चीन अफ़ग़ानिस्तान में क्यों और कितना शक्रिय
अफगानिस्तान की 200 लाख करोड़ रुपए की खनिज संपदा पर है चीन की नजर; इसलिए खड़ा है तालिबान के साथ; जानिए सब कुछ
अफगानिस्तान में 20 साल बाद सत्ता में लौटे तालिबान से कोई अगर खुश है तो वह है चीन। चीन के अलावा रूस और पाकिस्तान ही ऐसे देश हैं, जो अफगानिस्तान के नए तालिबान शासन के लगातार संपर्क में हैं। तीनों ही देशों ने काबुल में अपने दूतावास खोल रखे हैं, जबकि भारत समेत दुनिया के ज्यादातर देशों के दूतावास अपने बोरिया-बिस्तर समेट चुके हैं।
अफगानिस्तान के हालात ये हैं कि वहां से अमेरिका करीब-करीब बाहर हो चुका है। रूस का बहुत ज्यादा इंटरेस्ट अफगानिस्तान में है नहीं। उसकी रुचि तो सिर्फ सेंट्रल एशिया में आतंकी गतिविधियों को रोकना है। पाकिस्तान तो वही करेगा जो चीन के फायदे का हो। यानी, अफगानिस्तान में तालिबान शासन का लाभ चीन ही उठाने वाला है। दरअसल, बात सिर्फ क्षेत्र में दादागिरी करने या प्रभाव बढ़ाने की नहीं है। अफगानिस्तान में 3 ट्रिलियन डॉलर (करीब 200 लाख करोड़ रुपए) की खनिज संपदा है, जिस पर दुनिया की फैक्ट्री के तौर पर स्थापित हो चुके चीन की नजर है।
तो क्या इस खनिज संपदा की वजह से चीन तालिबान को सपोर्ट कर रहा है? क्या और भी वजहें हैं जो चीन को तालिबान से दोस्ती को मजबूर कर रहा है? तालिबान से दोस्ती के पीछे चीन का एजेंडा क्या है? आइए समझते हैं इन प्रश्नों के जवाब-
यह फोटो 28 जुलाई का है। चीन के विदेश मंत्री ने तालिबान के बड़े नेताओं से तियांजिन (चीन) में मुलाकात की।
अफगानिस्तान में कितना और कैसे सक्रिय है चीन?
अब तक तालिबान शासन को कूटनीतिक मान्यता देने का मामला हो या सबसे पहले दोस्ती का हाथ बढ़ाने का, चीन सबसे आगे रहा है। आखिर तालिबान को इसकी ही तो जरूरत है, जिसके बदले में चीन अपनी शर्तें भी उस पर थोप सकता है।चीन ने सबसे पहले विशेष दूत लिउ जियान की जगह कतर और जॉर्डन में राजदूत रहे युइ जाओ योंग को काबुल भेजा। फिर चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने तालिबान के डिप्टी लीडर मुल्ला अब्दुल गनी बरादर से मुलाकात की। इससे दोनों के रिश्तों का टोन सेट हुआ। इसके बाद जो भी हुआ, वह दोनों को और करीब लाया।15 अगस्त को तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर पूरे अफगानिस्तान पर कंट्रोल हासिल किया तो अगले ही दिन चीन ने दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया। चीन के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता ने कहा कि हम तालिबान के साथ दोस्ताना रिश्ता चाहते हैं।25 अगस्त को चीन के राजदूत वांग यू ने काबुल में तालिबान के पॉलिटिकल ऑफिस में डिप्टी हेड अब्दुल सलाम हनाफी से मुलाकात की। यह किसी भी देश के डिप्लोमैट की तालिबान प्रशासन से पहली मुलाकात है। यानी, पूरी दुनिया से मान्यता चाहने वाले तालिबान को चीन पूरी तरह से मदद कर रहा है।
इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान के पॉलिटिकल ऑफिस के प्रवक्ता डॉ. एम नईम ने 28 अगस्त को यह तस्वीर सोशल मीडिया पर पोस्ट की। चीनी राजदूत ने हाल ही में काबुल में तालिबान के टॉप लीडर से मुलाकात की। वे दुनिया के ऐसे पहले राजदूत हैं जिसने तालिबान से डिप्लोमैटिक रिश्तों की शुरुआत की है।
तालिबान को सपोर्ट के बदले चीन को क्या चाहिए?
