खाद और फसल के वाजिब दाम से खुशहाल होगा किसान
खाद और फसल के वाजिब दाम से खुशहाल होगा किसान
दुनिया भर के विशेषज्ञ सोने की लंका यानी श्रीलंका की तबाही के पीछे वहां के कृषि क्षेत्र के पिछड़ने को मुख्य कारण मान रहे हैं। उनका मानना है कि श्रीलंका में कृषि क्षेत्र को पारंपरिक और ऑर्गेनिक बनाने के लिए उन्होंने खेती में फर्टिलाइजर का प्रयोग ना करने का निर्णय लेते हुए फर्टिलाइजर के आयात को बंद कर दिया था। जिसके कारण फसलों का उत्पादन लगातार घटता गया और कृषि क्षेत्र नुकसान की ओर तेजी से अग्रसर हुआ और श्रीलंका की तबाही का कारण बना। खैर पिछले दिनों राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में किसानों ने किसानों ने “खेत को पानी-फसलों को दाम” इस नारे को चरितार्थ करने और चर्चा के केंद्र बिंदु में लाने के लिए एक बड़ा संकल्प अभियान अभियान चलाया जिसका प्रथम चरण सफलता पूर्वक पूरा किया गया। राजस्थान के किताब में किसानों द्वारा अपनी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद का गारंटीड कानून बनाने एवं पूर्वी राजस्थान नाहर परियोजना (ईआरसीपी) को सिंचाई प्रधान परियोजना बनानें के सम्बन्ध में दर्जनों जिलों में से प्रथम चरण में दौसा, करौली, सवाई माधोपुर, टोंक एवं जयपुर जिले की चाकसू व सांगानेर तहसील में संकल्प अभियान के माध्यम से जनजागरण किया। जिसमे गरीब किसानों की खुशहाली का मन्त्र–हर किसान का यही पैगाम-खेत को पानी फसल को दाम नारे को चर्चा के केंद्र बिंदु में लाने के साथ ही प्रथम चरण की सफलता पूर्वक पूरा करने की बाद, इस संकल्प अभियान का नेतृत्व करने वाले किसान महापंचायत के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामपाल जाट ने हमसे बात करते हुए बताया कि जुलाई 2022 से आरम्भ इस संकल्प अभियान कार्यक्रम की करीबन 5 जिलों की 21 से 22 तहसीलों में 25 से 30 बैठकें आयोजित हुई। क़रीब 850 किलोमीटर के इस मार्ग में लगभग एक हजार से अधिक जागरूक किसानों को साहित्य वितरण करते हुए 9 जुलाई को सांगानेर क्षेत्र कृषि विशेषज्ञों, कृषि के जानकारों, शिक्षाविदों युवा किसानों और सभी पत्रकार बंधुओं से संपर्क करते हुए इस संकल्प अभियान में लोक चर्चाओं से पूर्वी राजस्थान नहर परियोजना को सिंचाई प्रधान बनाने हेतु राज्य के साथ केंद्र को भी सहयोग करने का लोकमत तैयार किया गया। वहीं दूसरी ओर कुछ किसान नेताओं का कहना है कि केंद्र में भाजपा की सत्तारूढ़ सरकार द्वारा प्रधानमंत्री के साल 2022 के तमाम किसानों की आय को दोगुना करने के वायदे के बावजूद इस योजना में सहयोग नहीं करने और राज्य सरकार के काम में मीन-मेख निकालने को भी उचित नहीं माना गया। विस्तृत रूप से जानकारी करने और कुछ स्थानीय लोगों से बात करने के बाद एक सुर में ग्रामीण समाज एवं उस क्षेत्र के लोगों ने कहां की केंद्र और राज्यों में अलग-अलग सियासी दलों की सरकार होने का खामियाजा कहीं ना कहीं आम जनता और किसानों को भुगतना पड़ रहा है।
