भाई-भतीजा और मुसलमान, चल पाएगी माया की राजनीति की नई दुकान?
बसपा के संस्थापक कांशीराम को देश में खासतौर से उत्तर भारत में दलित राजनीतिक आंदोलन का संस्थापक माना जाता है । कई संगठनों का प्रयोग करते-करते आखिर में जाकर कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी का गठन किया । कई राज्यों में राजनीतिक आधार तलाशते-तलाशते कांशीराम की नजर देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश पर जाकर टिक गई जहां से उस समय लोकसभा में 85 सांसद आया करते थे। उस समय कांशीराम ने पंजाब और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों की बजाय उत्तर प्रदेश में ज्यादा मेहनत कर बसपा के राजनीतिक आधार को मजबूत करने का संकल्प लिया और राज्य की प्रभारी के रूप में मायावती को नियुक्त किया।
कांशीराम , बसपा और मायावती
आपको बता दे कि मायावती कांशीराम की कोई रिश्तेदार नहीं थी बल्कि बसपा की एक राजनीतिक कार्यकर्ता मात्र थी जिन्हे कांशीराम ही राजनीति में लेकर आए थे और उनके संघर्ष के गुणों को देखकर उन्होने मायावती को यूपी की राजनीति में न केवल बढ़ावा दिया बल्कि प्रदेश की मुख्यमंत्री भी बनाया। आगे चलकर मायावती ने भी अपने राजनीतिक गुरू को निराश नहीं किया और अपने राजनीतिक कौशल और दलित वोटों के सहारे पार्टी का विस्तार करते हुए कई बार उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई। दिल्ली की राजनीति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
दलित राजनीतिक आंदोलन को खड़ा करते समय कांशीराम ने कई सिद्धांतो का कठोरता से पालन किया। पहला , परिवारवाद से पूरी तरह दूरी तरह बनाई रखी ( उन्होने अपने परिवार के किसी सदस्य को राजनीति में नहीं आने दिया और न ही किसी को बसपा में कोई पद दिया ) । दूसरा , राजनीतिक कारणों या वोट बैंक की मजबूरियों के चलते उन्होने टिकट बंटवारे में सभी जातियों के लोगों को प्रतिनिधित्व तो दिया लेकिन पार्टी का कोर या यूं कहे कि मूलभूत सिद्धांत हमेशा दलित , दलित राजनीति और दलित नेता ही रहे।
1993 में मुलायम सिंह यादव के साथ सत्ता में भागीदारी के साथ शुरू हुआ बसपा और मायावती का सफर 2019 आते-आते पटरी से उतरता नजर आया । 2014 में लोकसभा चुनाव में शून्य सीटें , 2017 के विधानसभा चुनाव में करारी हार और कट्टर दुश्मन समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के बावजूद 2019 के लोकसभा चुनाव में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद से ही मायावती अपना राजनीतिक ट्रेक बदलने में जुट गई है । हालांकि बसपा के कई संस्थापक और मायावती के आलोचक नेता तो पहले ही मायावती पर कांशीराम के दिखाए मार्ग से भटकने का आरोप लगाते रहे हैं लेकिन अब तो सब कुछ साफ-साफ दिखाई दे रहा है ।
अब मायावती को परिवार का ही सहारा
अपने जीवन के सबसे अहम राजनीतिक पड़ाव में अब मायावती को परिवार का ही सहारा है । यह हम नहीं कह रहे हैं बल्कि मायावती के फैसलों से ऐसा लग रहा है । कांशीराम के सिद्धांतो के विपरीत जाकर मायावती ने अपने परिवार के लोगों को पार्टी में अहम पद दिया है । पार्टी के कैडर को यह साफ-साफ नजर आ रहा है कि मायावती के बाद पार्टी की कमान किसी अन्य दलित नेता के नहीं मिलेगी बल्कि उस पर मायावती के परिवार का ही कब्जा रहेगा। कांशीराम के संघर्ष को देखने और उन्हे जानने –समझने वालों के लिए ये किसी झटके से कम नहीं हैं। परिवारवाद के खिलाफ कांशीराम द्वारा खड़ी की गई पार्टी में अब परिवार