कैसे बर्बाद हुई आदि शंकराचार्य की तपःस्थली और नृ-सिंह की भूमि?
जोशीमठ कोई शब्द नहीं है शब्द है "योशी" योशी का अर्थ होता है, जो दो घरों को गयी हो। हमारे पहाड़ों में इसे "द्वघरया" भी कहते हैं। साधारण तया द्वघरया का अर्थ होता है जो स्त्री अपने पहले पति को छोड़ कर दूसरे पति के घर चले जाती है वह द्वघरया कह लाती है। जिसे समाज में बहुत प्रतिष्ठा की दृष्टि से नहीं देखा जाता लेकिन इसके ठीक विपरीत जोशीमठ को दूनी प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा जाता है।
देहरादून। पाण्डुकेश्वर के ताम्रपत्रों में जोशीमठ का नाम योशिका लिखा गया है। श्री बद्रीनाथ के ढट्टा-पट्टा (दान-पत्र) को मैंने पढा तो उसमें जोशीमठ शब्द 100 साल पहले तक कहीं नहीं लिखा मिला। जबकि इसकी जो सनदें मेरे पास हैं, (जो शायद श्री बद्रीनाथ मन्दिर समिति से अधिक सुरक्षित हैं) उसमें जोशीमठ के लिए जोसी या जूसी शब्द का प्रयोग किया गया है। जब मैंने बार-बार इस शब्द को पढा तो मैं समझ नहीं पाया कि ये जोसी या जूसी कौन है? अधिकांश जगह योशी लिखा मिला तो मैंने विख्यात इतिहास व पुरातत्वविद यशवंत सिंह कठौच जी को फोन लगाया कि ये क्या गड़बड़ है? उंन्होने कहा आप पाण्डुकेश्वर के ताम्रपत्रों को देख लो उसमें योशिका उत्कीर्ण है। मैंने ताम्र पत्रों के छाया चित्र और अनुवाद निकाले तो #योशिका शब्द मिला।
मुझे यह आभास हो गया कि यह ऐतिहासिक स्थल है। इसके नाम का अवश्य वैज्ञानिक आधार होगा। तब मैंने तमाम सँस्कृत के शब्दकोशों और ग्रन्थों को टटोलना शुरू किया तो शब्द “योशी” का अर्थ लिखा मिला जिसके दो घर हों या जो रास्ता दो घरों को जाता हो उस स्थान को योशी (द्वघरया) कहते हैं।
मुझे लग गया यहां से एक घर श्री बद्रिकाश्रम और दूसरे घर कैलास को रास्ता जाता है दोनों घरों का ये बेस कैंप है इसलिए इसे योशी कहा जाता है। सँस्कृत में य का ज उच्चारण विद्वान करते हैं। इसलिए यज्ञ को आपने जग्य कहते लोगों को सुना होगा। इसी तरह उच्चारण में योशी जोशी हो गया और आदि गुरु शंकराचार्य के मठ के कारण इसका नाम जोशीमठ पुकारा जाने लगा। मुझे अफसोस है कि आज जोशीमठ ने अपने नाम तक को भुला दिया है और इस बात को भी कि वे कैलास मानसरोवर के भी मालिक रहे हैं। क्योंकि उत्तराखण्ड की यात्रा देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग,नन्दप्रयाग, विष्णुप्रयाग में स्नान, दान और यज्ञ-याग के बिना पूरी नहीं होती प्रयागों पर स्नान और यज्ञ अनुष्ठान द्वारा प्रजापति ब्रह्मा की उपासना पूर्ण होती है तब जाकर भगवान नारायण के दर्शन के लिए जोशीमठ से आगे बढ़ने की मर्यादा है।
