BJP मुस्लिम सीट कैसे जीत रही है? :-
50 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम आबादी वाले रामपुर और 40% से ज्यादा मुस्लिम-यादव आबादी वाले आजमगढ़ में हुए लोकसभा उपचुनावों में भाजपा की शानदार जीत बड़े बदलाव का संकेत दे रही है।
50 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम आबादी वाले रामपुर और 40% से ज्यादा मुस्लिम-यादव आबादी वाले आजमगढ़ में हुए लोकसभा उपचुनावों में भाजपा की शानदार जीत बड़े बदलाव का संकेत दे रही है। अगर चुनावी सर्वे करने वाली एजेंसियां भाजपा के लिए सबसे मुश्किल यानी असंभव जीत वाली सीटों की बात करतीं तो शायद रामपुर और आजमगढ़ टॉप पर होते। इनकी डेमोग्राफिक्स (जनसांख्यिकी) ने लंबे समय तक यहां सपा की स्थिति को मजबूत बनाए रखा। यही वजह थी कि आजमगढ़ से 2014 के लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव और 2019 में अखिलेश यादव जीते। ऐसे में सवाल उठता है कि इस उपचुनाव में ऐसा क्या हो गया कि सपा का पूरा गणित ही गड़बड़ा गया? ‘द न्यू बीजेपी’ नाम से किताब लिखने वाले लेखक नलिन मेहता ने उपचुनाव के नतीजों पर हमारे सहयोगी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में विश्लेषण किया है।
वह लिखते हैं कि तीन महीने पहले जब योगी आदित्यनाथ स्वतंत्रता के बाद ऑफिस में दोबारा लौटने वाले यूपी के पहले सीएम बने, तो भी आजमगढ़ की सभी 10 विधानसभा सीटों पर सपा ने ही जीत हासिल की थी। लेकिन ‘लाल टोपी’ के इस गढ़ में भाजपा ने अब कमल खिला दिया है। बुलडोजर पॉलिटिक्स, भारतीय सेक्युलरिज्म के भविष्य पर होती चर्चाओं, विरोधियों के ‘जहरीले बहुसंख्यकवाद’ की बातों के बीच इन चुनाव नतीजों के क्या मायने हैं?
वास्तव में, मुस्लिमों के प्रभाव वाली सीटों पर भगवा दल की जीत 2014 से बदलते पैटर्न का हिस्सा दिखाई देती है। चुनावी लिहाज से देखें, तो 2014 से भाजपा के किसी भी राष्ट्रीय या स्टेट इलेक्शन में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में न उतारने के फैसले के स्पष्ट मायने निकाले जाते रहे हैं। आलोचक यह कहकर इस नीति की व्याख्या करते हैं कि मुस्लिम मतदाताओं के लिए ये एक संकेत है कि वे उनकी तकदीर को प्रभावित नहीं करते हैं। यह सीधे-सीधे कुछ ऐसा हुआ जैसे हमें आपकी जरूरत ही नहीं है।
भाजपा की जीत 2009 से 19 तक के लोकसभा चुनावों को देखें तो हिंदीभाषी क्षेत्रों में जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा थी, वहां 2009 में भाजपा को 1 सीट मिली थी। 2014 में भगवा दल ने 9 और 2019 में 13 सीटें जीत लीं। अगर यूपी की बात करें तो 2009 के चुनाव में मुस्लिम प्रभाव वाली कोई भी सीट भाजपा नहीं जीत सकी थी लेकिन 2014 में 8 सीटें और 2019 में 11 सीटों पर कमल खिला।
क्या मुस्लिमों ने किया भाजपा को सपोर्ट?
