युद्धपोत पर पत्रकार और लहरों में मौत !
पत्रकार संजय सिंह की कलम से
तीन सितम्बर (2005) को हम लोग यानि कि डिफेंस करेस्पांडेट कोर्स (प्रायोजक- रक्षा मंत्रालय, भारत सरकार) के सभी एक दर्जन प्रतिभागी नेशनल डिफेंस अकादेमी, खड़गवासला, पुणे, एयरफोर्स स्टेशन, लोहेगांव, पुणे और केवेलरी टैंक म्यूजियम, अहमदनगर में तकरीबन दो हफ्ते तक पढ़ाई पूरी करने के बाद मुम्बई आ गये। यहां आगे की पढ़ाई हमें भारतीय नौसेना के साथ 4-7 सितम्बर तक करनी थी। फिर हमारी टीम को कश्मीर रवाना हो जाना था। वहां हमें एलओसी (नियंतण्ररेखा) पर सेना के साथ वक्त बिताना था, ताकि हम करीब से वहां दुरूह और विषम भौगोलिक परिस्थिति में तैनात सैनिकों के जीवन, जज्बे और चुनौतियों को देख-समझ सकें।
कोलाबा के पास नेवीनगर, मुम्बई में पश्चिमी नौसेना कमान का मुख्यालय है, जहां हमारी अगुवानी नौसेना की को-आर्डिनेटिंग यूनिट ने बहुत ही शिद्दत से किया। इस यूनिट के को-आर्डिनेटिंग ऑफिसर थे- कमोडोर आरपीएस रवि (डाइरेक्टर- एमडब्ल्यूसी-एमबी), कैप्टन एल के वीरमनि (सीटीओ), कैप्टन एस के लम्भाटे (डिफेंस पीआरओ), कमांडर पी के सिन्हा (सीटीओ-11) और कमांडर जे के सिंह (कोर्स आफीसर)। कमांडर जे.के सिंह से बहुत जल्दी ही मेरा रागात्मक संबंध बन गया, क्यों कि उन्होंने बताया कि उनकी ससुराल देवरिया (यूपी) में है, जो कि मेरा गृह जनपद है। और कैप्टन लम्भाटे से मेरी पहले भी फोन पर बातचीत होती रहती थी, क्योंकि वे रक्षा मंत्रालय के मुम्बई स्थित प्रवक्ता थे, तो गाहे-बगाहे खबरों के सिलसिले में उनसे संवाद स्थापित होता रहता था। मैं दिल्ली में रहकर उनसे फोन पर ही सही, काफी क्लोज हो गया था।
दिन भर की यात्रा के बाद हम लोग शाम में पहुंचे तो काफी थके हुये थे। समुद्र के किनारे नौसेना के आफीसर्स मेस में डिनर पार्टी को देर तक इन्ज्वाय करने के बजाय जल्दी ही खा पीकर अपने-अपने रूम में पहुंच गये। जल्दी सोने की एक वजह यह भी थी कि अगले दिन तड़के से ही हमारे पढ़ाई की शुरुआत होनी थी और वह भी युद्धपोत पर। हमें ‘सी सार्टी’ पर जाना था, तो मन रोमांच से भरा हुआ था। युद्धपोत पर सैर करने की कल्पना मात्र से उत्साह का माहौल था। और यह भी कि उस पर हमें पूरे दिन रहना है और तकरीबन 200 नाटिकल मील की सैर करनी है पाकिस्तान की समुद्री सीमा की तरफ। नींद नहीं आ रही थी। आंख लगी भी तो नीले-हरे समुद्र और उसमें तैरते जल-जन्तुओं के ख्वाब आने लगे। भोर में नींद टूटी तो यह ख्याल मन पर तारी हो गया कि युद्धपोत अन्दर से कैसा होता है और वह युद्ध के दिनों में कैसे अपने देश की हिफाजत करता है.. और उस पर लम्बे समय तक ड्यूटी करने वाले नौसैनिकों का जीवन कैसा होता है ?
