अमेरिका का सुप्रीम कोर्ट किन पांच फ़ैसलों से देश की सूरत बदल सकता है?

पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने चार साल के कार्यकाल के दौरान सुप्रीम कोर्ट में तीन कंज़रवेटिव जजों को नियुक्त किया था.

उस समय से लोगों को लग रहा है कि सुप्रीम कोर्ट देश के कई गरमागरम और पेचीदा राजनीतिक और क़ानूनी मसलों से निपटने की अपनी क़वायद जल्द शुरू करेगा. सोमवार से अदालत का नया कार्यकाल शुरू होते ही हो सकता है वो समय अब आ गया है.

आने वाले समय में जिन मामलों पर सुनवाई होनी है, उनमें गर्भपात, बंदूक़ संस्कृति पर नियंत्रण, मृत्युदंड, गोपनीयता और राष्ट्रीय सुरक्षा, धार्मिक आज़ादी जैसे विषय शामिल हैं.

माना जा रहा है कि इन मामलों पर आने वाले फ़ैसले अमेरिका की अदालतों के लिए मिसाल तो बनेंगे ही, साथ ही वहां के समाज के ताने-बाने को भी बदल कर रख सकते हैं.

ताज़ा घटनाक्रम को लेकर कुछ राजनीतिक कार्यकर्ता ख़ासकर वामपंथी विचारधारा के लोग सक्रिय हुए हैं. कइयों ने न्यायपालिका की अथाह शक्ति को लेकर सख़्त चेतावनी भी दी है. उन्होंने वो तरीके़ बताए हैं जिससे सुप्रीम कोर्ट की ताक़त पर लगाम लगाई जा सके. लोगों का सुझाव है कि इसके लिए सुप्रीम कोर्ट की संरचना को बदलने या उनके अधिकार कम करने की ज़रूरत है.

अदालत के कंज़रवेटिव जजों पर अपने राजनीतिक एजेंडे चलाने के आरोप लगे हैं. इन आलोचनाओं ने सुप्रीम कोर्ट को झकझोर कर रख दिया है.

जस्टिस सैमुअल अलिटो ने कहा है कि उनके आलोचक “अदालत को डराने-धमकाने की अप्रत्याशित कोशिश” कर रहे हैं.

उदारवादी जज रूथ बेडर गिन्सबर्ग की अक्टूबर 2020 में हुई मौत के बाद उनकी जगह लेने वाली जस्टिस एमी कोनी बैरेट ने जजों को पक्षपाती बताने वाले लोगों का पुरज़ोर विरोध किया है.

सुप्रीम कोर्ट में सबसे लंबे समय से काम कर रहे क्लेरेंस थॉमस ने मीडिया पर ऐसी धारणा बनाने का आरोप लगाया है कि जज भी किसी नेता की तरह ही अपनी “निजी प्राथमिकताओं” के लिए काम करते हैं.

हालांकि कंज़रवेटिव जज यदि गर्भपात की सुरक्षा ख़त्म करने जैसे कई बड़े मामलों पर मिलकर वोट कर दें, तो प्र​गतिशील लोगों के सारे प्रयास बेकार हो जाएंगे.

गर्भपात का मुद्दा

सुप्रीम कोर्ट के हाल के इतिहास के ये सबसे चर्चित मामलों में से एक होगा.

गर्भपात का विरोध करने वाले कार्यकर्ताओं का मानना ​​​​है कि कंज़रवेटिव के दबदबे वाला सुप्रीम कोर्ट लगभग पांच दशक पहले रो वर्सेज़ वेड के ऐतिहासिक मामले में दिए गए नज़ीर को पलट सकता है. साथ ही राज्यों को गर्भकाल के पहले छह महीनों के दौरान गर्भपात कराने पर नए प्रतिबंध लगाने की अनुमति दे सकता है.

इसमें मिसिसिपी का एक क़ानून भी शामिल है. इसके तहत गर्भधारण करने के 15 सप्ताह के बाद गर्भपात के ज़्यादातर मामलों पर रोक लगाई गई है. इस क़ानून को शुरू से इसलिए ही बनाया गया था कि राजनीतिक रूप से गर्म रहने वाले इस मसले पर अदालत को अपना रुख़ बदलने का मौक़ा मिल सके.

बंदूक़ रखने के अधिकार का मामला

अमेरिका के संविधान के दूसरे संशोधन से नागरिकों को “हथियार रखने का अधिकार” मिला था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिकार को परिभाषित करने के लिए अब तक बहुत कम प्रयास किए हैं.

2008 में डिस्ट्रिक्ट ऑफ़ कोलंबिया बनाम हेलर के एक ऐतिहासिक मामले में सब कुछ बदल गया. उस फ़ैसले में जजों के मामूली बहुमत से हैंडगन रखने वाले एक नागरिक के संवैधानिक अधिकार को बरक़रार रखा गया था.

बंदूक़ रखने के अधिकार की वकालत करने वालों के निशाने पर न्यूयॉर्क जैसे बड़े शहरों और राज्यों के सख़्त नियम हैं. इनका मानना है कि ऐसे नियम बंदूक़ रखने के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करते हैं. ये मामला ऐसा है जिस पर जजों के फ़ैसले के बाद बड़े शहरों में भी पिस्तौल ले जाना आसान हो जाएगा.

2013 में बोस्टन मैराथन के दौरान हुए हमले में तीन लोग मारे गए थे और 260 से अधिक ज़ख़्मी हुए थे

मृत्युदंड

धार्मिक आज़ादी और मृत्युदंड के मामले टेक्सस के एक केस में आपस में टकराते हैं. इस केस में मौत की सज़ा पाए एक क़ैदी ने अदालत से अनुरोध किया है कि उसे सज़ा मिलते वक़्त विभाग के मंत्री को वहां उपस्थित होकर उनकी ओर से प्रार्थना करने को कहा जाए.