श्री बद्रीनारायण में जाकर पहले बामणी के उर्वसी मन्दिर में पूजा अर्चना कर पीठ की अधिष्ठात्री माता उर्वसी से भगवान नारायण के दर्शन की अनुमति लेनी पड़ती है। इसके लिए पहली रात्रि विश्राम बामणी में उर्वसी की पूजा के बाद करने की मर्यादा रही है। यदि आपने विधि पूर्वक उर्वसी की पूजा कर उन्हें प्रसन्न किया है और रात को आपके शरीर में काम विकार उतपन्न नहीं हुआ तो आप भगवान नारायण के दर्शन के पात्र हैं और यदि आपके मन में काम विकार उतपन्न हुआ है तो तब आप ऋषि गङ्गा के पार नारायण पर्वत पर कदम रखने के अधिकारी नहीं हैं। दर्शन तो बहुत दूर की बात। यह थी मर्यादा। इसीलिए कहते हैं-
“बामणी का बुड़यान बदरी निदेखि।” क्योंकि मर्यादा की कसौटी पर कसते कसते जिंदगी गुजर गयी पर भगवान नारायण के दर्शन की पात्रता प्राप्त नहीं हुई।
यात्री को जब भगवान श्री बद्रीनारायण के दर्शन पूजन हो जाते थे तब सारे अनुष्ठानों को सम्पन्न कर कुछ यात्री माना दर्रे से थोलिङ्ग मठ होते हुए मानसरोवर निकल जाते थे लेकिन अधिकांश यात्री वापस जोशीमठ आते और वहां से नीती के रास्ते कैलास मानसरोवर की यात्रा के लिए निकल जाते। यह रास्ता माणा की अपेक्षा आसान है। क्योंकि मुक्ति के लिए प्रयागों में ब्रह्मा, श्री बद्रीनारायण में भगवान विष्णु और अंत में मृत्यु के देवता कैलासवासी भगवान शिव के दर्शन पूजन आवश्यक है। तभी मोक्ष मिलता है। इसलिए कैलास मानसरोवर उत्तराखण्ड तीर्थयात्रा का अभिन्न हिस्सा है। बिना कैलास परिक्रमा के उत्तराखण्ड यात्रा अधूरी है।
जोशीमठ इसलिए भी मुख्य पड़ाव था क्योंकि यहां से श्री बद्रीनाथ और श्री कैलास मानसरोवर की यात्रा के लिए यात्रियों को गुमाश्ते (यात्रा गाइड/समान ढोने वाला) मिल जाते थे। ये गुमाश्ते अधिकतर उत्तराखण्ड के खस नौजवान होते थे। खस बहुत ही मेहनती और सूरबीर होते थे जो केवल क्षत्रिय ही नहीं बल्कि ब्राह्मण खस भी होते थे। तिब्ब्त में मातृ सत्तात्मक परिवार हैं, मुखिया महिलाएं होती हैं। पुरुष बुद्धिमान हुआ तो मठ में लामा बनता था और बुद्धि हीन हुआ तो परिवार का सेवक। वहां महिलाओं की चलती है। अब इतनी लंबी यात्रा के बाद तिब्ब्त के निर्जन में यात्रियों के रहने खाने की कोई व्यवस्था नहीं होती तो गुमाश्ते इन्हीं तिब्बती परिवारों के यहां यात्रियों की व्यवस्था करते।
इस प्रकार गढ़वाली गुमास्तों की यहां गहरी पहचान हो गई यह पहचान इतनी गहरी हो गई कि तिब्बती महिलाओं का अक्सर खूबसूरत गढ़वाली नौजवानों पर दिल आ जाता नतीजतन इनके यहां गढ़वाली नौजवानों से संताने उत्पन्न हो जाती अब जो लड़की हुई तो तिब्बती खुश हो जाते और गढ़वाली लड़के को पुरस्कृत करते जिसकी की लड़की हुई है लेकिन यदि लड़का हुआ तो उस गढ़वाली लड़के को दंडित किया जाता था और यह दंड था के लड़के के दूध पीने तक जच्चा बच्चा के खाने-पीने आदि का पूरा खर्चा वह गढ़वाली लड़का देगा जिसका के पुत्र हुआ है।
