बात बराबरी की:बुढ़ाता हुआ पुरुष शराब की तरह है, जितना पुराना, उतना कीमती
जबकि औरत कटा हुआ सेब है, हवा लगते ही उसकी रंगत उतर जाती है
सर्दियों की शुरुआत थी। शाम का अंधेरा जल्दी घिर आता। मैं काम से लौटते हुए फलों के ठेले पर रुकी। संतरे और अमरूद से सजे उस मनभावन ठेले पर इक्का-दुक्का लोग ही थे। मैंने फल खरीदे। पैसे देते हुए शुक्रिया कहा। उधर से जवाब आया- ‘वेलकम आंटी’! सरपट भागते मेरे पैर एकदम से ठिठक गए। रुककर देखा। फलवाले के बाल लगभग गायब थे। थैली थमाते हाथ झुर्रीदार। आवाज उम्र के बोझ से भरभराई हुई। मैं 24 साल की, इकहरे शरीर और छोटे-कतरे बालों वाली लड़की, जिसकी बड़ी-बड़ी आंखें हर बात पर ढुलक आतीं।
शाम के झुटपुटे को ‘बेनिफिट ऑफ डाउट’ देना चाहा, लेकिन दे नहीं पाई। वह ठेला रोज दिखता, मौसमी फलों की खुशबुओं से सजा हुआ, लेकिन मैं दोबारा नहीं रुकी। ये एक बच्ची की एक लापरवाह अंकल को अपने ढंग की सजा थी। किस्सा बासी है, पर अक्सर याद आता है। वह शहर छूटा। ढेरों शहर बदले, लेकिन आंटी ‘संबोधन’ कंगारू के बच्चे की तरह धपाक से कूदकर सामने आता रहा। हमउम्रों से लेकर 60 पार के अंकल भी आपको आंटी बुला सकते हैं, शर्त बस इतनी कि आप लड़की हों।
शमिता शेट्टी भी इससे बच नहीं सकीं। रियलिटी शो बिग बॉस के 15वें सीजन में 42 साल की शमिता को 37 साल के करण कुंद्रा ने आंटी कह दिया। उम्र में फासला लगभग 5 साल। शमिता करण की दीदी हो सकती थीं, या कुछ और, लेकिन आंटी नहीं। कुछ ही दिन पहले ब्लैक ड्रेस में तस्वीर पोस्ट करने पर एक्ट्रेस जेनेलिया डिसूजा को ‘अश्लील आंटी’ कहा गया। जैकेट की खुली जिप के कारण करीना को ‘दो बच्चों की बेशर्म मां’ कहा जा रहा है। ऐसे हजार वाकये हैं, जो लगातार घटते हैं। आम लड़कियों के साथ फल-सब्जी के ठेले पर और करीना- जेनेलिया के साथ सोशल मीडिया पर।
वैसे आंटी शब्द निहायत मासूम है। कम से कम कैंब्रिज डिक्शनरी तो यही कहती है। आंटी यानी बुआ या मौसी, या फिर चाची, जो गदबदाए बदन की हो, जिसके आंचल से तजुर्बों की महक आती हो, और बच्चों को दुलारते हुए जो दुनियाभर की कहानियां सुना सके। डिक्शनरी की मानें तो आंटी कहलाने वालियों और कहने वालों की उम्र में ज्यादा नहीं तो पंद्रह-सोलह साल का फासला तो जरूर होता होगा, लेकिन कागज से बाहर, और खासकर देसी सड़कों पर ये प्यारा संबोधन अचानक ही गाली बन गया। आंटी यानी लड़की जो थकी हुई हो। हौसलों से भी, और शरीर से भी।
रोमन कवि ओविड ने एक किताब लिखी थी- मेडिकेमिना फेमिनी (Medicamina Feminae)। किताब में उस दौर की औरतों की खूबसूरती का जिक्र था। साथ ही ये भी लिखा था कि औरतों की देह का रंग पीला पड़ा हुआ होना चाहिए। पीला वैसे, जैसे धूप न मिलने पर पौधे की पत्तियां होती हैं। उतरा हुआ रंग पाने की पहली शर्त थी कि औरतें बाग-बाजारों की सैर तक को न निकलें। धूप खाकर पत्ते हरियाते हैं, लेकिन औरत मुरझाती है।
