बंगाल की ‘बेटी’ से देश की ‘दीदी’ बनने तक का सफर, राजनीति में किसी बरगद के छाये में नहीं रहीं ममता
ममता बनर्जी को भवानीपुर में मिली जीत:
भवानीपुर उपचुनाव में जीत से तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी ने फिर से पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री पद पर कब्जा सुनिश्चित कर लिया है। इस साल अप्रैल-मई में हुए विधानसभा चुनावों में वह नंदीग्राम सीट से बीजेपी के शुभेंदु अधिकारी से हार गई थीं। उनकी यह जीत उनके जन नेता होने पर मुहर है।
ममता बनर्जी लक्जरी होटल और प्राइवेट क्लबों में जाने वाले भारतीय नेताओं से अलग पहचान रखती हैं। वह आम मानुष की नेता मानी जाती हैं। पश्चिम बंगाल के गांवों से जो समर्थन मिलना शुरू हुआ, वह आज भी कायम है। उनकी पहचान में बंगाली संस्कृति नत्थी है। बीजेपी ने विधानसभा चुनाव में तृणमूल को मात देने के लिए पूरा दमखम लगा दिया। लेकिन बंगाली अस्मिता के साथ चुनाव मैदान में उतरीं ममता ने उसके मंसूबे पर पानी फेर दिया। वह जुनून से बंगाली हैं। बंगाल की संस्कृति से यह गहरा लगाव, उनकी अपनी भाषा, परंपरा और संस्कृति से जुड़ी राजनीति को दर्शाती है। वह खुद भी इसे जाहिर करने से नहीं चूकतीं।
आर्ट, म्यूजिक और लिटरेचर को लेकर दिलचस्पी
लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में प्रोफेसर सुमंत्रा बोस बताते हैं कि कोलकाता में प्रशासनिक भवन “राइटर्स बिल्डिंग’ में जब पहली बार ममता बनर्जी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली तो उन्होंने नई परंपरा शुरू की। बंगाली महापुरुषों की जयंती और बरसी मनानी शुरू की। वह अपने दिन की शुरुआत उन बंगाली महापुरुषों की मूर्तियों पर फूल अर्पित करने से शुरू करती हैं, जिनकी उस दिन जयंती या बरसी होती है। ममता बनर्जी जितनी बंगाली अस्मिता को लेकर सचेत हैं, उतनी ही वह आर्ट, म्यूजिक और साहित्य को लेकर दिलचस्पी रखती हैं। कल्चर को लेकर उनकी संवेदनशीलता भले ही गैर बंगाली समाज के समझ से परे है। लेकिन अपनी संस्कृति को लेकर मुखर शिक्षित मध्यवर्गीय बंगालियों को और क्या चाहिए कि उनका नेता साहित्य और कला में रुचि रखता है। पेटिंग, लिटरेचर, आर्ट को बंगाली समाज अपनी विरासत मानता है।
ऑफिस में बनाया स्टूडियो, पेंटिंग में बंगाल की दिखती है झलक
ममता बनर्जी रवींद्रनाथ टैगोर के गीत गाना और उनकी कविताओं को सुनाना पसंद करती हैं। लेकिन उनका मुख्य शौक पेंटिंग और स्केचिंग है। वह इसे तनाव मुक्त होने का जरिया भी मानती हैं। राइटर्स बिल्डिंग स्थित उनके दफ्तर में एक छोटा सा स्टूडियो है जो पेंटिंग्स और पेंटिंग से जुड़े साजो समान से भरा हुआ है।
ममता बनर्जी की पेंटिंग की थीम लोग और प्रकृति के परिदृश्य होते हैं। प्रोफेसर सुमंत्रा बोस बताते हैं कि ममता बनर्जी अपनी पेंटिंग के बारे में बताने में बहुत संकोच करती हैं। 2005 में ममता बनर्जी अपने आर्टवर्क को लेकर संकोच कर रही थीं और वह नहीं चाहती थीं कि बहुत से लोग उसे देखें। सुमंत्रा बोस ने ममता बनर्जी की एक पेंटिंग खरीदी जिसे उन्होंने लंदन स्थित अपने घर की दीवार पर लगाया है। “एगनी इन अमलशोल’ टाइटल की यह पेंटिंग 2004 में पश्चिम बंगाल के एक गांव अमलशोल में आदिवासियों की भुखमरी से हुई मौतों पर बेस्ड है।
कल्चर और पॉलिटिक्स का कॉकटेल और ममता का नजरिया