जब लड़के का मां का दूध पीना बंद हो जाएगा तब वह लड़का उसी व्यक्ति को ले जाना पड़ेगा जो कि उस बालक का जैविक पिता है जबकि लड़की को खुद रख लेते थे इस प्रकार तिब्बत में इन नाजायज पुत्रों की संख्या बढ़ गई जिनको इनके पिता अपने गांव भी नहीं ला सकते थे कालांतर में नीति माणा दर्रों के इस पार इन लड़कों को लाया गया और इनको बकरियां सौंप कर तिब्ब्त और भारत के बीच बकरियों के माध्यम से सामान को ढोने में प्रयुक्त किया गया। भोट देश में उतपन्न होने के कारण इन्हें भोटिया कहा गया। चूंकि ये तिब्ब्त में चँवरगाय के दूध की नमकीन चाय पीते थे तिब्ब्त में इन्हें मारछा कहते थे। इनलोगों के भारत से तिब्ब्त और तिब्ब्त से नमक, ऊन, सुहागा, मूंगा आदि लाने लेजाने का मुख्य पड़ाव जोशीमठ बन गया। इसलिए भी जोशीमठ का बहुत अधिक व्यापारिक महत्व रहा।
530 ईसबी पूर्व जब बौद्ध लुटेरे श्री बद्रीनारायण से चोरी कर मन्दिर को नष्ट-भ्र्ष्ट कर सबकुछ लूट कर थोलिंगमठ ले गये तो अधर्म अनाचार से देश त्रस्त होगया। तब 497 ईसवी पूर्व आदि गुरु शंकराचार्य केरल से इसी योशी में आये और भगवान श्रीमन्नारायन और कैलासवासी की इसी योशी को उंन्होने अपनी साधना हेतु चुना। चूंकि आदि शंकराचार्य श्री विद्या के उपासक थे और उंन्होने योशी में श्रीयंत्र की स्थापना की इसकी साधना में वे आसन (मठ) लगा कर प्रवृत्त हुए। इसलिए इस स्थान का नाम उत्तर आम्नाय श्रीमठ हुआ। श्री शंकराचार्य परम्परा की सनदों में योशी की जगह उत्तरआम्नाय श्रीमठ ही लिखा हुआ है।
इसलिए समस्त ऐतिहासिक दस्तावेजों में सर्वत्र उत्तर आम्नाय श्रीमठ ही लिखा मिलता है। लेकिन वर्तमान में ज्यादा पढ़े-लिखे स्वंयम्भू शंकराचार्य और उनके धनपशु गालीबाज चेले सत्ता के धृतराष्ट्रों के साथ मिल कर जोशीमठ का नाम ज्योतिर्मठ कर इतिहास, सँस्कृति, परम्परा और कैलास मानसरोवर पर दावों के पुख्ता प्रमाणों को दफ़्न करने की साजिश करें तो हम जैसे क़लमकार क्या कर सकते हैं? सच बोलने और लिखने पर जेल होती है यह तो हम भोग कर आये हैं। और भोगने को तैयार बैठे हैं क्योंकि सत्य ही नारायण हैं। सारी दुनियां मेरे विरुद्ध हो तो भी अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड नायक श्रीमन नारायण से बड़ी ताकत नहीं है।
शंकराचार्य महाराज द्वारा श्री बद्रिकाश्रम की पुनर्प्रतिष्ठा और इसका मठ योशी में स्थापित करने के बाद योशी उत्तर भारत जोशीमठ क्षेत्रान्तर्गत नेपाल, तक्षशिला, गांधार तक के राजाओं का प्रमुख तीर्थ स्थल होगया। सभी राजे महाराजे यहां आकर शंकराचार्य और उनके 20 पीढ़ी तक के शिष्यों से आशीर्वाद ग्रहण करते रहे ये सारे शिष्य पारगामी थे इनमें से किसी की भी मृत्यु नहीं हुई। सोचिए जहाँ ऐसे दिव्य तपस्वी होंगे उस स्थान की कितनी अधिक कीर्ति होगी। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि सातवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में इस क्षेत्र में महाविनाशकारी भूकम्प, भूस्खलन और हूणों के बिनाशकारी लूट व आक्रमण हुए होंगे जिससे इस क्षेत्र में श्री बद्रीनारायण/उत्तर आम्नाय श्रीमठ की आचार्य परम्परा खंडित हुई होगी।