इसीलिए इस किसान हित परियोजना को केंद्र सरकार और राज्य सरकार द्वारा फुटबॉल बनाने के प्रति ग्रामीणों और किसानों में रोष व्याप्त है। लोक चर्चाओं के मुताबिक़ राजस्थान के तमाम मतदाताओं द्वारा राज्य में सरकार बनाने के लिए पर्याप्त संख्या में विधायक चुनकर भेजने एवं उसके 5 माह बाद ही केंद्र में सरकार बनाने के लिए 25 में से 25 सांसदों चुनकर भेजे जाना इस बात की तस्दीक करता है कि किसान कहीं ना कहीं दोनों सरकारों में तालमेल चाहते हुए किसान हित में दोनों सरकारों से योजनाओं की अपेक्षा करता है। किसान नेताओं का मानना है कि जनता की अपेक्षा के अनुरूप केंद्र एवं राजस्थान के सत्तारूढ़ दलों को एक दूसरे के पूरक बनकर कार्यवाही करनी चाहिए। यह भी उभरकर चर्चा में आया कि जब विधायक और सांसदों के वेतन भत्ते बढ़ाने के लिए लाए गए तो इन विधेयको को पारित करने में दोनों ही प्रमुख दलों के साथ सभी दलों के विधायक एवं सांसद मिलकर ताली बजाते हैं। इसी अनुसार लोकहित की दृष्टि से विधायक एवं सांसदों को भी गरीब और बेबस किसानों की फसलों के वाजिब दाम दिलाने के लिए और राजस्थान की जीवन रेखा यानि इस परियोजना के लिए अपने व्यक्तिगत एवं दलीय भावना से ऊपर उठकर कार्य करना चाहिए। क्योंकि कुछ लोगों ने सवाल उठाया है कि अगर अपनी तनखा और भत्ते बढ़ाने के लिए पक्ष-विपक्ष के विधायक और तमाम नेता एक साथ आ सकते हैं तो वह आम जनता के मुद्दों पर पीछे क्यों हट जाते हैं। खासकर अक्सर किसानों की फसलों के मूल्य में वृद्धि, बिजली पानी और खाद आदि में सब्सिडी या छूट के लिए लाए जाने वाली कोई भी योजना के मुद्दे पर पक्ष और विपक्ष बटा हुआ दिखाई पड़ता है, क्यों?
बहरहाल देश में कुछ बुद्धिजीवियों और कृषि विशेषज्ञों की बहस चल रही है कि सिंचाई प्रधान और पेयजल प्रधान के अंतर अंतर को हमें समझना होगा। जब तक हम यह अंतर नहीं समझेंगे, तब तक इस विषय में कोई भी तब्दीली या बहुत अच्छी योजनाएं नहीं नहीं ला जाए सकेंगे। यह बात साबित हो चुकी है कि पेयजल योजना से सिंचाई योजना संभव नहीं है, और न हीं उससे भूमिगत जल स्तर बढ़ने की संभावना रहती है, जबकि सिंचाई योजनाओं से पीने का पानी, खेत को पानी और भूमिगत जल स्तर तीनों आवश्यकताओं की पूर्ती हो सकती है, जाहिर सी बात है कि इस योजना की
डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार होने के 2 वर्ष उपरांत 15 अगस्त 2019 से जीवन जल मिशन केंद्र द्वारा आरंभ हर घर को नल से जल योजना के उपरांत अन्य पेयजल योजना की प्रासंगिकता नहीं रह जाती है।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर की अमृत योजना के पहले चरण के तहत ही तमाम कार्यों को पूरा करने के लिए अमृत फेज-2 की डीपीआर नगर निगम द्वारा तैयार कराई गई थी। यह डीपीआर दो करोड़ रुपए की लागत से तैयार करने की बात कही गई। हालांकि डीपीआर तैयार करने के लिए नगर निगम ने चार करोड़ रुपए की राशि आरक्षित की थी, लेकिन इसे तैयार करने वाली फर्म आधी कीमत में ही रिपोर्ट बनाने के लिए तैयार हो गई है। इससे इस योजना के सफल क्रियान्वयन पर सवाल खड़े हो रहे हैं। शहर में पानी की समस्या के समाधान पर 730 करोड़ रुपए खर्च किए गए। इस योजना में कार्यरत अधिकारियों का आज तक भ्रष्टाचार और गड़बड़ी के आरोपों से पीछा नहीं छूट पा रहा है।