“क्लास, कल्चर एंड पॉलिटिक्सः द मेकिंग ऑफ ममता बनर्जी’ शीर्षक से लिखे अपने एक लेख में प्रोफेसर सुमंत्रा बोस लिखते हैं, 1998 में तृणमूल कांग्रेस के गठन के समय ममता बनर्जी की कल्चर और पॉलिटिक्स को लेकर एक समान दिलचस्पी का नायाब नजारा देखने को मिला। उन्होंने अपनी पार्टी का चुनाव चिह्न दो फूलों को बनाया। उनके चुनाव चिह्न का डिजाइन बंगाल के प्रसिद्ध राजनीतिक कवि काजी नजरूल इस्लाम (1899-1976) की एक कविता की एक पंक्ति से प्रेरित था: “एक ब्रिंते दुई कुसुम, हिंदू-मुसलमान।’ इसका मतलब है, “एक तना’- जिसका अर्थ है बंगाली लोग- “जिसमें से दो कलियां खिलती हैं, हिंदू और मुस्लिम’।
साधारण पारिवारिक बैकग्राउंड, लेकिन बनीं नेशनल फिगर
ममता बनर्जी साधारण पारिवारिक बैकग्राउंड से आती हैं। उन्होंने राजनीति में एक लंबी यात्रा तय की है। सामान्य लोगों के बीच उनकी पैठ बताती है कि वो कितनी सक्षम हैं। अब तो नेशनल लेवल पर उनके विपक्ष का मुख्य चेहरा बनने की चर्चा चल रही है। वह सचमुच ग्राउंड से राजनीति में पहुंची हैं।
जेपी की कार के सामने डांस कर मीडिया में छाईं
ममता बनर्जी ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1970 के दशक के मध्य में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस पार्टी के स्टूडेंट विंग के एक कार्यकर्ता के रूप में की थी। वह 1975 में तब देशभर में सुर्खियों छा गईं जब स्टूडेंट पॉलिटिक्स के दौरान उन्होंने विरोध में जय नारायण की कार के सामने डांस किया था।
बंगाल की बेटी से देश की ‘दीदी’ बनने तक का सफर
प्रोफेसर सुमंत्रा बोस ममता बनर्जी से 1982 में पहली मुलाकात को याद करते हैं। वह कहते हैं, उस समय, वह एक स्थानीय पार्टी कार्यकर्ता थीं, दक्षिण कोलकाता के सियासी मैदान के बारे में उन्हें बहुत जानकारी नहीं थी। मैं तब एक बच्चा था, लेकिन उनकी व्यक्तिगत सादगी, उनके दृढ़ विश्वास की ताकत और राजनीति के प्रति उनका उत्साह याद है। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन के पहले दो दशक कांग्रेस पार्टी के एक वफादार सिपाही के रूप में बिताए। वह पश्चिम बंगाल में सीपीआई (एम) के नेतृत्व वाले शासन की एकमात्र महत्वपूर्ण विरोधी चेहरा रहीं। 1990 के दौर में वह पश्चिम बंगाल में अब तक की सबसे लोकप्रिय विपक्षी नेता बनने की तरफ तेजी से बढ़ीं। 1990 के दशक के मध्य तक राज्य में वह काफी लोकप्रिय हो चुकी थीं। इससे उन्हें न केवल कांग्रेस से बाहर निकलने में ताकत मिली बल्कि अपने दम पर हड़ताल करने में सक्षम हुईं।
ममता बनर्जी ने 2006 में अंततः पश्चिम बंगाल की सत्ता पर मजबूती से जमे माकपा को बेदखल कर दिया। यह उनके पॉलिटिकल स्ट्रगल का ही नतीजा था। कई बार उन्होंने निराशा महसूस की लेकिन उन्होंने खुद को मजबूत बनाये रखा। वह अपनी जीत के प्रति आश्वस्त बनी रहीं और कामयाब होती रहीं।
राजनीति में किसी बरगद के छाये में नहीं रहीं ममता
भारत में गैर कांग्रेस और गैर बीजेपी दो महिला नेता रहीं हैं जिन्होंने राजनीति की तस्वीर बदल दी। उनमें उत्तर प्रदेश की मायावती और तमिलनाडु की जयललिता शामिल हैं। हालांकि, मायावती को दलित नेता कांशी राम रास्ता दिखाते रहे, जिन्होंने 1984 में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की स्थापना की और बाद में मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।
इसी तरह, 1970-80 के दशक के दौर में तमिलनाडु के सबसे लोकप्रिय नेता एम.जी. रामचंद्रन यानी एमजीआर की जयललिता को खड़ा करने में बड़ी भूमिका मानी जाती है। एमजीआर के निधन के बाद जयललिता ने 1972 में स्थापित अन्नाद्रमुक पार्टी का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया। मगर ममता बनर्जी ने पूरी तरह खुद को रचा-बुना, गढ़ा और खड़ा किया है। राजनीति में ममता के लिए कोई बरगद जैसी छाया देने वाला गॉडफादर नहीं रहा।