का ही वर्चस्व नजर आ रहा है । मायावती पार्टी अध्यक्ष है और उनके बाद के दोनों पदों पर भाई आनंद कुमार और भतीजे आकाश आनंद बैठे हैं। दिलचस्प तथ्य तो यह है कि आनंद कुमार को अप्रैल 2017 में भी पार्टी उपाध्यक्ष बनाया गया था, लेकिन साल भर के भीतर ही उन्हें इस आधार पर हटा भी दिया गया कि उनकी वजह से बसपा में भी परिवारवाद की चर्चा होने लगी है। अब फिर एक साल बाद वही आनंद पार्टी उपाध्यक्ष बन गए हैं। भतीजे आकाश आनंद का नाम हालिया लोकसभा चुनाव में चर्चा में आया था। उस समय उन्हें सार्वजनिक मंचों पर मायावती के साथ लगातार देखा गया था। पार्टी ने उन्हे स्टार प्रचारक भी बनाया था। अखबारों में खबरें छपीं तो इसे मनुवादी मीडिया का एक और कारनामा करार दिया गया, लेकिन वही आकाश अब बसपा संगठन के बहुत अहम कोऑर्डिनेटर के पद पर आसीन हो चुके हैं। बसपा को आमतौर पर अनुशासित कैडर और वोट बैंक वाली पार्टी माना जाता है क्योंकि उसके मूल कार्यकर्ता बहुत समर्पित और एक मिशन से जुड़े हैं। ये लोग नेतृत्व पर आमतौर पर सवाल नहीं उठाते लेकिन जब कोई बाहर से आकर उनके ऊपर बैठ जाए या नेता के परिवार को प्रमुखता मिलने लगे तो कैडर के अपने आप को उपेक्षित महसूस करने का खतरा बढ़ जाता है । ऐसे में निश्चित तौर पर यह सवाल तो उठ ही रहा है कि आखिर क्या सोचकर मायावती ने राजनीति के सबसे कठिन दौर में कैडर की बजाय परिवार पर दांव लगाना उचित समझा है।
किसी जमाने में ब्राह्मणों पर दांव लगाने वाली मायावती की नजर अब मुसलमानों पर
बसपा की राजनीति का एक वो दौर भी आया जब मायावती को यह अहसास हुआ कि सिर्फ दलित वोट बैंक के सहारे अपने दम पर सत्ता हासिल नहीं की जा सकती है तब मायावती ने बृजेश पाठक और सतीश चन्द्र मिश्रा जैसे ब्राह्मण नेताओं के सहारे दलित-ब्राह्मण वोट बैंक का गठजोड़ बना कर पूर्ण बहुमत हासिल किया था। लेकिन 2014 के बाद हालात बदले और ऐसे बदले कि अब बीजेपी को हराने के लिए मायावती की नजरें मुसलमानों पर जाकर टिक गई है। उत्तर प्रदेश में मुसलमानों को सपा का वोट बैंक माना जाता है । उसी सपा का जिससे गठजोड़ कर मायावती ने 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ा था। सपा से गठबंधन तोड़ने का ऐलान करते हुए बसपा प्रमुख ने अखिलेश यादव पर एक सनसनीखेज आरोप लगाया । उन्होंने कहा कि समाजवादी पार्टी के मुखिया ने उन्हे मुसलमानों को लोकसभा उम्मीदवार नहीं बनाने की सलाह दी थी। जाहिर है यह बयान देकर मायावती प्रदेश के मुसलमानों को यह बताने की कोशिश कर रही थी कि जिस सपा पर वो ज्यादा भरोसा करते थे वही सपा अब उन्हे टिकट तक नहीं देना चाहती है । ऐसा बयान देकर मायावती ने मुसलमनों को लेकर एक बड़ा राजनीतिक दांव खेल दिया है जिसकी परीक्षा प्रदेश में 12 विधानसभा सीटों के लिए होने वाले उपचुनाव में हो जाएगी।
परिवारवाद , मुसलमान और दलित आंदोलन
उत्तर प्रदेश की गांव-देहात की राजनीति को करीब से समझने वाले यह बखूबी समझते हैं कि दलित-मुस्लिम वोट बैंक को एक साथ लाना बहुत आसान नहीं है । ये तभी एक साथ आ सकते हैं जब उनके बीच में एक और समुदाय गोंद की तरह काम करे । जैसा प्रदेश में 60 से 90 के दशक के बीच हुआ करता था । वहीं बसपा के भावुक और नेतृत्व पर आंख मुंदकर विश्वास करने वाले दलित मतदाताओं को परिवारवाद के समर्थन में खड़ा करवाना भी आसान काम नहीं है । ऐसे में बड़ा सवाल तो यही खड़ा हो रहा है कि क्या देश की दलित राजनीति परिवारवाद और मुसलमानों के सहारे एक बार फिर से खड़ी हो पाएगी ?