मुफ़लिसी में भी परिवार के बीच आपसी प्यार ही असली रोमांस है
दिलीप साहब ने आज हम सबको अलविदा कह दिया, लेकिन दिल्ली के ली मेरीडियन में हुई उनसे मुलाकात आज भी दिल में हू-ब-हू जिंदा है. पत्रकारिता की पढ़ाई करके उस समय जी न्यूज में काम करना शुरू किया था कि करगिल जंग शुरू हो गई. हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के रिश्तों में खटास के बीच तमाम लोग दिलीप साहब से पाकिस्तान का सर्वोच्च सम्मान निशान-ए-इम्तियाज लौटाने की मांग कर रहे थे, इसी बीच दिलीप साहब का दिल्ली आना हुआ.
वाद-विवाद से परे हटकर चैनल में दिलीप साहब का एक इंटरव्यू लेने की बात हुई और मेरी खुशनसीबी थी कि मुझे उनसे रू-ब-रू होने का मौक़ा मिला.
करगिल के मुश्किल हालात के बीच दिल्ली आए दिलीप साहब उस वक़्त लोगों से मिलने जुलने में काफी मसरूफ थे, बावजूद इसके उन्होंने इंटरव्यू के लिए वक़्त निकाला और बड़े सुकून और सादगी से सवालों के जवाब दिए.
सिल्वर स्क्रीन पर उनके तब तक के सफर से लेकर उनकी जिंदगी में आईं तमाम खूबसूरत अदाकारा और रोमांस के किस्सों पर बात हुई. इस बीच सवाल आया कि आप रोमांस को किस तरह परिभाषित करेंगे? इसपर दिलीप साहब के जवाब ने जैसे जिंदगी को समझने और जीने की ऐसी दिशा दी की आज भी उस सीख को गाँठ में बाँध रखा है.
दिलीप साहब ने कहा, “एक मज़दूर जब दिन भर मेहनत करके शाम को अपने परिवार के साथ बैठकर रूखी-सूखी रोटी प्रेम से खाता है यही जीवन का असली रोमांस है”. उनका जवाब सुनकर आंखों में आंसू आ गये और इस बात को मैंने आत्मसात कर लिया.
अमूमन जब किसी फिल्मी हस्ती से गुफ़्तगू होती है तो जीवन दर्शन की ऐसी गहरी बातें कम ही सुनने को मिलती हैं. लेकिन वह तो दिलीप साहब थे, असल जिंदगी में भी अहंकार और दिखावे से दूर. ख़ैर इंटरव्यू ख़त्म हुआ और उनका ऑटोग्राफ लेकर उनसे विदा ली उन्होंने “जीती रहो” का आशीर्वाद दिया और मैं ख़ुशी ख़ुशी बाहर आ गई, लेकिन ये क्या, मुलाकात का दौर अभी ख़त्म नहीं हुआ था.
दरअसल दिलीप साहब को तुरंत कहीं जाना था और संयोग से उसी लिफ्ट में वे भी सवार हो गये. अभी दिलीप साहब के व्यक्तित्व का एक ऐसा पहलू मेरे सामने आना बाकी था जिसने मुझे जीवन भर के लिये उनका मुरीद बना दिया. हुआ यूं था कि इंटरव्यू के आखिर में मैंने उनसे कुछ शेर सुनाने की गुज़ारिश की थी लेकिन वक़्त की कमी के चलते उन्हें इसके लिए इंकार करना पड़ा था. परंतु लिफ्ट में सवार होने के बाद भी उन्हें ये बात याद थी. बड़े ही अपनत्व से उन्होंने कहा तुम शेर सुनाने कह रही थी ना, इसके बाद 20वीं मंज़िल से नीचे आते आते उन्होंने दो शेर सुनाए. उस समय ना तो हम कैमरा चालू कर पाये और ना ही उस दौर में मोबाइल थे कि रिकॉर्ड कर लेते लेकिन दिलीप साहब की वो आवाज, वो प्यार, वो सादगी और अपनापन मेरे ज़हन में समा गया.
सच कहूँ तो ऊपर वाले की बड़ी मेहरबानी थी कि करिअर के शुरुआती दौर में ही उनकी जैसी शख्सियत से मिलने का मौक़ा मिला और वो मुलाकात इतनी गहरी छाप छोड़ गई कि इसके बाद किसी फिल्मी सितारे से मिलने की चाहत ही नहीं रही. सच है इस नश्वर संसार में अगर कुछ नहीं मिटता तो वो प्यार है.
{रत्ना शुक्ला की कलम से}