रेप से गुजरी लड़की कहीं की नहीं होती, चना-मूढ़ी की तरह उसके कैरेक्टर का ठेला सजा दिया जाता है,
लेकिन रेप की मंशा रखने वाला मौज उड़ाता घूमता है
नील नदी के देश मिस्र में एक पुराना शहर हुआ करता था। राइनोकॉररा नाम के इस शहर में भरपूर पानी था। खूब हरियाली थी और लंबे-नक्काशीदार किले-महल थे। बस, एक ही बात अजीब थी कि वहां औरतों के चेहरे हरदम ढंके होते। चाहे वे कितना ही पसीना-बहाऊ काम कर रही हों, चेहरा कपड़े से ढंका होगा। महीन, लेकिन गहरे रंग के कपड़े वाला ये आंचल ऐसा होता कि नाक छिपी रहे। नहीं-नहीं! वहां औरतों की नाक का खानदान की शान से कोई रिश्ता नहीं था। मसला कुछ और था।
असल में वहां की तमाम औरतें ‘बे-नाक’ थीं और उनका जुर्म था ‘बदचलनी’। मिस्र के कानून के मुताबिक पति से जरा भटकने वाली स्त्री की नाक सुपारी से भी बारीक कतर दी जाती। भले ही स्त्री का मियां व्यापार या जंग के सिलसिले में सालों बाहर रहे, भले ही वह दुनियाभर की औरतें अपने हरम में रख छोड़े, लेकिन औरत को भटकने की मनाही थी। जहां औरत ने किसी दूसरे मर्द की तरफ निगाह की, फटाक से उसकी नाक काट दी जाती।
नाक-कटी स्त्री न तो रजवाड़े में भली लगेगी, न ही मामूली मर्द भी उन्हें सह पाएंगे। लिहाजा उन्हें राइनोकॉररा भेजा जाने लगा। धीरे-धीरे पूरा शहर बे-नाक औरतों से भर गया। पुरुष वहां जाते, काली रात में बिना नाक की औरतों से दिल बहलाते और वापस लौट जाते।
मिस्र की ‘बदचलन’ औरतों के बाद अब चलिए अपने देश के एक राज्य बिहार की सैर पर…
दरअसल मधुबनी जिले की एक अदालत ने एक युवक को गांव की सभी महिलाओं के कपड़े धोने की सजा दी है। युवक का जुर्म था छेड़छाड़ और रेप की कोशिश। रेप की कोशिश रंग नहीं ला सकी, उसे छेड़छाड़ पर ही संतोष करना पड़ा। ऐसे कमजोर युवक को सजा भी भला क्या दी जाए! तो निचली अदालत ने प्रयोग करते हुए उसे गांव की औरतों के कपड़े धोने की सजा दे दी। अपनी तरफ से सजा को ज्यादा सख्त बनाते हुए कोर्ट ने ये भी कह दिया कि दोषी को कपड़े धोने ही नहीं हैं, बल्कि इस्तरी करके घर-घर पहुंचाना भी है। कोर्ट की सोच है कि पनघट पर साबुन डालकर कपड़े फींचते हुए युवक का चरित्र भी कपड़ों जैसा साफ-शफ्फाक हो जाएगा।
फैसला लेते हुए कोर्ट कई वाकये भूल गई। एक किस्सा पड़ोसी राज्य उत्तरप्रदेश के मेरठ का है। वहां इसी साल मार्च महीने में महिलाएं अपने कपड़े घर के भीतर सुखाने लगीं। मार्च का महीना, न बारिश हो रही थी और न ही कोई तूफान आया था। बस हो ये रहा था कि कुछ युवक बाइक पर घूमते हुए औरतों के अंदरूनी कपड़े चुराने लगे थे। देश के अलग-अलग हिस्सों से अलग-अलग साल-महीनों में ऐसी खबरें आती रहती हैं। चुराने वाले चेहरे बदल जाते हैं, लेकिन इरादा वही- जनाना कपड़े चुराना।
इसे पढ़ी-लिखी भाषा में पैंटी-फेटिश कहते हैं। ये एक तरह की मानसिक बीमारी है, जिसका मरीज या तो औरतों के कपड़े चुराने लगता है, या फिर दौलतमंद हुआ तो इस्तेमाल किए हुए कपड़े खरीदने लगता है। जापान में इसकी लंबी-चौड़ी इंडस्ट्री है, जिसे बुरुसेरा कहते हैं। वहां मर्द जनानियों के पहने हुए भीतरी कपड़े ऊंची कीमत पर खरीदते हैं। जापान में ये सब खुले में होता है, वहीं बाकी दुनिया में इंटरनेट पर ऐसी खरीदी-बिक्री चलती है।
