बात बराबरी की:चाहे जबरन मांगभराई हो, बलात्कार या फिर तेजाब से नहलाना; मानसिकता एक ही है औरत पर अपने नाम की मुहर लगाना
देश में हर मिनट 4 बलात्कार हो रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के मुताबिक आंकड़ा हकीकत से काफी कम है। ज्यादतियां इससे कई गुना ज्यादा हैं। एसिड अटैक में हम नंबर 1 हैं। बीते 5 सालों में 1500 से ज्यादा लड़कियों को सबक सिखाने के लिए उन पर तेजाब फेंका गया और घरेलू हिंसा में तो हम हरदम ही बेजोड़ रहे। मारपीट न करें तो भी डिक्शनरी में ऐसी-ऐसी जहरीली बर्छियां हैं, जो बगैर जख्म दिए औरत को बींध दें। अब सजाओं की फेहरिस्त में एक और नाम जुड़ा है- शादी! जो औरत पालतू बनने से इनकार करे, उसकी मांग में जबरन पावभर सिंदूर थोप दो। लो, तुम मेरी हो गई। सिंदूर पोंछकर भी अब मेरा नाम तुम्हारा पीछा करेगा।
बिहार के समस्तीपुर में ऐसा ही एक मामला आया। यहां एक प्राइमरी हेल्थकेयर सेंटर पर तैनात महिला डॉक्टर ने लापरवाही के कारण कंपाउंडर को नौकरी से हटा दिया। कंपाउंडर ने माफी नहीं मांगी। लापरवाही तजने का वादा नहीं किया, बल्कि इंतजार किया। इंतजार कि कब महिला डॉक्टर दफ्तर में अकेली हो और कब वो बदला ले सके। मौका पाते ही कंपाउंडर ने डॉक्टर को पकड़कर उसकी मांग में सिंदूर भर दिया, लेकिन जैसे इतनी बेइज्जती ही काफी नहीं थी, उसने साथ में वीडियो बनाकर वायरल भी कर दिया।
अब डॉक्टर जहां भी जाएगी, चौड़े पाड़ की सुर्ख मांग-भरी ये तस्वीर उससे पहले पहुंच चुकी होगी। शादी के लिए साथी तलाशेगी तो बीस सवाल होंगे। शुभचिंतक कहने वाले बहुतेरे लोग तो उसे कामचोर कंपाउंडर को अपनाने की सलाह भी दे डालेंगे। आज से 20 साल बाद भले उस औरत की जिल्द धुंधला जाए, लेकिन मांग पर लगा लाल रंग झक सुर्ख ही रहेगा। खबर लिखे जाने तक कंपाउंडर गायब था। वहीं डॉक्टर ने थाने में रिपोर्ट तो लिखवाई, लेकिन कैमरे पर चेहरा लाने से कतरा रही थी। कुल मिलाकर कंपाउंडर का बदला पूरा हो गया। शादी की रस्म उस महिला से प्रेम नहीं था, बल्कि बदला था, जहां सिंदूर ने तेजाब की कमी पूरी कर दी।
ऐसे मामले थोड़ी उमक-झुमक के साथ ढेरों मिल जाएंगे। बीते साल के आखिर में एक मामला उछला था, जिसमें बेहद महत्वाकांक्षी एक युवती को, उसे पसंद करने का दावा करने वाले युवक ने सरेराह भून दिया था। युवक दूसरे मजहब का था, लेकिन मसला यहां मजहब नहीं। जहां मामला रिजेक्शन का आए, कमोबेश सारे पुरुष हम-मजहब होते हैं। लड़की की न सुनते ही भभकते हुए वे उस पर कोई ठप्पा लगा देना चाहते हैं। कोई सील, कि लो अब तुम मेरी हो या फिर किसी की नहीं।