आठवीं शताब्दी में एक अभिनव शंकराचार्य हुए जो इस निर्जन में आये।(कुछ विद्वानों का मानना है कि ये वही अभिनव हैं जो आदि शंकराचार्य के समय अभिनव गुप्त के नाम से जाने जाते थे ये शंकराचार्य के घोर विरोधी बौद्ध थे जो शंकराचार्य को मारने के लिए मांत्रिक अभिचार कर रहे थे) उस समय बताया जाता है कि शंकराचार्य द्वारा स्थापित मन्दिरों के श्रीयंत्र के नजदीक जो भी जाता वह मृत्यु को प्राप्त हो जाता था। यह अस्वाभाविक या काल्पनिक भी नहीं है। क्योंकि साधना युक्त श्रीयंत्रों से गामा किरणें निकलने लगती हैं यदि उसी स्तर का साधक न हुआ तो इन किरणों से सामान्य आदमी की हड्डियां गल जाने का खतरा रहता है, जबकि दिव्य योगी इनका प्रयोग ब्रह्माण्ड के दर्शन के लिए करता है। अगर श्रीयंत्र की पूजा खंडित हो गयी तो माता की योगिनियाँ क्रुद्ध हो जाती हैं और इंसानों की बलि लेने लगती है। यही कारण है कि आज के दौर में गृहस्थ लोग श्री यंत्र की स्थापना व श्री विद्या की उपासना से बचते हैं।
अभिनव शंकराचार्य जन्म जन्मांतर से तांत्रिक थे।
उंन्होने उत्तराखण्ड में आते ही सबसे पहले इन डरावने हो चुके श्री मन्दिरों में जाकर श्री यंत्रों को उलट कर दफ़्न कर दिया और उनके ऊपर सामान्य देवी की मूर्ति स्थापित कर दी, जिससे इन आदमखोर मन्दिरों से लोगों का भय खत्म हुआ। पर इसी कृत्य से देवभूमि में उस श्री विद्या परम्परा का अंत हुआ जिससे साधक मृत्यु पर विजय प्राप्त कर अमरत्व को प्राप्त करते थे। इसी छटवीं से सातवीं शताब्दी के बीच इस मठ की रक्षा के लिए यहां कत्यूरी राजा को दायित्व सौंपा गया। जिसने अपनी राजधानी जोशीमठ बनाया। ये राजा लोग कार्तिकेय के उपासक थे इसलिए कत्यूरी कहलाये। बाद में इन्होंने यहाँ नृ सिंह की स्थापना की। कुछ इतिहासकारों के अनुसार कश्मीर के शासक ललितादित्य ने यहां हूण आक्रांताओं से रक्षा के लिए नरसिंह मन्दिर की स्थापना की।
यही कारण है कि जोशीमठ का नृसिंह आज भी पूरे उत्तराखण्ड वासियों के ईस्ट देवता है। चाहे कुमायूं हो या गढ़वाल जब नौखण्डी नरसिंह की पूजा की जाती है तो सारे नरसिंह का स्थान जोशीमठ ही बतलाया जाता है। इस दृष्टि से भी जोशीमठ के नरसिंह और जोशीमठ के बारे में वयवहार करना हर उत्तराखण्डवासी और देश के हर नृसिंह भक्त वैष्णव का कर्तव्य है।
लेकिन जोशीमठ की वर्तमान आपदा के पीछे कारण है क्या पहले ये जान लीजिए-
जोशीमठ जिस दिव्य पर्वत पर स्थित है, उसके बारे में अभी तक कोई प्रकाश नहीं डाला गया और न धर्म ग्रंथों से इसके संदर्भ संग्रहित कर प्रकाशित किए गए हैं। यहां इस पर्वत पर पृथक से प्रकाश डालना या इसकी महिमा का वर्णन करना विषयान्तर हो जाएगा, इसलिए सिर्फ इतना संकेत काफी है कि भगवान शंकर के अवतार शंकराचार्य ने इस विष्णुपदी-धौली के संगम विष्णु प्रयाग से प्रारम्भ गौरसों-औली पर्वत शिखर जिसके सम्मुख ब्रह्म यजनगिरी और पार्श्व में देवांगन सप्तकुण्ड हैं सम्मुख सप्तश्रृंग कालजयी कागभुशुण्डि के साथ देवताओं का नन्दन वन है उसकी अनन्त ऊर्जा और दैवीय महिमा अवर्णनीय है। कल्प के आरम्भ में महा प्रलय के समय मनु ने अपनी नाव का लंगर इसी स्थान पर डाला था। इससे आप स्थान के महत्व और पवित्रता का अनुमान लगा सकते हैं।