मुमकिन है कि बिहार की कोर्ट का बाहरी दुनिया से ज्यादा वास्ता न पड़ा हो। बहरहाल मासूम कोर्ट ने पहले से ही बीमार एक युवक को सजा की बजाय बीमारी बढ़ाने की दवा दे दी। अव्वल तो औरतें उसे अपने कपड़े धोने को देंगी नहीं। और अगर कोई फौलाद-कलेजा औरत ऐसा कर भी दे तो गांव वाले ही उसका जीना मुश्किल कर देंगे। खुद ही अंदाजा लगाइए, जो औरतें अपने अंदरूनी कपड़ों को मोटे तौलिए या फिर साड़ी के नीचे दबाकर सुखाती हैं, वे भला कैसे एक यौन-अपराधी को कपड़े धोने दे सकेंगी! तो होगा ये कि युवक दोबारा पूरे गांव में छुट्टा घूमेगा और एक बार फिर अपराध की योजना बना डालेगा।
इधर छेड़छाड़ पर एक अदालत ने दोषी को कपड़े धोने को कह डाला, वहीं असम की निचली अदालत ने एक महिला को उम्र कैद सुना दी। महिला का अपराध ये था कि वह अपने पति की असमय मौत पर बुक्का फाड़कर नहीं रो सकी, बल्कि हौले-हौले सिसक रही थी। नवंबर, साल 2018 के इस मामले में ‘बिना आंसू वाली औरत’ ने कोर्ट को इतना हैरान कर दिया कि वह औरत को ही मुजरिम मान बैठी।
बकौल कोर्ट, एक पत्नी का अपने पति की मौत पर न रोना अप्राकृतिक आचरण है। ऐसे आचरण वाली पत्नी को सही रास्ते पर लाना कोर्ट का फर्ज था। तो फर्ज निभाते हुए अदालत ने उसे उम्र कैद दे दी। बाद में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आरएफ नरीमन और जस्टिस नवीन सिन्हा की बेंच ने महिला को रिहा करवाया। उसने कहा कि न रोना, हत्या का सबूत नहीं।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक देश में रोज करीब 77 रेप होते हैं। ये वे मामले हैं, जो थाने तक पहुंचते हैं। खुद एजेंसी मानती है कि ज्यादातर केस सामने नहीं आते। अब सजा की बात करें तो हर 100 मामलों में से 30 में ही दोषी को सजा मिल पाती है, वह भी लंबी जूता-घिसाई और थुक्का-फजीहत के बाद। रेप से गुजरी लड़की अगर शादी की उम्र की है तो चुपके से उसकी कहीं भी शादी कर दी जाती है।
अगर शादी पहले से तय है तो रेप के बाद रिश्ता टूटना तय है। अगर वह पढ़ाई कर रही हो तो स्कूल छूटेगा। अगर उम्रदराज और गहने-कपड़ों की शौकीन रही हो तो तमाम शौक की लकड़ी सजाकर उसे चिता पर बिठा दिया जाएगा। अगर वह ब्याहता हुई तो पति मुंह मोड़ लेगा, छोड़ी हुई हो तो चना-मूढ़ी की तरह हर कोई उसके कैरेक्टर का ठेला सजाएगा। लब्बोलुआब ये कि रेपिस्ट मौज में घूमते हुए दूसरे रेप की प्लानिंग कर सकता है, लेकिन रेप सर्वाइवर का जीना छूट जाएगा। ऐसे में रेप की मंशा रखते युवक को कपड़े धोने की सजा मिलना पढ़ने में मजेदार भले लगे, लेकिन है काफी गंभीर बात।
अजीबो-गरीब सजाओं का जिक्र चल ही निकला तो एक किस्सा याद आता है। 18वीं सदी में यूरोप में अपराधी को जेल नहीं भेजा जाता था, बल्कि उसके चेहरे पर किसी खूंखार जानवर का मास्क लगा दिया जाता था। इसके बाद उसे सड़कों पर छोड़ दिया जाता। लोग उसे देखते, मजाक उड़ाते और दूर हो जाते। ये मास्क एक-दो रोज नहीं, बल्कि पूरी जिंदगी लगाए रखना था। इसे शेम-मास्क कहा गया। क्या ही अच्छा होता, अगर मधुबनी कोर्ट कपड़े धोने के बजाय उस युवक को ऐसा ही कोई मुखौटा पहना देती। वह जहां-जहां जाता, शर्मिंदगी और नफरत की लहर उसके साथ होती।