खौफ के चलते भागे लोगों के खाली घर तालिबान की चौकियां बने, 6 महीने में सत्ता पर हो सकता है काबिज
करीब 20 साल अफगानिस्तान में रहने के बाद अमेरिकी सेना वापस लौट चुकी है। अमेरिकी सैन्य टुकड़ियों की रवानगी के साथ ही खबरें आने लगीं कि जिस तालिबान को खत्म करने के लिए अमेरिका ने पश्चिमी देशों के साथ मिलकर युद्ध लड़ा, वह फिर अफगानिस्तान के कई हिस्सों में अपना कब्जा जमाना शुरू कर चुका है।
दशकों तक युद्ध झेल चुके अफगानिस्तान पर एक बार फिर गृह युद्ध का साया मंडरा रहा है। दैनिक भास्कर ने अफगानिस्तान के मौजूदा हालात और वहां मची सामाजिक- राजनीतिक उथल-पुथल को गहराई से जानने की कोशिश की। पढ़िए, काबुल से ग्राउंड रिपोर्ट…
काबुल की ओर आने वाली हर सड़क पर इस समय बड़े-बड़े चेकपोस्ट लगे हुए हैं और बहुत कड़ी सुरक्षा जांच की जा रही है। अमेरिकी सेना की टुकड़ियों के रातों-रात बगराम एयरबेस खाली कर देने की खबर आने के कुछ दिनों बाद ही पासपोर्ट दफ्तरों के बाहर बड़ी-बड़ी कतारें लगने लगी हैं। इन कतारों में शामिल लोग मानते हैं कि अमेरिका की वापसी के बाद तालिबान की भी वापसी तय है और आने वाले गृह युद्ध से बचने का एक ही तरीका है कि देश छोड़ दिया जाए।
लेकिन, अफगानिस्तान जैसे बेहद गरीब मुल्क में देश छोड़ देने का विकल्प बहुत कम लोगों के पास है। बड़ी आबादी को यहीं रहकर उथल-पुथल झेलनी है। तालिबानी शासन आने का भय आम लोगों के चेहरों और व्यवहार में साफ नजर आ रहा है। दूरदराज के इलाकों को छोड़िए, काबुल जैसे शहर में भी लोग खाने-पीने का सामान बड़ी मात्रा में इकट्ठा कर रहे हैं। घबराहट ऐसी है कि चीजों की कीमतें दस दिनों में तेजी से बढ़ी हैं और बहुत सारी जरूरी चीजों की किल्लत हो गई है। मोटे तौर पर काबुल की यह तस्वीर पूरे देश के हालात को बयां करती है। हाल ही में मैंने देश के उत्तरी इलाके का दौरा किया था। वहां भी ऐसे ही हालात हैं।
देश की केंद्रीय सरकार खुद लोगों को हथियार बांट रही है
आज नहीं तो कल अमेरिकी सेना अफगानिस्तान को छोड़ देगी, यह बात आम अफगानी के दिमाग में भी थी, लेकिन लोग यह मानकर चल रहे थे कि अमेरिका जाने से पहले अफगानिस्तान में शांति और राजनीतिक स्थिरता का कोई न कोई फॉर्मूला निकाल लेगा। इसके लिए कतर में बैठक भी हुई थी, जिसमें तालिबान भी शामिल था। माना जा रहा था कि देश की मौजूदा केंद्रीय सरकार में तालिबान के प्रतिनिधित्व का कोई न कोई तरीका निकलेगा जो सर्वमान्य होगा, लेकिन अमेरिका ने ऐसा कुछ नहीं किया और अब उसकी सेना इस देश से निकल चुकी है।
अब अफगानिस्तान में जो केंद्रीय सरकार है, हालात उसके हाथ से बाहर हो गए हैं। हेरात, कंधार, कुंदूज और काबुल प्रांत के कुछ बड़े शहरों में ही उसका शासन बचता दिख रहा है। तालिबान के हथियारबंद लोग रोज कोई न कोई हिस्सा अपने कब्जे में लेकर अपनी सरकार की घोषणा कर रहे हैं।
हालात कुछ ऐसे बन चुके हैं कि हर शख्स को लगता है कि कोई सरकार नहीं, बस खुद के हथियार ही उसकी सुरक्षा कर सकते हैं। इसी मानसिकता के चलते दशकों से युद्ध झेल रही बड़ी अफगान आबादी के लिए आज हथियार जरूरी हो गए हैं। उत्तरी अफगानिस्तान के हालात तो ऐसे हैं कि यहां हर घर में आपको आधुनिक हथियार मिल जाएंगे। तालिबान के अपने नेटवर्क के पास तो बड़ी तादाद में हथियार, गोला बारूद हैं ही।
