ट्रिब्यूनल में नियुक्तियां नहीं होने से सुप्रीम कोर्ट केंद्र से नाराज, जानें ये होता क्या है और कैसे काम करता है?
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से ट्रिब्यूनल को लेकर नाराजगी जताई है। कोर्ट ने कहा कि सरकार अपॉइंटमेंट न करके ट्रिब्यूनल को शक्तिहीन बना रही है। कई ट्रिब्यूनल तो बंद होने के कगार पर हैं। हम इन हालात से बेहद नाखुश हैं।
साथ ही कोर्ट ने कहा कि हमारे पास हमारे पास अब केवल तीन विकल्प हैं। पहला- हम कानून पर रोक लगा दें। दूसरा- हम ट्रिब्यूनल बंद कर दें और सारे अधिकार कोर्ट को सौंप दें। तीसरा- हम खुद अपॉइंटमेंट कर लें। मेंबर्स की कमी के चलते NCLT और NCLAT जैसे ट्रिब्यूनल में काम ठप है।
देशभर के ट्रिब्यूनल्स में सदस्यों के 240 पद खाली पड़े हैं। अगर सरकार इन पदों पर नियुक्ति करती है, तो पेंडिंग केसेज में कमी आएगी और सालों से अटके पड़े मामलों में जल्दी फैसला आ सकेगा।
समझते हैं, पूरा मामला क्या है? कोर्ट की नाराजगी की वजह क्या है? ट्रिब्यूलन क्या होते हैं? कोर्ट और ट्रिब्यूनल में क्या अंतर है? और ट्रिब्यूनल में नियुक्ति को लेकर क्या विवाद है?
पहले पूरा मामला समझ लीजिए
2017 में केंद्र सरकार ने फाइनेंस एक्ट पेश किया। इस एक्ट के जरिए कई ट्रिब्यूनल्स को मर्ज कर दिया गया। मर्जर के बाद ट्रिब्यूनल्स की संख्या 26 से घटकर 19 हो गई।इस एक्ट के जरिए केंद्र सरकार को ट्रिब्यूनल्स में अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति और योग्यता से जुड़े नियम बनाने के अधिकार भी मिल गए।2019 में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने नए नियमों को रद्द कर दिया।फरवरी 2021 में केंद्र सरकार ने ट्रिब्यूनल रिफॉर्म्स (रेशनलाइजेशन एंड कंडीशंस ऑफ सर्विस) बिल को लोकसभा में पेश किया, लेकिन संसद में बजट सत्र के दौरान बिल पास नहीं हो सका, इसलिए इसी तरह के प्रावधानों के साथ अप्रैल में एक अध्यादेश लाया गया।इस अध्यादेश के खिलाफ मद्रास बार एसोसिएशन ने याचिका दायर की। कोर्ट ने याचिका पर सुनवाई करते हुए 2:1 से फैसला दिया और ट्रिब्यूनल में सदस्यों के कार्यकाल वाले प्रावधान को रद्द कर दिया।संसद के मानसून सेशन में सरकार ने ट्रिब्यूनल रिफॉर्म्स एक्ट पास किया। 9 अगस्त को ये बिल राज्यसभा से पास हुआ।अध्यादेश के जिन प्रावधानों को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया था, अब उन्हीं प्रावधानों को सरकार नए कानून के जरिए ले आई है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताई है। साथ ही ट्रिब्यूनल्स में खाली ढाई सौ पदों को लेकर भी आपत्ति जताई है।
विवाद किस बात को लेकर है?
विवाद ट्रिब्यूनल के सदस्यों और अध्यक्ष के कार्यकाल और उम्र को लेकर है। बिल में सदस्य और अध्यक्ष का कार्यकाल 4 साल का किए जाने का जिक्र है। साथ ही अध्यक्ष के लिए अधिकतम उम्र 70 साल और सदस्य के लिए 67 साल कर दी गई है। न्यूनतम उम्र भी 50 साल कर दी गई है।
एक्सपर्ट्स का मानना है कि ऐसा कर सरकार न्यायपालिका पर अपना नियंत्रण बढ़ाना चाह रही है। 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि रिअपॉइंमेंट के प्रावधानों के साथ सदस्यों का छोटा कार्यकाल न्यायपालिका पर कार्यपालिका के प्रभाव और नियंत्रण को बढ़ाता है।
अब समझिए ट्रिब्यूनल क्या होता है?