हम सुबह जल्दी ही तैयार हो गये और नाश्ते के टेबल पर पहुंच गये। आफीसर्स मेस से हमें जेट्टी पर बस में ले जाया गया। जेट्टी पर युद्धपोत ‘आईएनएस-बेतवा’ अपनी विशालता, वैभवता और बुलन्द फौलादी इरादों के साथ सजधजकर सीना ताने खड़ा था। जेट्टी से युद्धपोत पर हम एक छोटे से तकरीबन दस फिट लम्बे अस्थायी ब्रिज को पार कर पहुंचे। हमें संभल कर उस पर चलने की हिदायत दी गयी। क्यों कि थोड़ा सा बैलेंस बिगड़ा नहीं कि ब्रिज के हिलने-डुलने और पलटने की पूरी संभावना होती है। पलटने के बाद आपको सैकड़ों फिट गहरे समुद्र में जाने से कोई रोक नहीं सकता। हालांकि उसका एक सिरा युद्धपोत से रस्सियों से कसकर बांधा गया था, लेकिन सतर्कता जरुरी थी। हालांकि भारतीय नौसेना के पश्चिमी नवल कमांड, मुम्बई की तरफ से हमें जो टाइम टेबल प्राप्त हुआ था उसमें हमारी सी सार्टी युद्धपोत आईएनएस-सुवर्ण पर होनी थी, लेकिन किन्हीं कारणों से हमारे लिए आईएनएस-बेतवा उपलब्ध कराया गया।
युद्धपोत पर हमारी अगुवानी आईएनएस- बेतवा के कमांडिंग आफीसर कैप्टन राकेश पंडित ने अपनी टीम के साथ बड़ी ही गर्मजोशी से की। कैप्टन पंडित ने भारतीय नौसेना की नौकरी 1 जनवरी 1977 को ज्वाइन की थी। उनकी विशेषज्ञता गनरी और एम्फीबियस युद्धकौशल में है, जैसा कि हमें युद्धपोत आईएनएस-बेतवा के बारे में प्राप्त लिटरेचर से पता चला। कैप्टन राकेश ने डिफेंस सर्विसेज स्टाफ कालेज, द एम्फीबियस वारफेयर स्कूल, क्वान्टिको, यूएसए और कालेज आफ नवल वारफेयर से पढ़ाई करने के बाद डिफेंस स्टडीज में मास्टर्स की डिग्री प्राप्त की है। वर्ष 2002 में उन्हें डिवोशन टू ड्यूटी के लिए नौसेना मेडल से सम्मानित किया गया।
युद्धपोत पर वेलकम ड्रिंक के साथ कैप्टन राकेश पंडित ने बेतवा टीम के सभी 30 अधिकारियों से हमारा परिचय कराया, जिनकी पोत संचालन में प्रमुख भूमिका होती है। इनमें कमांडर महेन्द्र डिमरी- एक्सक्यूटिव आफीसर, कमांडर टी एन कौल- इलेक्ट्रिकल आफीसर, कमांडर पंकज चतुव्रेदी- इंजीनियर आफीसर, लेफ्टिनेंट कमांडर- एन के नटराजन- लाजिस्टिक्स आफीसर, सर्जन लेफ्टिनेंट कमांडर राकेश पांडेय- प्रिंसिपल मेडिकल आफीसर, लेफ्टिनेंट कमांडर अजय तिवारी- डिप्टी इलेक्ट्रिकल आफीसर, लेफ्टिनेंट कमांडर आर के कम्बोज- सीनियर इंजीनियर आफीसर, लेफ्टिनेंट कमांडर नवेन्दु सक्सेना- सिगनल कम्यूनिकेशन आफीसर, लेफ्टिनेंट कमांडर अनिल सदाना- वेपन मेंटिनेंस आफीसर, लेफ्टिनेंट कमांडर पी गोपालन- नेवीगेटिंग आफीसर, लेफ्टिनेंट कमांडर एम आसिफ मकन्दर- गनरी आफीसर, लेफ्टिनेंट कमांडर अमरजीत सलूजा- एंटी सबमरीन वारफेयर आफीसर, लेफ्टिनेंट कमांडर- विनय सिंह- एनबीसीडीओ, लेफ्टिनेंट प्रशान्त हान्डू- एसएसएमयू, लेफ्टिनेंट हरीश बहुगुणा- इलेक्ट्रानिक वारफेयर आफीसर, लेफ्टिनेंट अनिल फर्नाण्डीज- असिस्टेंट इलेक्ट्रिकल आफीसर (एनडीसी) और लेफ्टिनेंट निशान्त शर्मा- असिस्टेंट इलेक्ट्रिकल आफीसर (एएसडब्ल्यू) इत्यादि मौजूद थे। नौसेना के इन अधिकारियों ने तालियों ने हमारा खैरमकदम किया। आईएनएस-बेतवा पर 30 नौसेना अधिकारियों के अलावा 300 नौसेना कर्मियों की भारी-भरकम टीम भी है, जो इसके कुशल संचलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पोत पर तकरीबन 12 घंटे के प्रवास के दौरान हम बहुत सारे नौसैनिकों से भी मिले और उनसे बातचीत की।