मृत्युदंड के एक और जटिल मामले का चर्चा में आना तय है. यह मामला बोस्टन मैराथन पर हमला करने वाले ज़ोखर सारनाएफ़ से जुड़ा है.

एक निचली अदालत ने उनकी मौत की सज़ा को अमान्य क़रार दिया. वो इसलिए कि उनकी जूरी के सदस्य मुक़दमे से पहले चले मीडिया ट्रायल से प्रभावित बताए गए. साथ ही उन्हें ज़ारनाएफ़ के भाई द्वारा की गई कई हत्याओं के बारे में पता था.

ज़ारनाएफ़ ने अपने भाई के साथ मिलकर बम धमाके की साज़िश रची थी. पुलिस ने उनके भाई को मार गिराया था. हालांकि बाइडन प्रशासन चाहता है कि उनकी सज़ा बहाल की जाए.

ग्वांतानामो बे के एक क़ैदी ने अमेरिकी प्रशासन से कई जानकारियां मांगी हैं, लेकिन देश की सुरक्षा का हवाला देकर सरकार उन्हें सूचना नहीं दे रही है

गोपनीयता और राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल

कभी-कभी सुप्रीम कोर्ट के कार्यकाल में कई मामले किसी एक ही मसले के कई पहलुओं से जुड़े होते हैं. इस साल दो मामलों में वो जानकारी मांगी गई है जिसे “गोपनीयता” और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर सरकार प्रकाशित नहीं होने देती.

पहला केस, ग्वांतानामो बे के एक क़ैदी अबू ज़ुबैदा का है. उन्होंने अमेरिका द्वारा की जा रही पूछताछ “ब्लैक साइट्स” के बारे में जानकारी मांगी है. वो सीआईए के कॉन्ट्रैक्टरों के बारे में भी जानकारी मांग रहे हैं. उन कॉन्ट्रैक्टरों के ख़िलाफ़ कथित रूप से प्रताड़ित करने को लेकर वो मुक़दमा लड़ रहे हैं.

दूसरा केस, कैलिफ़ोर्निया के मुस्लिम पुरुषों के एक समूह से जुड़ा है. इस समूह का आरोप है कि एफ़बीआई ने उनके साथ धार्मिक भेदभाव किया है क्योंकि आतंकवादियों से संबंध रखने के शक़ पर कई मुसलमानों की निगरानी की गई.

धार्मिक आज़ादी का मामला

धार्मिक आज़ादी और उसके कथित उल्लंघन से जुड़े मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट ने हाल के वर्षों में अपना कंज़रवेटिव रुझान साफ तौर पर जाहिर किया है.

धार्मिक आज़ादी का मामला सुप्रीम कोर्ट के एक केस से उठा है. इसमें निजी स्कूलों में विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए दी जा रही सरकारी मदद से सीमित उद्देश्यों वाले स्कूलों को बाहर करने के सरकार के फ़ैसले को चुनौती दी गई है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के हालिया ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए ये असंभव लगता है कि ऐसी मदद अब आगे भी जारी रहेगी.

”शैडो डॉकेट” का खेल

हालांकि सुप्रीम कोर्ट के इस कार्यकाल में इन विवादास्पद फ़ैसलों के अलावा और भी कुछ हो सकता है.

हाल में निचली अदालतों के कई ऐसे विवाद रहे जिनमें सुप्रीम कोर्ट दख़ल दे सकता था. पर ऐसा नहीं हुआ.

सुप्रीम कोर्ट ने बिना किसी महिला सदस्य वाले एक सैन्य ड्राफ़्ट को अपनी मंज़ूरी दे दी. अदालत में इसकी संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी. यही हाल मौत की सज़ा को चुनौती देने वाले मामलों के साथ हुआ.

कभी-कभी किसी मामले को न सुनने या किसी ख़ास विवाद पर “आपातकालीन” आदेश जारी करने के फ़ैसलों से अमेरिका के क़ानूनी परिदृश्य और सुप्रीम कोर्ट के कैलेंडर, दोनों पर बड़ा असर पड़ सकता है.

“शैडो डॉकेट” पर सर्वोच्च अदालत का भरोसा तेज़ी से बढ़ा है. संक्षेप में कहें तो बिना किसी हस्ताक्षर और शोर-शराबे के अदालत की राय जारी हो रही है. सुप्रीम कोर्ट की इस प्रवृत्ति के तीन ताज़ा उदाहरण हैं.

सबसे पहला है: टेक्सस का गर्भपात क़ानून. दूसरा, अमेरिका में शरण चाहने वालों को मेक्सिको में रहने की ज़रूरत वाली ट्रम्प-युग की नीति और तीसरा है, घर से बेदखली पर अस्थायी रोक जारी रखने का बाइडन प्रशासन का फ़ैसला.

असल में, अदालत के पारंपरिक फ़ैसलों पर वास्तविक रूप से अमल होने में महीनों लग जाते हैं. सुप्रीम कोर्ट के नए कार्यकाल में आने वाले फ़ैसले भी मई या जून 2022 से पहले अमल नहीं हो पाएंगे. लेकिन ऐसी सूरत में शैडो डॉकेट तेज़ी से प्रकट हो सकता है और पता नहीं किन दिशाओं में आगे बढ़ जाए.

दूसरे शब्दों में, इस कार्यकाल के दौरान सुप्रीम कोर्ट के तरकश से कई क़ानूनी तीर निकलने की संभावना है.

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