टुकड़ा टुकड़ा लिखी गई ज्योतिरादित्य सिंधिया के पार्टी छोड़ कर जाने की कहानी
सिंधिया जी के कांग्रेस छोड़कर जाने की ये कहानी टुकड़ा टुकड़ा लिखी गई. कमलनाथ सरकार के सत्ता पर काबिज होने से लेकर आज इस घटना क्रम तक – ये कथा सत्यनारायण की कथा की तरह अंतिम अध्याय तक अपने सही अंजाम को पहुंची! जिसका संदेश आने वाली राजनैतिक पीढियां और जनता इसे याद रखेंगी जरूरी अध्याय/ पाठ की तरह !
मध्यप्रदेश सरकार में जो बदलावा आ रहा है। या आयेगा इसके लिए कांग्रेस सरकार खुद उत्तरदायी है – सरकारें जब बदलती है तो कौन नफे में होता है और कौन वे लोग होतें हैं जो नुकसान उठाते हैं? ये सवाल हमेशा से बदलाव के समय उठता रहा है।
राजनीति के सबसे अधिक कठीन समय में ये देखना बड़ा ही हास्यास्पद है कि , पार्टियों के विधायकों को अज्ञातवास पर रखना उन्हें छुपाकर रखना , ऐसा कभी नही हुआ ,ये बात व्यक्ति व्यक्ति की ढुल मुल स्थिति और मनस्थिति को उजागर करती है — कि वो कितने भरोसेमंद है। अब आने वाली राजनीति में ज्यादातर पढ़े लिखे विधायकों को ही मौक़ा मिले ताकि जो परिदृश्य पैदा हुआ वो सामने ना आये और नेतृत्व भी मुश्किल में ना आये और किसी को कोई नुकसान ना हो–
फिलहाल फिर भी ये जो परिवर्तन हुआ है ये अनायास नही हुआ है सिंधिया समर्थकों की असल तस्वीर देखना हो तो उनके गुना अशोकनगर चंदेरी ग्वालियर और आस पास के इलाकों में जाकर देखिये। किस तरह से लोग उन पर जान तक कुर्बान करने को तैयार रहते हैं। इस्तीफे देना तो मामूली बात है सिंधिया जी ने जब उनकी सरकार ( कांग्रेस ) की मध्यप्रदेश में रही तब भी और जब नही थी तब भी वहाँ वो जनहित के काम किये हैं। वो लाजवाब है और ये सब जमीनी स्तर पर जाकर लोगों से बात करके मालूम होता है –जब शिवराज सरकार थी तब भी चन्देरी में तकरीबन पूरी बस्ती में लूम हथकरघा चला कर आजीविका कमाने वालों के घरों में उन्होंने एक बत्ती सोलर ऊर्जा से फ्री में कनेक्शन दिया और बमुश्किल शाम 5 बजे जब हथकरघा बन्द हो जाते थे ,तो वही लूम रात 10 बजे तक चलते। इस तरह उनके काम करने की क्षमता में 4 घण्टे और अधिक का इजाफा हुआ। गरीब लोगों के हालात में सुधार जैसे काम को आप कैसे कमत्तर आंक सकते हैं।
मुश्किल तब होती है जब आप हम उन्हें किसी बड़े घराने के महाराज से आगे एक नेता या राजनेता के अलावा सामान्य इंसान नही मान पाते हैं।
वे कर्मठ युवा और सक्षम नेता साबित होंगे जब उनपर केंद्र जिम्मेदारोयाँ सौंपेंगी। ये एक संयोग ही है कि उनका परिवार पार्टियां बदलता रहा है,लेकिन ये बदलाव कितना जरूरी है जब आप किसी पार्टी में बैठे बैठे जंग खाते रहने को मजबूर हो जाओ या फिर से नई ऊर्जा और चमक के साथ कर्मठता से काम करने को तैयार हो जाओ क्या फर्क पड़ता है। वो दिल्ली रायपुर, जबलपुर या ग्वालियर स्टेशन हो लेकिन बताएं कितना जरूरी है क्या काम करने के समय में कोई खाली कैसे बैठ सकता है ?
एक सुझाव आया मेरे महिला सीनियर जर्नलिस्ट मित्र की तरफ से की उन्हें नई पार्टी बना लेनी थी। कम समय में ज्यादा ऊर्जा खर्च करके भी जनता का विश्वास हांसिल करना -आसान नही है। नई पार्टी बनाने वालों का हश्र भी लोग जानते हैं कांग्रेस के बड़े एक नेता मुकेश नायक ने बागी होकर दिग्विजय काल में अपनी एक नई पार्टी बनाई, पार्टी नही चली वो डिप्रेशन में फिर टीवी पर प्रवचन देते झूठे आध्यात्मिकता की और बढ़े , लेकिन वो भी नही हुआ उनसे। अब नही पता कहाँ है
ये सच है दिग्विजय सिंह और कमलनाथ की जोड़ी ने मिलकर जो किया सिंधिया जी के साथ , वो माफी लायक नही है। सरकार के खिलाफ ये फैसला इतना ज्यादा नही जितना आत्मा के पक्ष में रहा है —
ये तय है शिवराज जी लौट रहे हैं ,और कमलनाथ सरकार यदि जाती है तो इस विकट स्थिति में मध्यप्रदेश की नैया शिवराज ही लगा पाएंगे किसी नये मुख्यमंन्त्री के ये बस की बात नही होगी। पार्टी मुख्य को ये भी सोचना होगा आखिरकार उनके पास 13 वर्षों का कार्यकाल का मजबूत अनुभव है — यही फिलवक्त जनता के हित में होगा।
(लेख के विचार लेखिका के हैं )