Editorial : हमारे बाजरे से रूबरू होंगे दुनिया के देश
सरकार ने विदेशों में मोटे अनाज को लोकप्रिय बनाने और बाजरा आदि के निर्यात को बढ़ाने का पूरा रोडमैप तैयार कर क्रियान्वयन आरंभ कर दिया है।
नई दिल्ली। वह दिन दूर नहीं जब दुनिया के देश हमारे बाजरे के स्वाद से रूबरू होगे। आज मोटे अनाज को देश और विदेश दोनों जगह लोकप्रिय बनाना शुरू हो गया है। अब भारत के मोटे अनाज खासतौर से बाजरा को दुनिया के देशों में पहुंचाने की पहल आरंभ हुई है। एपिडा सहित अन्य निर्यातक संस्थाओं द्वारा इसके लिए संयुक्त प्रयास किए जा रहे हैं तो विदेशों में रोड़ शो, फूड फेस्टिवल, कॉन्क्लेव आदि के आयोजन से मोटे अनाज से बने उत्पादों से विदेशियों को आकर्षित करने और निर्यात को बढ़ावा देने के प्रयास शुरू हो गए हैं। दिल्ली में सांसदों को लंच में मोटे अनाज से तैयार व्यंजन दिए जा चुके हैं। अन्य आयोजनों में भी मोटे अनाज से तैयार व्यंजनों को भी प्रमुखता से स्थान दिया जा रहा है। बाजरा व अन्य मोटे अनाज और उनसे तैयार उत्पादों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाजार तैयार करने की सकारात्मक शुरुआत हुई है जिसके परिणाम प्राप्त भी होने लगे हैं।
यही कोई चार-पांच दशक पुरानी बात होगी। संदर्भ तो राजस्थान से ही ले रहा हूं पर कमोबेश यही स्थिति देश के अन्य प्रदेशों में भी रही होगी। जब घर पर कोई मेहमान आता था या तीज-त्योहार होता था तभी घर में मीठे के रूप में चावल और गेहूं की चपाती बना करती थी। अन्यथा दिन प्रतिदिन का खाना तो सर्दियों में बाजरा-मक्का की रोटी, बाजरा की राबड़ी या मक्के की दलिया या गर्मियों में जौ की दलिया और इसके साथ इसी तरह से मोटे अनाज की रोटी और हरी सब्जियां, कढ़ी जिसे गांव-देहात में खाटा कहकर पुकारा जाता था बड़े चाव से खाते थे। फिर एक दौर चला जब मोटे अनाज की जगह गेहूं ने ले ली और फिर आज तो लोग गेहूं-चावल को भी छोड़कर जंक फूड पर जोर देने लगे हैं जिसके दुष्परिणाम साफ दिखाई देने लगे हैं। दवाइयों के सहारे जीवन गुजरने लगा है तो इम्यूनिटी भी बुरी तरह से प्रभावित होने लगी है। खैर यह तो रही एक बात।
अब यदि हम खेती किसानी की भी चर्चा करें तो देखेंगे कि मोटे अनाज की खेती कम लागत और कम पानी की खेती होती है। अब वह चाहे बाजरा हो, मक्का हो, रागी हो, ज्वार हो या और इसी तरह का मोटा अनाज। दूसरी बात यह कि इनमें रोग भी कम लगते हैं तो जहरीले कीटाणु नाशकों का उपयोग भी ना के बराबर ही होता है। इस सबके बावजूद एक बात और मोटे अनाज का रकबा धीरे धीरे घटने के बावजूद यदि बाजरे की ही बात करें तो सारी दुनिया में उत्पादित कुल बाजरे का 41 फीसद बाजरा हमारे देश में उत्पादित होता है। राजस्थान में तो बाजरा खरीफ की प्रमुख फसलों में से एक है। आज सभी राजनीतिक दल और किसान समर्थक संगठन किसानों की आय बढ़ाने की बात कर रहे हैं। तो यह भी साफ हो जाना चाहिए कि मोटे अनाज के निर्यात की मार्केटिंग सही तरीके से होती है और इसके उत्पादों को बाजार में आक्रामक रणनीति के साथ उतारा जाता है तो अंततोगत्वा इसका फायदा किसान को ही जाना है। यह अपने आप में कटु सत्य है।
जंक फूड के जद में आए दुनिया के देशों को मोटे अनाज का महत्व समझाने की पहल तो भारत ने 2018 को कदन्न वर्ष मनाकर ही कर दी थी। उसी का परिणाम रहा कि मार्च, 2021 में भारत द्वारा मोटे अनाज के महत्व को एकबार फिर समझाने के लिए 2023 को अंतरराष्ट्रीय मिलेट वर्ष घोषित करने का प्रस्ताव रखा तो दुनिया के 72 देशों ने भारत के प्रस्ताव का समर्थन किया। अब योजनाबद्ध तरीके से विदेशों में भारत के मोटे अनाज के निर्यात को बढ़ावा देने के प्रयास शुरू कर दिए गए हैं। दिसंबर में रोम में अंतरराष्ट्रीय मिलेट वर्ष का आगाज हो चुका है। विदेशी धरती पर बायर सेलर मीट जैसे आयोजन आरंभ कर दिए गए हैं। उत्पादकों और उपभोक्ताओं के बीच सीधा संवाद कायम करने की कार्ययोजना पर अमल शुरू हो गया है। दरअसल अब लोगों को समझ आने लगा है कि कुपोषण के खिलाफ मोटा अनाज हथियार के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है तो दूसरी और हाइपरटेंशन और शुगर जैसी बीमारियों में भी मोटा अनाज कारगर सिद्ध हो सकता है।
अन्तरराष्ट्रीय मिलेट वर्ष का फायदा उठाने के लिए नई रणनीति के अनुसार आगे बढ़ना होगा। हालांकि सरकार ने दक्षिण अफ्रीका, दुबई, जापान, दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया, जर्मनी, अमेरिका, इंग्लैण्ड सहित विदेशों में रोड शो, प्रदर्शनी, फूड फेस्टिवल आदि आयोजित करने का रोडमेप तैयार किया गया है। निश्चित रूप से इसके परिणाम सकारात्मक ही प्राप्त होंगे। क्योंकि कदन्न वर्ष के बाद 2021-22 में जिस तरह से बाजरा के निर्यात में 8 प्रतिशत से भी अधिक की बढ़ोतरी दर्ज की गई है उससे यह साफ हो जाता है कि विदेशों में बाजरा सहित भारतीय मोटे अनाज की मांग बढ़ेगी और इसका लाभ देश के किसानों को भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मिलेगा। अब सरकार को मोटे अनाज का रकबा बढ़ाने, रोगरोधी व कम समय व कम लागत में अधिक उत्पादन देने वाले किस्में विकसित करने जैसे ठोस कदम भी उठाने पड़ेंगे जिससे देशी और विदेशी दोनों स्तर पर लाभ मिल सके।
– डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा, लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।