युद्धपोत आईएनएस-बेतवा के बारे में मैं आपको बता दूं कि यह भारतीय नौसेना का स्वदेशी फ्रिगेट युद्धपोत है, जिसे 26 फरवरी 1998 को नौसेना में शामिल किया गया था। इसका नाम मध्यप्रदेश में बहने वाली वहां की प्रमुख नदी -बेतवा के नाम पर रखा गया है। युद्धपोत आईएनएस-बेतवा का निर्माण रक्षा मंत्रालय के अधीन कार्यरत सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई गार्डन शिपबिल्डर्स एंड इंजीनियर्स, कोलकाता ने किया है। आईएनएस-बेतवा का ध्येय वाक्य है- विजय हमारी दुश्मन तबाह। निश्चय ही दुश्मन को तबाह करने की क्षमता रखने वाले इस युद्धपोत का वजन 3600 टन है, जो समुद्र में 30 नाटिकल मील की रफ्तार से चलने की क्षमता रखता है। 15 हजार हार्स पार्वर के दो स्टीम टर्बाइन प्रोपल्सन से इस युद्धपोत का ताकत मिलती है। इस पोत पर इजरायल से प्राप्त बराक मिसाइल को भी तैनात किया गया है, ताकि दुश्मन के नापाक इरादे को नेस्तनाबूद किया जा सके। सतह से सतह पर मार करने वाली मिसाइलें, 76 एमएम के गन्स, एंटी सबमैरीन लांचर के साथ उन्नत श्रेणी के रडार और पोत पर तैनात इंटीगल्र हेलीकाप्टर इस युद्धपोत की अजेय बनाते हैं। हमनें इस युद्धपोत पर तैनात हथियारों का डेमो देखा। उनकी अचूक निशानेबाजी देखी और यह भी देखा कि चलते युद्धपोत पर से कैसे हेलीकाप्टर उड़ता (टेकआफ) है और समुद्र में बचाव कार्य कर पोत के चलायमान दशा में ही आकर उस पर लैंड कर जाता है।
समुद्र के सीने को चीरते हुए युद्धपोत ‘आईएनएस-बेतवा’ तेजी से आगे बढ़ता जा रहा था और पीछे छूटता जा रहा था किनारा। पीछे छूटता जा रहा था पश्चिमी नौसेना कमान का वह जेट्टी (प्लेटफार्म), जिसके किनारे बेतवा खड़ा था और हम उस पर सवार हुए थे। पीछे छूटती जा रही थी मुम्बई मायानगरी, जो दूर से और भी भव्य और सुन्दर प्रतीत हो रही थी। गेट वे आफ इंडिया, ताज होटल और मैरीन ड्राइव युद्धपोत के तट से निकलने के बाद साफ नजर आने लगे थे, लेकिन धीरे-धीरे वह भी छोटे दर छोटे होते गये और फिर ऑखों से ओझल। मैं युद्धपोत में सारे तरह के औपचारिकताओं के बाद ऊपरी तल पर स्थित ओपन एयर डेक पर पहुंच गया, जहां से समुद्र का नजारा बिल्कुल साफ नजर आ रहा था। मौसम खराब होने की वजह से ओपन एयर डेक पर तम्बू तान दिया गया था। कुछ देर बाद बरसात भी शुरू हो गयी और तेज हवाओं के चलते बौछार ने हमें तम्बू के नीचे भी भिगोने की असफल कोशिश की। तम्बू के नीचे खाने-पीने का भरपूर बंदोबस्त था। विभिन्न तरह के फ्रूट जूस, साफ्ट ड्रिंक्स से लेकर हार्ड ड्रिंक्स और बीयर तक। स्नैक्स में वेजीटेबल पकौड़े, पीनट्स और सी फुड्स की तमाम वेराइटी। तम्बू के नीचे हरेक कोने और पिलर्स के पास सुन्दर-सुन्दर डस्टबीन रखे थे, करीने से नैपकीन से ढककर। मुझे आश्चर्य हुआ कि इतने सारे डस्टबीन क्यों रखे हुये हैं ! आखिर इनकी क्या जरूरत ? अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए मैंने पोत कैप्टन से पूछ ही लिया। वे मुस्कराये और उन्होंने मुझे जो सलाह दी, उस पर मैंने पूरी यात्रा के दौरान अमल किया। उन्होंने कहा कि इतने सारे डस्टबीन की जरूरत कुछ देर बाद आपको दिखने लगेगी।
