सत्ता ज़हर है, सौ सही फैसलों में एक गलत फैसला जनविश्वास खो देता है
पत्रकार नवेद शिकोह कि कलम से
काश लॉकडाउन लागू करने से पहले करोड़ों गरीब प्रवासियों पर नज़रे इनायत कर लेते !
निर्णण, आदेश और उसका क्रियान्वयन ही शासक की सफलता या अफलता का पैमाना है। कोरोना काल और लॉकडाउन में मजबूर मजदूरों की मजबूरी सरकारों की कार्यप्रणाली पर सवाल कर रही है। सवाल उठाये जा रहे हैं कि दुनिया में कोविड 19 का आतंक फैलने और भारत में इस वायरस के प्रवेश के करीब एक महीने बाद लॉकडाउन लागू किया गया तो कुछ दिन और लेट हो जाते, पर करोड़ों की तादाद वाले प्रवासी मज़दूरो़, श्रमिकों, कामगारों को इनके गंतव्य स्थान तक पंहुचाने का इंतजाम कर देते। और फिर लॉकडाउन लागू करते। ऐसे में पलायन की अफरातफरी में देशभर की जनता ने जो लॉकडाउन की तपस्या की वो भंग ना होती। मजदूरों की मजबूरी से लॉकडाउन नहीं टूटा होता तो इस वक्त पूरी तरह से लॉकडाउन खत्म हो चुका होता। अब सरकार इसे पूरी तरह खत्म करने में इसलिए झिझक रही है कि कहीं ऐसा ना हो कि सोशल डिस्टेंसिंग और लॉकडाउन का उल्लंघन करने वाले लाखों श्रमिक/मजदूर जो शहरों से गांव पंहुच गयें हैं उनके जरिये कोरोना वायरस का भयावह फैलाव ना हो जाये।
इधर देश के हर हिस्से से गरीब मजदूरों की दुर्दशा देखकर जनता विचलित हो रही है। इन गरीबों को राहत देने के लिए सरकारों पर दबाव बनाया जा रहा है। आम इंसान की मजदूरों के प्रति हमदर्दी का पैमाना छलक रहा है। ऐसे में सरकार को पसंद करने वाले कुछ लोग सरकार का बचाव करते हुए अफसरों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठा रहे हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो प्रवासी मजदूरों की बदहाली पर सरकार के फैसलों को गलत बता रहे हैं। मजदूरों के महत्व का बखान कुछ इस तरह हो रहा है-
गरीब मेहनतकश भारत की जान है, इसकी जान बचाइए।
ये बढ़ती जनसंख्या की तस्वीर नहीं है। ये भारत की जान है, भारत की शान और जनशक्ति हैं। उन कल-कारखानों, कंपनियों की ऊर्जा है जो भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ साबित होते हैं। ये मज़दूर मजबूरी नहीं मजबूती हैं, इनका कमजोर होना देश का कमजोर होना साबित होगा। इनकी अनदेखी के गुनाहों का ठीकरा नौकरशाही के सिर पर फोड़ने से काम नहीं चलेगा।
कुछ सरकार समर्थक बचाव में बदहाली को जनसंख्या वृद्धि का परिणाम बता रहे हैं। कह रहे हैं कि ये बड़ी जनसंख्या की तस्वीर है, और ज्यादा जनसंख्या होने की वजह से ये भयावह स्थिति पैदा हो रही है। इसके जवाब में ये कहा जा रहा है कि ये रेडीमेड और पारंपरिक वाक्य भी अब काम नहीं आने वाला। भारत के मजदूर, श्रमिक, कामगार, गरीब मेहनतकशों का जनसैलाब बढ़ती आबादी का दृश्य नहीं, ये ही भारत की आत्मा है। देश की अर्थव्यवस्था की रीड़, उन्नति, प्रगति और स्मृद्धि का रास्ता है। भारत की सबसे बड़ी शक्ति मेहनकशों की जनशक्ति है।
कोरोना काल में सत्तानशीनों का पहला फर्ज है इनको बचाना। इनका पेट भरना। ये भेड़-बकरियों की तरह दिखाई दें और कीड़े-मकोड़ों की तरह मरने लगें तो देश को संभाल पाना मुश्किल होगा। कोरोना काल की बढ़ती मुसीबतों के बीच इन्हें बचाना ही देश को बचाना होगा। माना कि सत्तानशीनों की नेक इच्छा शक्ति और जी तोड़ मेहनत साफ नज़र आ रही है, लेकिन फिर भी बदहाली का नंगा नाच सड़कों पर सिर चढ़ कर बोल रहा है। ये सब देखकर हम ये कह कर सत्ता का बचाव नहीं कर सकते हैं कि सरकार बेहतर करना चाहती है लेकिन अफसरों का नाकारापन पलीता लगा रहा है। ये कहना न्यायोचित नहीं है। सत्ता की कार्यकुशलता इसी पर निर्भर करती है कि वो नोकरशाहों और प्रशासनिक अमले से कैसे काम लेती है। यदि सरकार अपनी योजनाओं या आदेशों का पालन अफसरों से नहीं करवा पाये तो फिर सत्ता को हम बेहतर कैसे कह सकते हैं। जनहित की नियत और शक्ति तो तमाम आम इंसानों में भी होती हैं किंतु इसे क्रियान्वित करने की ताकत रखने वाले के सुपुर्द ही सत्ती की कुर्सी की जाती है।