Development of Civilizations : दक्षिण एशिया में साम्राज्यों से मानसिक उपनिवेशवाद तक
दुनिया के इतिहास में कई Civilizations उभरीं और समय के साथ विलीन हो गईं, जैसे फ़ारसी साम्राज्य, रोमन साम्राज्य, और ओटोमन साम्राज्य।
Development of Civilizations : दुनिया के इतिहास में कई Civilizations उभरीं और समय के साथ विलीन हो गईं, जैसे फ़ारसी साम्राज्य, रोमन साम्राज्य, और ओटोमन साम्राज्य। हर सभ्यता ने समाज में बदलाव लाए और नए तरीकों से काम करना सिखाया। 17वीं शताब्दी के बाद, यूनाइटेड किंगडम का औपनिवेशिक युग शुरू हुआ और औद्योगिक क्रांति ने दुनिया में बड़ा बदलाव किया। इस बदलाव से शिक्षा, व्यापार और समाज में कई तरह की नई सोच आई। लेकिन इस औद्योगिक लहर के साथ-साथ कई समाजों ने अपने मूल संस्कार और पहचान खो दी। पूंजीवाद ने लोगों को ईर्ष्या और प्रतिद्वंद्विता के जाल में फंसा दिया, और समाज की मानसिकता में बड़ा बदलाव आया।
मानसिक उपनिवेशवाद की शुरुआत
Civilizations ब्रांड प्रचार, जिसे हम आज के समय में मार्केटिंग कहते हैं, ने शिक्षा और सोचने-समझने के तरीकों पर गहरा असर डाला। यह बदलाव सिर्फ सामान बेचने तक सीमित नहीं था, बल्कि इसने लोगों की सोच, उनकी इच्छाओं और उनके जीवन के लक्ष्यों को भी प्रभावित किया। खासकर दक्षिण एशिया जैसे क्षेत्रों में, जहाँ लोगों की सोचने की आजादी धीरे-धीरे खो गई। यूनाइटेड किंगडम ने इन देशों को न केवल भौतिक रूप से उपनिवेशित किया, बल्कि मानसिक रूप से भी। आज भी, दक्षिण एशिया की जनता मानसिक उपनिवेशवाद के असर में फंसी हुई है।
मानसिक उपनिवेशवाद का प्रभाव
आज जब दुनिया फिर से बदल रही है, दक्षिण एशिया के लोग अब भी मानसिक गुलामी से मुक्त नहीं हो पाए हैं। वे अपनी समस्याओं पर चर्चा करते हैं, विरोध भी करते हैं, लेकिन असल मुद्दों का सामना करने से डरते हैं। यह मानसिक जड़ता उन्हें आगे बढ़ने से रोक रही है। यहाँ की शिक्षा प्रणाली भी इस मानसिक गुलामी को बढ़ावा दे रही है, जहाँ बच्चों को सिखाया जाता है कि जीवन में सफलता सिर्फ प्रतिस्पर्धा और धन से ही मिलती है।
Iran में खामेनेई का मोसाद खौफ: अपनी सेना की जांच शुरू
पूंजीवाद ने समाज को इस हद तक जकड़ लिया है कि लोग जीवन के असली अर्थ से भटक गए हैं। एक बैल की तरह जो खंभे से बंधा होता है और सोचता है कि वह कहीं पहुंच रहा है, लोग भी बिना किसी प्रगति के जाल में फंसे हुए हैं। वे सोचते हैं कि वे बहुत आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन असल में वे वहीं के वहीं हैं।
समाधान की उम्मीद
लेकिन इस स्थिति में भी उम्मीद की किरण बाकी है। ऐसा विश्वास है कि भविष्य में कोई दार्शनिक या विचारक आएगा जो इस मानसिक गुलामी से लोगों को मुक्त करेगा। वह शिक्षा प्रणालियों में सुधार करेगा और समाज के खोए हुए मूल्यों को फिर से स्थापित करेगा। तब तक, हमें बस इंतजार करना होगा और आशा बनाए रखनी होगी कि एक दिन दक्षिण एशिया की जनता मानसिक गुलामी से बाहर निकलेगी और अपनी असली पहचान को फिर से पाएगी।