उनकी बात सच साबित हुयी। पत्रकार साथियों ने ओपन एयर डेक पर मौजूद खाने-पीने का जमकर लुत्फ उठाया। चारों तरफ समुद्र, तेज समुद्री हवायें कभी इधर से, तो कभी उधर से हम लोगों के साथ अठखेलियां कर रही थीं। कभी-कभी बारिस तेज होने पर उसकी फुहार भी तेज हवाओं के साथ टेंट के अन्दर हमें छूकर चली जाती। मौसम भी था, दस्तूर भी था और आईएनएस बेतवा की शानदार मेजबानी भी थी। लकदक सफेद यूनीफार्म में सफेद साफ दस्तानों के साथ हाजिर नौसेना के वेटर ट्रे में विभिन्न पकवानों के साथ बराबर हाजिर। ऐसे में ज्यादातर साथियों ने ओवर ईटिंग और ड्रिंकिंग कर ही लिया। इधर तेज हवाओं के चलते आगे बढ़ते युद्धपोत में लहरों के साथ थोड़े हिचकोले भी बराबर जारी रहे, जिससे बिना आदत के पोत पर यात्रा करने वालों यानि कि पत्रकार साथियों के पेट में भी उथल-पुथल मचने लगी और जल्दी ही ज्यादातर ने अपने मुंह को डस्टबीन की तरफ झोंक दिया। युद्धपोत पर मौजूद चिकित्सक को पहले से ही इस आशंका के मद्देनजर एलर्ट रखा गया था। उन्होंने बताया कि इसे सी शिकनेस कहते हैं, जिसका खतरा पेट खूब भरा होने के बाद और बढ़ जाता है। उन्होंने वोमिटिंग कर रहे पत्रकारसाथियों को कुछ गोलियां दीं।
मैं यह सब दृश्य बहुत ही मजे के साथ देख रहा था, क्यों कि मुझे सी-शिकनेस नहीं हुआ था, और अगर हुआ भी था तो उसका असर बहुत मामूली था। मैंने पोत कैप्टन की सलाह मान ली थी और ढूंस-ढूंस कर खाने-पीने से बचता रहा था। खाया-पीया जरूर लेकिन बहुत ही दायरे में। इससे फायदा यह हुआ कि पूरे दिन मैं तरोताजा रहा और युद्धपोत पर इन्जवाय करता रहा। जिन साथियों को उल्टियां हो रही थीं, वे गठरी की तरह पोत पर विभिन्न किनारों और पोल्स से टेक लगाकर पसर गये थे। जाहिर है उनका मजा किरकिरा हो गया था। मैंने पोत के चीफ शेफ द्वारा डायनिंग हाल में परोसे गये शानदार लंच का लुत्फ भी उठाया। चावल, दाल, चपाती और भिंडी की लच्छेदार कुरमुरी सूखी सब्जी। किंग फिश करी, भुना गोश्त और सी प्रान के लजीजदार व्यंजन।
और हां, यह बात तो मैं बताना भूल ही गया कि हम जब जहाज के ओपन एयर डेक पर खाने-पीने के भव्य इंतजाम के मजे ले रहे थे, मैंने बीयर की केन हाथ में लेकर एक ऐसा कोना ढूंढ लिया था, जहां से मैं समुद्र की उठती गिरती लहरों और जहां तक नजरें पहुंच पा रही थीं वहां तक सिर्फ समुद्र ही समुद्र, यानि कि विहंगम समुद्र को देखने का लुत्फ उठा रहा था। हमारा युद्धपोत जब मुम्बई में जेट्टी पर खड़ा था, तो वहां वृक्ष और ऊंची अट्टालिकाओं से उड़कर बहुत सारे पंछी जहाज पर बैठ जाते और फिर उड़ जाते। कुछ ऐसे भी पंछी थे तो जहाज पर तो बैठ गये थे, लेकिन उन्हें जहाज के सुदूर समुद्र की तरफ बढ़ते जाने का अहसास नहीं था। मैंने देखा कि जहाज जब अपने पीछे पूरे शहर और आबादी को छोड़कर कई नाटिकल मील सुदूर समुद्र में पहुंच गया तो वे पंछी जो जहाज पर बैठे थे, उड़कर किसी और ठिकाने या पेड़-पौधों की तलाश में समुद्र में दूर तक चक्कर मारते। चारों ओर सिर्फ पानी ही पानी और जब उन्हें कोई आसरा या ठिकाना नहीं मिलता तो थकहारकर फिर इसी जहाज पर लौट आते। इस दृश्य को देखकर मुझे कवि सूरदास की यह पंक्तियां याद आ गयीं, जिसके भावार्थ को मैं साक्षात् फलित होता देख रहा था-