जिन लोगों के पास हथियार नहीं हैं, उन्हें अब खुलेआम हथियार मुहैया कराए जा रहे हैं। इसके दो स्रोत हैं। देश की केंद्रीय सरकार ही आम लोगों को हथियार और गोली-बारूद बांट रही है ताकि वह उसकी ओर से तालिबान के खिलाफ लड़ सकें।
इसके अलावा स्थानीय कबीलों के नेता, जिन्हें वॉर लॉर्ड्स और सोशल कमांडर कहते हैं। ये न तो देश की सरकार के साथ हैं और न ही तालिबान के साथ। बल्कि ऐसे लोग समूह बनाकर कुछ हिस्सों पर कब्जा कर लेते हैं और वहां अपनी सरकार चलाते रहते हैं। इन्हें यह खतरा है कि तालिबान अपनी सैन्य ताकत के बल पर पूरे देश में कब्जा कर लेगा तो उनका वजूद खत्म हो जाएगा।
ऐसे में यह समूह भी लोगों को हथियार दे रहे हैं और तालिबान से लड़ने की बात कह रहे हैं। ऐसे लोगों में बहुत से कट्टरपंथी और जिहादी ग्रुप भी हैं। ये समूह तालिबान जैसे ही कट्टरपंथी हैं, लेकिन तालिबान के बैनर के नीचे आने के बजाय खुद अपनी सत्ता चलाना चाहते हैं।
दुनिया भर के सामरिक विशेषज्ञ अफगानिस्तान में गृह युद्ध की आहट की बात कर रहे हैं, लेकिन वास्तव में यह शुरू हो चुका है। देश के उत्तरी हिस्सों से आने वाली खबरें बताती हैं कि तालिबान यहां लगातार आगे बढ़ रहा है। बल्ख, बदखशां जैसे इलाकों में तालिबान और उसके विरोधियों के बीच झड़पों और लोगों के मारे जाने की खबरें आई हैं। देश के सुदूर हिस्सों में युद्ध शुरू हो चुका है, भले ही काबुल में अभी इसका एहसास न हो रहा हो।
देश के बड़े हिस्से में या तो युद्ध चल रहा है या तालिबान ने कब्जा कर लिया है
देश के उत्तरी हिस्सों में तालिबान का कब्जा होता जा रहा है। युद्ध के डर से उत्तरी जिलों के हजारों लोग घर छोड़ कर भाग चुके हैं और उनके खाली घर तालिबानियों की सुरक्षा चौकी बन चुके हैं। उत्तरी हिस्सों में तालिबान का फोकस इसलिए हैं क्योंकि यहां की पश्तून आबादी भी करो या मरो के हालात में उनके साथ हो जाती है।
एक्सपर्ट मानते हैं कि अगले एक महीने का सूरत-ए-हाल यह होगा कि देश के बाहरी और कुछ सीमावर्ती जिले तालिबान के कब्जे में होंगे। हेरात, कुंदुज, काबुल और कंधार प्रॉविंस की राजधानियां ही सिर्फ सरकार के कब्जे में रह जाएंगी। और अगर तालिबान की रफ्तार यही रही और उसे किसी कड़े प्रतिरोध का सामना न करना पड़ा तो अगले छह महीने में काबुल समेत पूरे देश पर तालिबान का कंट्रोल होगा क्योंकि उसके पास प्रशिक्षित लड़ाके हैं। तालिबान के एक कमांडर ने तो यहां तक दावा किया है कि देश के 80% हिस्से पर उसका कब्जा हो चुका है। यह दावा पूरी तरह भले ठीक न हो, लेकिन यह बात सही लगती है कि करीब 80% हिस्से में अफगान फौज और तालिबानियों के खिलाफ झड़पें चल रही हैं।
तालिबान के डर से पलायन शुरू
तालिबानी कब्जों का असर दिखने भी लगा है। लोग देश में ही उन हिस्सों की तरफ आने की कोशिश कर रहे हैं, जहां फिलहाल लड़ाई की संभावना नहीं है। उदाहरण के तौर पर यदि कुंदूज इलाके में लड़ाई तेज होती है तो लोग तखार की तरफ चले जाते हैं, तखार में लड़ाई होगी तो लोग बदखशां की तरफ जाएंगे। परवान प्रांत के जिलों और गांवों में लड़ाई चल रही है। यहां से बड़ी तादाद में लोग तारेकान प्रांत की तरफ आए हैं। हमने बॉर्डर एरियाज में लोगों का बड़ा मूवमेंट देखा है। उत्तरी अफगानिस्तान में लड़ाई तेज होने के साथ लोग पड़ोसी देशों ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान की तरफ भी पलायन कर रहे हैं। अब अफगानिस्तान के दुर्गम हिस्सों से बाहर निकल काबुल लौटते हैं। यहां के सियासी गलियारों में युद्ध और शांति की बातें एक साथ चल रही हैं। तालिबान और केंद्रीय सरकार के प्रतिनिधियों के बीच वार्ता के कई दौर हो चुके हैं, लेकिन इसका कोई नतीजा निकलता नहीं दिखता है।
