ें, जिसकी नायिका के नाम पर ये मूर्ति बनी। कविता के बोल हैं…
वे तीन सौ थे, जवान और मजबूत भी
लेकिन वे मुर्दा थे
उस सुबह मैं अनाज के दाने बीनना भूल गई,
और उनके साथ ट्रेन में बैठ गई
दो बार उनका सामना सैनिकों से हुआ
दो दफे उनके कंधों से बांहें उखाड़ दी गईं
लेकिन जब हम करीब पहुंचे
ढोल की थाप और तुरही की आवाजें गूंज रही थीं
और धुएं के बीच फायरिंग और चकाचौंध
यहीं हजारों लोगों ने उन पर हल्ला बोल दिया
वे तीन सौ थे, जवान और मजबूत भी
लेकिन वे मुर्दा थे…