औरत की मोहरबंदी में सिंदूर एक काफी मासूम सा हिस्सा है। इसके और भी कई ढंग हैं जो सदियों से चले आ रहे हैं। ‘अवर बॉडीज, देअर बैटलफील्ड’ नाम की किताब में लेखिका क्रिस्टीना लैंब औरत के शरीर पर मोहरबंदी का इतिहास बताती हैं। किताब में एक मां का इंटरव्यू है, जो देर शाम काम से लौटती है तो पाती है कि घर खुला हुआ है, सामान बिखरा हुआ और सात महीने की उसकी बेटी बेहोश पड़ी है। बच्ची के कपड़े खून से सने हुए थे। लगभग 200 किलोमीटर दूर एक अस्पताल भागने पर पता चला कि उसकी बेटी अकेली नहीं, ऐसी बहुतेरी बच्चियों से लेकर औरतें रोज रेप के कारण अधमरी हो अस्पताल पहुंच रही थीं। वजह! औरत का अलग मत का होना, अलग देश से होना, मर्द से ज्यादा पढ़ी-लिखी होना, खूबसूरत होना या फिर केवल औरत होना।
जैसे किसी बोतल पर लगी सील उसे खास ब्रांड का बनाती है, वैसे ही औरत के शरीर पर कोई चिह्न उकेरा जाता है, जो बताए कि फलां देह, फलां पुरुष की जागीर है। रेप भी ऐसा ही एक चिह्न है। पक्का प्रमाण नहीं, लेकिन माना जाता है कि औरत की सीलबंदी की शुरुआत युद्ध के साथ हुई होगी। छोटी-छोटी कबीलाई लड़ाइयां या फिर मुल्क की सरहदों पर जंग। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान सैनिकों ने दुश्मन मुल्क की औरतों को नग्न कर उनकी देह पर गालियां लिखवा दीं ताकि औरत जब अपने पुरुष के पास लौटे तो लौटकर भी अपनाई न जा सके। नतीजा ये हुआ कि युद्ध खत्म होने के बाद एकाएक हजारों औरतों ने खुदकुशी कर ली।
बांग्लादेशी औरतों को केले के पेड़ों से बांधकर रेप हुआ और फिर उनके नुचे हुए शरीरों पर बलात्कारियों ने अश्लील तस्वीरें या अपने नाम गुदवा दिए। ये वह नाम नहीं, जो प्रेमिका अपने साथी के प्यार में पगकर लिखवाती है। ये नफरत की थूक उगलते नाम थे. ये वह नाम थे, जो औरत को मर्द की जागीर बनाते थे।
चाहे जितनी लंबी हो, जंग एक रोज खत्म हो ही जाती है। पुरुष लौटते हैं। सीने पर बहादुरी का तमगा चमकता होता है। चेहरे पर जख्मों का हर निशान किसी न किसी जीत की कहानी कहता है। वहीं युद्ध के मैदान से बहुत दूर रही औरत की देह से लेकर आत्मा तक लहूलुहान होती है, लेकिन कोई सुनवाई नहीं होती।
नब्बे के दशक में पहली बार युद्ध में बलात्कार पर अदालत बैठी। इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट में सुनवाई के दौरान रवांडा की औरतों ने अपनी कहानियां सुनाईं। इस पर कोर्ट का दिल नहीं भरा। कोई चीखकर रो नहीं पड़ा। न किसी ने मुट्ठियां भींचकर आंखें बंद कर लीं। इसकी बजाय बचाव पक्ष के वकील ने हैरत से कहा- एक दिन में 16 रेप! क्या मैं सही समझ पा रहा हूं! इस पर जजों की पांत ठठाकर हंस पड़ी।
चाहे जबरन मांगभराई हो, बलात्कार या फिर तेजाब से नहलाना- मानसिकता एक ही है, औरत पर अपने नाम की मुहर लगा देना। समस्तीपुर से लेकर समरकंद तक यही सोच पसरी हुई है। इस सबके बीच थोड़ी ही सही, जनाना फुसफुसाहटें तेज हो रही हैं। इतिहास के अगले पन्नों पर शायद अब का वक्त सबसे बुरे वक्त के तौर पर शामिल होने से बच जाए। ये वो वक्त है, जिसकी मुश्किलें ही, औरत को बोल सकने की गुंजाइश दे रही हैं।