चीन ने जो कहा, उसके मुताबिक वह तालिबान से दोस्ती चाहता है, ताकि झिंजियांग प्रांत में आतंकी ग्रुप्स की एक्टिविटी को रोक सके। चीन के विदेश मंत्री की बरादर से मीटिंग के दौरान भी उइगर आतंकियों का मसला उठा था। वांग यी ने तो कहा भी था कि तालिबान को ETIM से सभी संबंध तोड़ने होंगे। यह संगठन चीन की राष्ट्रीय सुरक्षा और क्षेत्रीय अखंडता के खिलाफ सीधे-सीधे खतरा है।दरअसल, तुर्कीस्तान इस्लामिक मूवमेंट (TIM) को ईस्ट तुर्केस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ETIM) भी कहा जाता है। यह पश्चिमी चीन में उइगर इस्लामिक चरमपंथी संगठन है। यह संगठन चीन के झिंजियांग को ईस्ट तुर्केस्तान के तौर पर स्वतंत्र करने की मांग करता है।2002 से ETIM को UN सिक्योरिटी काउंसिल अल-कायदा सैंक्शंस कमेटी ने आतंकी संगठन के तौर पर लिस्ट में डाला है। हालांकि, अमेरिका ने 2020 में इस संगठन को आतंकी संगठनों की सूची से बाहर निकाल दिया था। इससे दोनों देशों में ट्रेड वॉर ने एक अलग ही मोड़ ले लिया।अमेरिका, UK और UN ने चीन पर झिंजियांग में लोकल मुस्लिम उइगर आबादी के खिलाफ मानवाधिकार उल्लंघनों के आरोप लगाए हैं। चीन पर इस समुदाय से बंधुआ मजदूरी कराने और कई तरह की पाबंदी लगाने के आरोप हैं। 2000 के दशक से ही ETIM की जड़ें अफगानिस्तान में रही हैं। उसे तालिबान व अल-कायदा का सपोर्ट रहा है।
क्या सिर्फ टेररिस्ट ग्रुप को कंट्रोल करने के इरादे से चीन तालिबान के साथ खड़ा है?
नहीं। अफगानिस्तान में रेअर अर्थ्स और लिथियम समेत कई खनिज भंडार हैं। इनके बारे में पहले जानकारी नहीं थी। पिछले 20 साल में अफगानिस्तान में खनिजों को लेकर कई आंकलन आए हैं। अमेरिकी रिपोर्ट्स का दावा है कि 3 ट्रिलियन डॉलर का खनिज भंडार वहां दबा हुआ है। यह आंकलन 2010 का है। इसकी आज की कीमत बहुत अधिक हो सकती है।अफगानिस्तान में लिथियम-आयन बैटरी में इस्तेमाल होने वाले लिथियम का दुनिया का सबसे बड़ा भंडार हो सकता है। इसका इस्तेमाल न केवल बैटरी में, बल्कि इलेक्ट्रिक वाहनों के साथ ही रिन्यूएबल एनर्जी इंडस्ट्री में बड़े पैमाने पर हो रहा है।अमेरिकी डिफेंस डिपार्टमेंट ने 2010 में अफगानिस्तान को ‘लिथियम का सऊदी अरब’ कहा था। इसका मतलब यह है कि मिडिल ईस्टर्न देश से कच्चे तेल की दुनियाभर को जिस तरह सप्लाई होती है, वैसी ही सप्लाई अफगानिस्तान से लिथियम की हो सकती है।2019 में अफगान खनिज मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि अफगानिस्तान में 1.4 मिलियन टन के रेअर अर्थ मटेरियल्स हैं। यह 17 एलिमेंट्स का एक ग्रुप है, जो कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स से लेकर मिलिट्री इक्विपमेंट तक में इस्तेमाल होता है।इसके अलावा कॉपर, गोल्ड, ऑइल, नेचरल गैस, यूरेनियम, बॉक्साइट, कोयला, लौह अयस्क, क्रोमियम, लेड, जिंक, जेमस्टोन, टेल्क, सल्फर, ट्रेवरटाइन, जिप्सम के बड़े भंडार यहां हैं।अफगानिस्तान की दिक्कत यह है कि लंबे समय से देश ने युद्ध के हालात झेले हैं। इस वजह से खदानों को एक्सप्लोर नहीं किया जा सका है। अमेरिका और अफगान सरकारों ने जब स्टडी की तो लिथियम, कॉपर समेत कई मिनरल्स के भंडारों की जानकारी सामने आई।
क्या चीन को तालिबान से और भी फेवर चाहिए?
हां। चीन के स्ट्रैटजिक बेल्ट-एंड-रोड इनिशिएटिव (BRI) का दायरा बढ़ जाएगा, अगर पेशावर से काबुल सड़क से जुड़ जाएगा। इस रोड को बनाने की बातचीत पहले भी हुई है। यह रोड बन जाता है तो मिडिल ईस्ट के लिए चीनी सामान को पहुंचाने में मदद मिलेगी। यह अधिक सुविधाजनक और तेज डिलीवरी में काम आएगा।काबुल से होकर नया रास्ता बनता है तो BRI से जुड़ने के लिए भारत पर निर्भरता कुछ हद तक कम हो जाएगी। चीन के लंबे समय से हो रहे अनुरोधों के बाद भी भारत ने BRI से जुड़ने में अब तक इनकार ही किया है।