आसान शब्दों में समझें, तो ट्रिब्यूनल कानून द्वारा स्थापित न्यायिक और अर्ध-न्यायिक संस्थान होते हैं, जिन्हें कुछ खास विषय से जुड़े मामले देखने के लिए बनाया जाता है। ट्रिब्यूनल को बनाने का मकसद कोर्ट पर से लोड कम करना और मामलों की तेज सुनवाई करना है। ट्रिब्यूनल में फैसले भी जल्द लिए जाते हैं।
ट्रिब्यूनल के कई काम होते हैं, जैसे – विवादों का निपटारा करना, चुनाव लड़ने वाले पक्षों के बीच अधिकारों का निर्धारण करना, प्रशासनिक निर्णय लेना, मौजूदा प्रशासनिक निर्णय की समीक्षा करना आदि।
कानूनी मामलों के जानकार विराग गुप्ता के मुताबिक, ट्रिब्यूनल ऐसी विशेषज्ञ कोर्ट होते हैं जिन्हें सिविल कोर्ट का पॉवर होता है और ये हाईकोर्ट स्तर के मामलों की सुनवाई कर सकते हैं, लेकिन ट्रिब्यूनल का गठन कानून द्वारा होता है। जबकि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक अदालतें हैं। इसलिए ट्रिब्यूनल के आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी जा सकती है।
कोर्ट और ट्रिब्यूनल में क्या अंतर है?
ट्रिब्यूनल ऐसी विशेषज्ञ अदालत होते हैं, जिन्हें सिविल कोर्ट का पॉवर होता है, लेकिन ट्रिब्यूनल का कार्यक्षेत्र कोर्ट से कम होता है। ट्रिब्यूनल विषय और विशेषज्ञता आधारित होते हैं।
ट्रिब्यूनल में आमतौर पर एक टेक्निकल मेंबर होता है जो विषय विशेषज्ञ होता है और एक न्यायिक सदस्य होता है जो कानून का विशेषज्ञ होता है। यानी ट्रिब्यूनल में एक कानून का विशेषज्ञ और एक विषय का विशेषज्ञ होता है।
चूंकि किसी विषय के बारे में कोर्ट्स को आमतौर पर इतनी बारीक जानकारी नहीं होती, इसलिए ट्रिब्यूनल्स का गठन किया जाता है। जैसे टैक्स से जुड़े मसलों के लिए इनकम टैक्स ट्रिब्यूनल, पर्यावरण से जुड़े मामलों के लिए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल।
संविधान में ट्रिब्यूनल को लेकर क्या प्रावधान है?
ट्रिब्यूनल मूल संविधान का हिस्सा नहीं थे। 1976 में 42वें संविधान संशोधन के जरिए ट्रिब्यूनल्स को संविधान में शामिल किया गया। आर्टिकल 323-A में संसद को एडमिनिस्ट्रेटिव यानी प्रशासनिक ट्रिब्यूनल के गठन का अधिकार दिया गया। प्रशासनिक ट्रिब्यूनल का गठन केंद्र और राज्य दोनों के लिए किया जा सकता है।
वहीं, आर्टिकल 323-B में टैक्स, फॉरेन एक्सचेंज, इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट और भूमि सुधार जैसे 8 मामलों पर संसद या राज्यों की विधानसभा कानून बनाकर ट्रिब्यूनल का गठन कर सकती हैं। हालांकि आजादी के पहले से ही भारत में ट्रिब्यूनल काम कर रही है। 1941 में इनकम टैक्स अपीलेट ट्रिब्यूनल का गठन किया गया था।
किस तरह होती है ट्रिब्यूनल में नियुक्ति?
ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति एक सर्च-कम-सिलेक्शन कमेटी की सिफारिशों के आधार पर होती है।
सेंट्रल ट्रिब्यूनल्स की सिलेक्शन कमेटी के अध्यक्ष भारत के चीफ जस्टिस या उनके द्वारा कोई नामित सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश ही हो सकते हैं। अध्यक्ष के अलावा केंद्र सरकार द्वारा नामित दो सचिव भी सदस्य होते हैं। इनके साथ, वर्तमान अध्यक्ष या सुप्रीम कोर्ट के जज या हाई कोर्ट के रिटायर्ड चीफ जस्टिस और जिस मंत्रालय के अंडर ट्रिब्यूनल का गठन हो रहा है उस मंत्रालय के सचिव भी कमेटी के सदस्य बन सकते हैं।इसी तरह राज्यों के ट्रिब्यूनल्स के लिए भी अलग सर्च-कम-सिलेक्शन कमेटी होती है। इन कमेटी में अध्यक्ष के तौर पर राज्य के हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहेंगे। राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष, ट्रिब्यूनल के निवर्तमान अध्यक्ष या उच्च न्यायालय के रिटायर्ड जज, और राज्य के जनरल एडमिनिस्ट्रेटिव डिपार्टमेंट के सचिव या प्रमुख सचिव कमेटी का हिस्सा होते हैं।