तालिबान के खौफ से अफगानिस्तान के ज्यादातर हिस्सों में लोग अपने घरों को छोड़कर जा रहे हैं। इस समय देश में ऐसे काफिले बड़े पैमाने पर दिख रहे हैं।
अफगान सरकार युद्ध का मैनेजमेंट नहीं कर पा रही है
तालिबान से युद्ध की रणनीति को लेकर अफगान सरकार की नीति कमजोर दिखती है। तालिबान आगे बढ़ रहा है। इसकी वजह ये नहीं है कि तालिबान के पास ज्यादा ताकत है, वजह ये है कि केंद्रीय सरकार युद्ध का सही प्रबंधन नहीं कर पा रही है।
अफगानिस्तान सेना की नीति है कि किसी तरह प्रांतों की राजधानियों और काबुल को अपने कब्जे में रखा जाए। इसी नीति का नतीजा यह हो रहा है कि दूरस्थ इलाकों में तालिबान को सरकार की तरफ से कोई चुनौती नहीं दी जा रही है, जो थोड़ी बहुत चुनौती मिल रही है, वह सोशल कमांडर और स्थानीय लोगों की ओर से है, लेकिन तालिबान को रोकने के लिए वह नाकाफी है।
इसके पीछे अफगान सरकार का तर्क है कि यदि तालिबान कुछ जिलों पर कब्जा कर भी लेंगे तो वे वहां बेहतर सेवाएं नहीं दे पाएंगे और लोग उनसे नाराज होकर खुद ही विद्रोह कर देंगे, लेकिन पिछले अनुभव और तालिबानियों के क्रूर तरीकों को देखते हुए यह तर्क खोखला लगता है।
तो फिर तालिबान को रोकने का तरीका क्या है?
अब अफगानिस्तान के सामने दो परिस्थितियां हैं। पहली- अफगानिस्तान के राजनीतिक और कबीलाई नेता अपने निजी हितों को किनारे कर के अफगानिस्तान के भविष्य पर ध्यान केंद्रित करें और साथ आएं। तालिबान के खिलाफ अफगानिस्तान के नेता और कबीलाई नेता अगर एक बड़ा गठबंधन बनाते हैं और तय करते हैं कि इस युद्ध को पहले खत्म किया जाए और फिर कुछ ऐसी राजनीतिक व्यवस्था बनाई जाए कि आगे युद्ध और कबीलाई प्रतिस्पर्धा न रहे। तो भी यह कितना सफल होगा, यह कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन अगर ऐसा कुछ होता है तो इसमें उम्मीद की एक किरण जरूर नजर आती है।
दूसरी परिस्थिति ये है कि कबीलाई नेता और राजनीतिक नेता अपने हितों को नहीं त्यागते हैं और अपनी-अपनी ताकत के मुताबिक, अलग-अलग इलाकों में अपना कब्जा बनाए रखने की कोशिश करते हैं तो तालिबान के लौटने के साथ देश फिर एक लंबे गृह युद्ध में फंसता दिख रहा है।
उत्तरी प्रांत बल्ख के ताजिक मूल के कमांडर अता मोहम्मद नूर ने पुरानी बातों को भुलाकर तालिबान के खिलाफ सभी से एकजुट होने का आह्वान किया है। उन्होंने पूर्व विदेश मंत्री सलाउद्दीन रब्बानी और मार्शल अब्दुल रशीद दोस्तम जैसे कमांडरों को एक साथ खड़े होने का संदेश भी भेजा है।
लेकिन, ये कोशिश कितना रंग लाएगी, यह वक्त ही बताएगा। अफगानिस्तान के मौजूदा हालात बेहद अस्थिर और हिंसक हैं। तालिबान और स्थानीय कबीलों की टुकड़ियों के हथियारबंद लोगों की तस्वीरें काबुल भी पहुंच रही हैं, लेकिन सरकार कुछ कर पाएगी, लोगों को इसमें संदेह है। दूरदराज के इलाकों में लहराते तालिबान के झंडे उसके पुराने खौफनाक, क्रूर शासन की याद दिला रहे हैं। दशकों से यही खौफ अफगानियों के चेहरे का स्थायी भाव है। फिलहाल तो भविष्य से भी आशा की कोई किरण फूटती नजर नहीं आती।