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज को पंछी पुनि जहाज पै आवै।।
कमलनैन को छांड़ि महातम और देव को ध्यावै।
परमगंग को छांड़ि पियासो दुर्मति कूप खनावै।।
जिन मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यों करील-फल खावै।
सूरदास, प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै।।
….जी भरकर मौजमस्ती और खाने-पीने के बाद हम लोगों की पढ़ाई शुरू हुई। हमें पोत के सबसे ऊपरी तल पर स्थित उस कक्ष में ले जाया गया, जिसे ब्रिज कहा जाता है। यह वह जगह होती है जहां से पोत का नियंतण्रऔर संचलन किया जाता है। ब्रिज कक्ष विभिन्न तरह के यंत्रों और उपकरणों से लैस था और सामने पारदर्शी शीशे के उस पार समुद्र का विहंगम नजारा दिख रहा था। ब्रिज से पोत का प्राइमरी या अपर डेक साफ दिख रहा था, जो कि आगे से नुकीला आकार (तरीकबन वी शेप जैसा) बना रहा था। अपर डेक का ऐसा आकार इसलिए होता है कि वह पोत के हल के ठीक ऊपर होता है। अपर डेक पर हेलीकाप्टर मौजूद था, जो कि जल्दी ही किसी बचाव मिशन पर निकलने वाला था। ब्रिज पर मौजूद कमांडर और नौसैनिक पोत संचलन में मशगूल थे। कैप्टन राकेश पंडित ने हमें संचलन और नियंतण्रउपकरणों के बारे में बताया। उन्होंने बहुत ही शिद्दत से हमारी जिज्ञासा शान्त की। उन्होंने यह भी बताया कि सामान्य दशा में कैप्टन का ब्रिज पर रहना जरूरी नहीं होता, लेकिन किसी क्रिटिकल पोजीशन में कैप्टन की वहां उपस्थिति अनिवार्य है।
ब्रिज पर एक साइड में नेवीगेशन स्टेशन था। पोत के नेवीगेटर टेबल पर बिछे एक बड़े से सफेद चार्ट पर पेंसिल से जियोमेट्रिकल इन्सट्रूमेंट के मार्फत कुछ मार्क करते जा रहे थे और कुछ लकीरें खींचते जा रहे थे। मैंने पूछा कि यह जो डाईग्राम आप बना रहे है, वह क्या है ? उन्होंने बताया कि पोत किस दिशा में कितने दक्षांश और कितने देशांतर पर जा रहा है उसे दर्ज किया जा रहा है। मैंने कहा कि आपके सामने जो घड़ी (दिशा सूचक यंत्र) लगी है वह तो साफ-साफ बता रही है इन सबके बारे में। उन्होंने कहा कि घड़ी होने के बावजूद मैनुअल काम भी करते रहना चाहिए ! ऐसा क्यों ? मैंने सहज भाव से पूछा। नेवीगेटर ने बताया कि अगर इलेक्ट्रानिक घड़ी अचानक रुक जाये या खराब हो जाये, तो बीच समुद्र में बहुत मुश्किल हो जायेगा अपने गंतव्य पर पहुंचना या फिर लौटना। पता ही नहीं चलेगा कि हम किस तरफ आगे बढ़ें। क्यों कि डीप सी में दिशा का पता ही नहीं चलता। मौसम अगर खराब हो, सूर्य बादलों में छिपा हो या फिर रात का वक्त हो तो बिना दिशा सूचक यंत्र के पोत भटकता रह जायेगा। ऐसे में नेवीगेटर द्वारा मैनुअल सिस्टम से पोत के चलायमान दशा में बराबर डाईग्राम बनाते रहने से इलेक्ट्रानिक उपकरण पर निर्भरता नहीं रह जाती।