करीब महीने भर पहले ही एक जल परियोजना को सिंचाई प्रधान बनाने के सम्बन्ध में 26 मई 2022 को राजस्थान के किसानों की ओर से राज्य एवं केंद्र से मिलकर कार्य करने का आग्रह किया गया। इसके साथ ही राज्य सरकार से विशेष रूप से आग्रह किया गया कि केंद्र, राष्ट्रीय परियोजना घोषित नहीं करे तो भी इस परियोजना को अपने संसाधनों से निर्धारित अवधि में पूर्ण करे। किसानों का कहना है कि राज्य सरकार के द्वारा इस परियोजना को राष्ट्रीय परियोजना घोषित नहीं होने पर भी पूर्ण करने की घोषणा सही दिशा में उठाया गया सही कदम है। क्योंकि सिंचित क्षेत्र बढ़ने से राज्य के राजस्व में बढ़ोतरी होती है। उल्लेखनीय है कि इस परियोजना में 49 फ़ीसदी पानी पेयजल एवं 8 फ़ीसदी पानी औद्योगिक गलियारे के लिए आरक्षित करने का प्रावधान है। शेष 43 फ़ीसदी पानी ही सिंचाई के लिए बचता है। उसमे भी केंद्र एवं राज्य की जलनीतियों के आधार पर पेयजल की प्राथमिकता होने के कारण इसमें कटौती होने की सम्भावना है। अभी इस परियोजना से बांधों के क़रीब 80 हज़ार हेक्टेयर सिंचित क्षेत्र को सहारा मिलने एवं 2 लाख हेक्टेयर नया सिंचित क्षेत्र तैयार होने की संभावना है। जिसका इसमें उल्लेख किया गया है। इस परियोजना को सिंचाई प्रधान बनाने से 86 फ़ीसदी पानी सिंचाई के लिए काम आ सकेगा। जिससे 13 जिलों में शेष रहे बांधों में पानी डाला जा सकेगा। वहीँ 4 लाख हेक्टेयर सिंचित क्षेत्र बन जायेगा जिससे राज्य के किसानों में समृद्धि आयेगी। और कहते हैं ना कि किसान खुशहाल होगा तो राज्य खुशहाल होगा राज्य खुशहाल होगा तो देश खुशहाल होगा।
बहरहाल देश में अगर कृषि क्षेत्र की चुनौतियों का जिक्र किया जाए तो आज दुनिया के सामने सबसे बड़ी समस्या सस्टेनेबिलिटी की है। भारत हर साल क़रीब दो करोड़ टन चावल का निर्यात करता है। दुनिया में चावल का जितना व्यापार होता है उसका करीबन 40 फ़ीसदी केवल भारत निर्यात करता है। लेकिन एक किलो चावल उत्पादन करने में लगभग चार हज़ार लीटर पानी की जरूरत होती है। इस तरह अधिक चावल निर्यात करके हम अपने प्राकृतिक संसाधनों का भी निर्यात कर रहे हैं। इन चुनौतियों से निपटने के लिए हमें नई तकनीकियों को अपनाना जरूरी है। इसके अलावा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) व्यवस्था में सुधार की तत्काल आवश्यकता है। हालांकि इसमें बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि एमएसपी का भुगतान कैसे दिया जाता है। ज़ाहिर है कि यह खरीद के जरिए होता है या कीमत में कमी को पूरा करके। जबकि सरकार को किसी फसल की एमएसपी के तौर पर करीबन दो हज़ार रुपए देने में सात सौ रुपए का खर्च आता है, लेकिन अगर सरकार घोषित एमएसपी और किसान के बिक्री मूल्य के अंतर का भुगतान करती है तो इस परिस्थिति में खर्च बहुत कम आता है। लिहाज़ा देश में किसानों और सरकारों के परस्पर सहयोग के द्वारा खेती किसानी को कृषि व्यवसाय (एग्री-बिजनेस) के रूप में बदला जाना चाहिए ताकि किसान पैसेज के बजाय सक्रिय भागीदार (एक्टिव पार्टनर) बन सके और देश का कृषि सेक्टर छोटा-मोटा रोजी रोटी रोजगार न रहकर, एक कृषि व्यवसाय के रूप में स्थापित हो सके।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)
– के. पी. मलिक