नलिन मेहता साफ कहते हैं कि यह जीत इसलिए नहीं मिली कि भाजपा को जबर्दस्त मुस्लिम सपोर्ट मिला बल्कि इन क्षेत्रों में हिंदुओं का वोट लामबंद हो गया। आमतौर पर ऐसा देखा जाता है कि इन चुनाव क्षेत्रों में विरोधी पार्टियां मुस्लिम उम्मीदवार को ही मैदान में उतारती हैं जबकि भाजपा ने हिंदू कैंडिडेट ही खड़ा किया और उसका फायदा यह हुआ कि हिंदू वोट कंसोलिडेट (एकतरफा) हो गया। 2022 में रामपुर में दोतरफा चुनाव में भाजपा को जीत मिली। एक तरफ कमल के निशान पर OBC उम्मीदवार घनश्याम सिंह लोधी थे तो दूसरी तरफ सपा ने मोहम्मद आसिम राजा को खड़ा किया था।
आजमगढ़ में भाजपा की तरफ से लोकप्रिय भोजपुरी गायक दिनेश लाल यादव ‘निरहुआ’ मैदान में थे और उन्हें बसपा के गुड्डू जमाली से काफी फायदा मिला, जिन्हें 2.6 लाख वोट (29.27 फीसदी) मिले। इससे मुस्लिम वोट बंट गया, जो तीन महीने पहले सपा के लिए एकजुट था। हिंदी हर्टलैंड (11 हिंदी भाषी राज्य) में कुल 19 लोकसभा सीटें हैं, जहां 30 फीसदी मुस्लिम वोटर्स हैं। इनमें से 2009 में भाजपा ने केवल पांच सीटें जीती थीं, 2014 में उसे 14 और 2019 में सात सीटों पर जीत मिली।
इससे साफ है कि 2019 में इन मुस्लिम प्रभाव वाली सीटों पर उसका सपोर्ट बेस घटा है। हालांकि वोट शेयर से पता चलता है कि पिछले दशक में इन सीटों पर उसने गहरी पैठ बनाई है। 2009 में भाजपा ने 40 प्रतिशत से ज्यादा वोट शेयर वाली 19 मुस्लिम बहुल सीटों में से केवल एक पर सफलता हासिल की थी। यह आंकड़ा 2014 में बढ़कर 9 और 2019 में 13 पहुंच गया।
इसी तरह, यूपी में (19 मुस्लिम प्रभाव वाली सीटों में से 13 यहीं हैं) भाजपा ने 2009 में केवल एक सीट जीती थी, 2014 में उसने सभी 13 सीटें और 2019 में केवल पांच सीटें जीतीं। नतीजों से एक धारणा यह बनती है कि 2014 में मुस्लिम समुदाय मोदी की तरफ आकर्षित हुआ था लेकिन 2019 आते-आते उसका मोहभंग हो गया।
वोट शेयर से पूरी कहानी साफ हो जाती है। भाजपा ने 2019 में यूपी में 13 मुस्लिम प्रभाव वाली सीटों में से 11 पर 40 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल किए। दूसरा महत्वपूर्ण फैक्टर भाजपा का ओबीसी झुकाव है, जिसने 2014-19 में यूपी में शानदार जीत दिलाई। रामपुर में उसका विजयी उम्मीदवार एक गैर-यादव ओबीसी है। अखिलेश के लिए यह चिंता की बात है कि आजमगढ़ में भाजपा ने उनके चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव के खिलाफ एक यादव ओबीसी कैंडिडेट उतारकर जीत हासिल कर ली।
यादव परिवार से होने का मतलब जीत नहीं ये नतीजे वंशवाद की राजनीति के लिए भी चेतावनी भरे संकेत दे रहे हैं। महज प्रभावशाली यादव परिवार से होना ही अब जीत की गारंटी नहीं हो सकती, जैसा पहले होता आया है। मेहता-सिंह इंडेक्स के तहत जातीय राजनीति पर भी पैटर्न को समझा जा सकता है।
भाजपा में ओबीसी-एससी का वर्चस्व इंडेक्स में बताया गया है कि 2019 में भाजपा के 57.5 प्रतिशत लोकसभा उम्मीदवार, 2017 में उसके 52.8% विधानसभा उम्मीदवार, राज्य में 50% पदाधिकारी और आदित्यनाथ की मंत्रिपरिषद में 48.1% सदस्य ओबीसी या SC रहे हैं। अब तक सोशल इंजीनियरिंग में सफलता गैर-यादव ओबीसी से मिलती रही।इस तरह 2022 यूपी विधानसभा चुनावों में भाजपा का सामाजिक गठबंधन सफल रहा और इसने न सिर्फ पार्टी को मजबूती प्रदान की बल्कि सपा के कोर मुस्लिम-यादव गठजोड़ में भी पहली बार दरार पैदा कर दी।
तो 2024 में भी ऐसा ही होगा!
नलिन कहते हैं कि 2022 के विधानसभा चुनावों में मायावती के वोट में कमी से भाजपा को फायदा हुआ। उपचुनावों (16.5% वोट, मार्च में था 12.9%) में उसकी शानदार जीत ने विपक्षी वोटों को अलग कर सपा को नुकसान पहुंचाया है। एक तरफ भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग गहरी पैठ जमा रही है तो दूसरी तरफ हिंदी हर्टलैंड में विपक्षी एकता की कमी ने मोदी को फायदे में रखा है। कुछ ऐसी ही सियासी जमीन 2024 के चुनावी समर के लिए भी तैयार दिखती है