यह पर्वत ही अपने आप में देवता है। इस पर्वत के गोद में है शंकराचार्य तपस्थली और नरसिंह मन्दिर।nगौरसों इसकी शिखा है और औली मस्तक! अब जरा देखिए आज जोशीमठ तीर्थ का हाल क्या है। नरसिंह मन्दिर के ऊपर भारी बस्ती बस गयी है। होटलों का मलमूत्र गन्दगी सब मन्दिर के ऊपर है। उसके ऊपर सैन्य छावनियाँ हैं। वहाँ दारू की सरकारी कैंटीन। सरकारी ठेकों की और कच्ची की तो बात ही क्या करनी। मुर्गे, सूअर पलने कटने, बकरा ईद में नालियों को खून से रक्त रंजित करना दूधाधारी नरसिंह की बस्ती में आम बात है।
जिन भवनों पर श्री बद्रीनाथ के आवास थे उनमें आज क्रिश्चियनों के चर्च हैं। कहीं सिक्खों के गुरुद्वारे हैं। व्यापार के आवरण में जेहादी रक्तबीजों को कथित दलितों के यहां किराए के कमरे मिलते हैं। बदले में अक्सर जेहादी मकान मालिक की बीबी से गहरा इश्क करते हैं। आदमी काम पर गया और ये घर पर काम करते हैं। स्थिति यह हो जाती है कि लगभग शतप्रतिशत मामलों में इश्क बीबी से और निकाह बेटी से होता है। बाद में दामाद बन कर जमीन भी इनके कब्जे में चले जाती है। एक परिवार नहीं बल्कि पाँच सालों में एक नई बस्ती उभर आती है।
इसके अलावा यात्रा काल में होटल खड़े करना और पैसा कमाना। एक लैट्रिन खड़ी कर दो यात्री को बरामदे में सुलाने का 5 हजार वसूल लो ये पाप नहीं है। लैट्रिन जाने को तो व्यक्ति देगा उसकी मजबूरी है लेकिन उसकी आत्मा क्या बोलेगी वो धरती फाड़ कर सुनाई देता है। यही हाल भोजन और अन्य सुविधाओं का है। जब अनर्थ का पैसा आता है तो वह व्यक्ति के सिर चढ़ कर बोलता है।जो सभ्यता, शालीनता, दया, धर्म सबका हरण कर लेता है। ऐसे में मन्दिर दुकान और तीर्थ लूट का अड्डा बन जाता है। ऐसे लोगों के प्रति कोई सहानुभूति करे भी तो कैसे?
इस शंकराचार्य और नरसिंह पर्वत का औली मस्तक है लेकिन औली स्कीइंग ही नहीं सितारा होटलों से अय्यासी का अड्डा बना है सरकार को तीर्थों से और तीर्थ यात्रियों से चिढ़ है टूरिस्टों और अय्याशियों से नहीं। इसलिए टूरिस्ट स्पॉट गौरसों और औली का टूरिज्म इस दिव्य पिरामिडीय पर्वत के मस्तक पर कलंक है। जिसको सरकार मिटाने के लिए नहीं बल्कि बढाने के लिए तैयार है। यह पूरा ही पर्वत श्रीयंत्र के आकार का है जो दिव्य शक्तियों का केंद्र है पर वर्तमान समय में फौजियों के बूटों से रौंदा जा रहा है। क्या इस श्री पर्वत को फौजियों के बूटों से मुक्त किया जा सकता है? क्या इस श्री पर्वत को अय्यासी के होटलों और टूरिस्टों से मुक्त किया जा सकता है?