चार-पांच घंटे तक लगातार चलते रहने के बाद हमनें पूछा कि मुम्बई से कितना दूर आ चुके हैं हम लोग और किस दिशा में हैं। कैप्टन ने बताया कि तकरीबन 100 नाटिकल मील पश्चिम में हैं और पाकिस्तान की समुद्री सीमा के काफी करीब हैं। तब तक मौसम काफी खराब हो गया था। तेज बरसात हो रही थी और तेज समुद्री हवायें चल रही थीं। लहरें काफी ऊपर तक आ रही थीं। बहुत ही भारी-भरकम पोत तेज हवाओं से थोड़ा-बहुत हिलता-डुलता प्रतीत हो रहा था। समुद्र के इस हाहाकारी रूप को देखकर हम लोगों (डीसीसी छात्र) के मन में आशंकायें और डर का मिलाजुला रूप तारी होने लगा। आजतक न्यूज चैनल से आए मिहिर और जी न्यूज के पंकज शर्मा ने मजाक भरे लहजे में कहा कि संजय भाई कहीं यह अंतिम यात्रा न साबित हो ! एक-दो ने तो हनुमान चालीसा पढ़ना शुरू कर दिया और कैप्टन से यह भी रिक्वेस्ट किया कि अब हमें मुम्बई की तरफ लौटना चाहिए। कैप्टन पंडित समझ गए कि हम लोग डर रहे हैं खराब मौसम को देखकर। उन्होंने कहा कि इस जहाज के लिए समुद्र का यह बिगड़ा रूप कुछ भी नहीं है। उन्होंने सामने ऊपर की तरफ टंगी एक घड़ी दिखायी और कहा कि इस घड़ी की सूई बताती है कि समुद्र शान्त है या अगर अस्थिर है तो उसका प्रभाव कितना है। उन्होंने दिखाया कि घड़ी की सूई अपने सामान्य पोजीशन (शान्त समुद्र को दर्शाने वाला चिन्ह) से बहुत ही मामूली ऊपर हुई है। घड़ी में काफी ऊपर जाने पर लाल रंग का निशान लगा हुआ था। कैप्टन ने बताया कि सूई अगर लाल रंग पर पहुंच जाये तो इसका मतलब हुआ कि जहाज को बचा पाना मुश्किल होगा। यह तभी होगा जब समुद्र में भयानक सुनामी आ जाये या फिर समुद्र बहुत ही विकराल रूप ले ले। उनके इस ज्ञान के बाद हमारी जान में जान आयी। क्योंकि उस वक्त घड़ी की सूई लाल निशान से बहुत नीचे थी।
समुद्र में हमारा पोत कब फिर से मुम्बई की तरफ लौटने लगा था हमें पता ही नहीं चला। तकरीबन तीन बज गये तो हमनें पूछा कि मुम्बई कब लौटेंगे ? कैप्टन ने कहा कि हम लोग मुम्बई वापसी के रास्ते में बहुत पहले से हैं और तकरीबन 5 बजे तक पहुंच जायेंगे। हमारा युद्धपोत जब बंदरगाह में प्रवेश करने वाला था तो एक और बात हमनें मार्क की। हमनें देखा कि ब्रिज कक्ष से संचलन और नियंतण्रकर रहे कमांडरों और नौसैनिकों के अलावा युद्धपोत के तकरीबन दो दर्जन नौसैनिक, कमांडर और खुद कैप्टन पोत के सबसे आगे के वी शेप वाले खुले हिस्से यानि कि अपर डेक पर तीनों तरफ लाइन से खड़े हो गये हैं, वो भी पोत पर बिल्कुल किनारे और बिना किसी सहारे के। जब कि अपर डेक पर इंसुलेटेड तारों की बाउंड्री भी थी। लेकिन किसी ने भी अपने आपको समुद्र में गिरने से बचाने के लिए तारों को पकड़ नहीं रखा था। वे बिल्कुल तने हुए और संतुलन के साथ खड़े थे और तब तक खड़े रहे जब तक कि पोत जेट्टी (प्लेटफार्म) पर नहीं लग गया।
दिन भर की समुद्र की यात्रा ने हमें थका दिया था। बंदरगाह से नेवीनगर स्थित आफीसर्स क्लब पहुंचते-पहुंचते शाम हो गयी थी। कुछ ने तो सीधे अपने रूम की राह पकड़ी और कुछ ने सीधे बार की।