ऐसी स्त्री को रोमन पति झटके में छोड़ देते। छोड़ी हुई औरतों की नैया पार लगाने के लिए ये कवि मियां एक अनूठा फेस पैक भी लेकर आए। इसमें जौ, घोड़े के चारे और अंडे को कई जानवरों के खून के साथ मिलाकर और महीनों तक सुखाकर एक पैक बनाना था। कवि का दावा था कि लेप को चेहरे पर मलते ही औरत का चेहरा दर्पण से भी ज्यादा चमकार मारेगा। मिस्र की रानी क्लियोपेट्रा को आंटी शब्द से इतना डर था कि वो गधी के दूध से नहातीं और दुनिया-जहान के उबटन शरीर पर लगातीं। सैकड़ों साल पुरानी बात को भूल भी जाएं तो भी आंटी ‘हो जाने’ का ये डर शक्ल बदल-बदलकर हर देश की बासी-ताजी औरत को चौंकाता है।
अमेरिकी लेखिका नोरा एफ्रॉन ने एक कॉलम I Feel Bad About My Neck में लिखा था- लड़कियो, अगर तुम कम उम्र हो और मेरा लिखा पढ़ रही हो तो इसी वक्त बिकनी पहनो और सैर पर निकल जाओ। ये बिकनी तब तक मत उतारना, जब तक कि तुम 34 की न हो जाओ। इसके बाद भी अगले 9 सालों तक यही पहने रहना। क्योंकि जब तुम 43 की होगी तो तुम्हें गर्दन छिपाने वाली ड्रेस पहननी होगी। नोरा आगे कहती हैं- हमारे डर झूठे हैं और हमारी गर्दन सच्ची। किसी दरख्त की उम्र जानने के लिए आपको उसे काटना होगा, लेकिन गले के साथ छूट ये है कि उसे काटा नहीं जा सकता। तो गर्दन-छुपाऊ नुस्खे से औरतों को उम्र छिपाने की सहेली-सलाह मिली।
दूसरी तरफ इसी औरत का साथी मर्द भूरे-सफेद बालों में जेल लगाकर घर से निकल पड़ता है। उसकी जेब में ‘साठा तो पाठा’ का बीजमंत्र है, जो उसकी झुर्रियों को तजुर्बे में बदल देगा। मर्दों को अंकल कहलाने से डर नहीं। वे जानते हैं कि अंकल होना उन्हें अनुभवी दिखाता है। फिर बात चाहे कारोबार की हो, या प्यार की। वो जितना पुराने होंगे, महंगी शराब की तरह दाम उतना ही बढ़ेगा। वहीं औरत कटा हुआ सेब है, हवा लगते ही रंगत उतरने लगेगी।
लिहाजा औरतें डर रही हैं। सालों से, सदियों से। वे साल-दर-साल खुद पर ताजगी की कलई चढ़वाती हैं। बाल रंगती हैं। चर्बी हटाती हैं। बस इसलिए कि वे थकी हुई आंटी न कहलाएं।
अमेरिकी लेखिका नोरा की तर्ज पर आज मेरे पास भी कुछ शब्द हैं- लड़कियो, तुम्हारी उम्र 16 हो या 46, अगर तुम मुझे पढ़ रही हो तो रुक जाओ। उठकर आईने के सामने जाओ और गौर से देखो। तुम्हारी आंखों के नीचे वक्त का नहीं, फैसलों का रंग पसरा है। सही या गलत, वे सारे फैसले, जो तुमने अपने बूते लिए। तुम्हारी गर्दन पर जो लकीरें हैं, वो बुढ़ापे नहीं, मेहनत की हैं। हर लकीर तुम्हारी पहचान है। ठीक वैसे ही, जैसे तुम्हारा नाम या तुम्हारा फिंगरप्रिंट। तो बस, आईने में दिखती अपनी इस उम्र को चूम लो और बाहर निकल जाओ, जिन कपड़ों में हो, जैसी दिख रही हो- उसके साथ। अपने साथ।
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