क्या शंकराचार्य की इस पवित्र तपस्थली में मां अन्नपूर्णा के प्रसाद के रूप में यात्रियों को भोजन और निःशुल्क आश्रय/आवास दिया जा सकता है? ये केवल सवाल नहीं हैं बल्कि पुण्य के मार्ग हैं। इन सवालों का उत्तर है नहीं। जब शंकराचार्य के नाम पर बने आश्रम होटलों को मात दे रहे तो औरों से आप क्या अपेक्षा कर सकते हैं? आदमी भले ही अभी मर जाए लेकिन उसकी वृत्ति अधर्म छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। आप कह रहे हैं जोशीमठ में कुदरत का कहर है। मैं कह रहा हूँ यह जोशीमठ में असुरों का कहर है। भगवान की गलती कहाँ है?
अभी जो हुआ यह विनाश काले विपरीत बुद्धि के अलावा कुछ नहीं है। पहले तो सरकार को देवभूमि के पारिस्थितिकीय तंत्र को छेड़ना नहीं चाहिए था। हम लोग पहले बुग्यालों में जाते तो ऊंची आवाज में बात तक नहीं करते कहते थे ऐड़ी आन्छरी लग जायेगी। दरअसल हिमालय में दिव्य तपस्वी अदृश्य रूप में तप करते रहते हैं उनके तप में बाधा न पहुंचे वे क्रुद्ध न हों इसलिए चुप रहने के लिए दिव्य शक्ति की योगनियों ऐड़ी आन्छरी का भय दिखाया जाता था। लेकिन आज तो इन नाजुक पर्वतों पर हलीकेप्टर उड़ाये जा रहे हैं, तब विकास होना है या महा विनाश आप खुद तय जर लें!
इस महा विनाश का वर्तमान में कारण बनी है तपोबन से अनीमठ के बीच बन रही जल विद्युत परियोजना की टर्नल।
सुना है आज से बीस पच्चीस साल पहले जब इस टर्नल का काम शुरू हुआ तो कुछ किलोमीटर अंदर जाकर अचानक खुदाई कर रही टर्नल की खुदाई में धरती के अंदर का विशाल जल भण्डार फुट गया। पानी इतना अधिक निकला कि मजदूर मुश्किल से जान बचा कर बड़ी मुश्किल से बाहर आये यह पानी महीनों क्या सालों तक बन्द नहीं हुआ। नतीजतन आठ-दस साल तक काम बंद रहा। #NTPC ने बहुत पैसा खर्च कर दिया था इसलिए कुछ साल पूर्व NTPC ने फिर काम शुरू किया।
बताया जाता है कि टर्नल में वर्षों पूर्व फंसी मशीन को टर्नल से बाहर निकालने में कम्पनी फेल हो गयी तो कम्पनी ने बगल से दूसरी टर्नल खोद डाली। इधर तकनीक में परिवर्तन हुआ। अब रेलवे सुरंगों की तरह एक तरफ से सुरंग खुदती है तो पीछे से साथ साथ RCC से चारों तरफ टर्नल की पैकिंग भी पूरी होती है। अब चाहे पानी निकले या पत्थर मिट्टी गिरे, इंजीनियरिंग ने इतनी प्रगति की है कि यह सब पैक हो जाता है। यही पैकिंग जोशीमठ के विनाश की इबारत लिख गयी।
लेखक : डा. भगवती प्रसाद पुरोहित
प्रस्तुति सहयोग : प्रो. रामेश्वर प्रसाद मिश्र